कुम्हार
कुम्हार
याद आती है कुम्हार के घूमते चाक की,
याद आती है मिट्टी से सनी नाक की,
याद आती है मिट्टी से पकते कलश की,
याद आती है ठन्डे जल से भरे कलश की।
वह आता मटमैला सा, चढ़ाता चाक पर मिट्टी,
घुमाता चाक, बन जाती मिट्टी की घट्टी ।
बनाता था वह सुराही लम्बी गर्दन वाली,
मनाते थे हम कच्चे पके दीयों के संग दीवाली।
चाक चढ़ी मिट्टी की सोंधी सोंधी सुगंध,
करता रहता वह महीनों दीयों का प्रबंध।
लाते थे हम कुम्हार से मिट्टी की टम टम गाडी,
करती रहती वह टम टम, कभी अगाडी, कभी पिछाड़ी।
यही नहीं रुकती कुम्हार की कलाकारी,
करता रहता वह खिलौनों पर चित्रकारी।
देवी देवताओं की मुर्तिया भी वह गढ़ता,
जाने कैसे वह उन मूर्तियों में प्राण भी फूँक देता।
जब याद करता हुँ कुम्हार के गढ़े हुए बर्तन और खिलौने,
तब सोचता हुँ अब क्यों नहीं रहे वह बचपन के खिलौने।
क्यों टूट रहा हमारा मिट्टी से नाता ?
यह सोच कर कभी दिल ही टूट सा जाता।
मोबाइल और फेसबुक की चपेट में फंसा आज का बचपन,
कँहा पाया आज के बच्चों ने हमारा वह सुनहरा बचपन।
वह मिट्टी के खिलौने, वह कुल्हड़ वाली चाय,
क्यों हो गए सब भौतिकवाद की चपेट में बाय बाय।
आओ इस बार मिट्टी के दीयों से दीवाली मनायें,
आओ मिट्टी के दीये खरीद कर कुम्हार की दीवाली का सामान जुटाएं।
मिट्टी के दीये जलाकर देश की मिट्टी से जुड़ जाएँ,
मिट्टी की सोंधी सुगंध से सद्भावों की अलख जगाएँ।