युद्ध
युद्ध
सदा छिपी है युद्ध में,
चिर अर्जुन की पीर।
खुद के ही हथियार से,
खुद पर चलते तीर।।
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पछतावे से कब मिटे,
अंतर्मन के द्वेष।
धूल धुआँ बेचारगी,
रहता बस है शेष।।
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हासिल किसको क्या हुआ,
कर लें आज हिसाब।
काँटों के बदले कभी,
मिलते नहीं गुलाब।।
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माँ धरती अंबर पिता,
हम सब नातेदार।
सब बैठे इक नाव में,
सबकी इक पतवार।।
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महलों के पत्थर कहें,
बात यही गम्भीर।
राजा भी वैसे गए,
जैसे गए फ़कीर।।
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छोटी-सी है ज़िंदगी,
इस का यही हिसाब।
पन्ने-पन्ने झर रही,
सांसों भरी किताब।।
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घुटनों के बल बैठ कर,
झरते आँसू रोक।
शर्मिंदा था जीतकर,
हारा हुआ अशोक।।
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फ़ानी इस संसार में,
क्यों लड़ते हम युद्ध।
याद फिर आने लगे,
जग को गौतम बुद्ध।।
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