उलझन
उलझन
जुल्फों से कहीं ज़ियादा
हैं अपनी उलझनें
जटिल कितने प्रश्न देकर
शाम ढलती है यहाँ
भोर भी चुपचाप निकले
क्या बताए हल कहाँ
चाँद भी गमगीन दिखता
और तारे अनमनें
जोड़ बाकी बस रहे हैं
आदमी के फलसफे
किसने दिया किसको यहाँ
पूछते हैं सौ दफे
हैं हिसाबों के झमेले
बन गए कुछ ना बनें
अंश में क्या और हर क्या
ढूँढते दिन-रात सब
ख्वाहिशों के काफिले हैं
मंज़िलों पे पाँव कब
हैं असीमित ख्वाब लेकिन
पास कुछ ही धड़कनें।