STORYMIRROR

Rashmi Sthapak

Classics

4  

Rashmi Sthapak

Classics

उलझन

उलझन

1 min
319

जुल्फों से कहीं ज़ियादा

हैं अपनी उलझनें

जटिल कितने प्रश्न देकर

शाम ढलती है यहाँ


भोर भी चुपचाप निकले

क्या बताए हल कहाँ

चाँद भी गमगीन दिखता

और तारे अनमनें

जोड़ बाकी बस रहे हैं


आदमी के फलसफे

किसने दिया किसको यहाँ

पूछते हैं सौ दफे

हैं हिसाबों के झमेले

बन गए कुछ ना बनें


अंश में क्या और हर क्या

ढूँढते दिन-रात सब

ख्वाहिशों के काफिले हैं

मंज़िलों पे पाँव कब

हैं असीमित ख्वाब लेकिन

पास कुछ ही धड़कनें।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics