जीवन चक्र
जीवन चक्र
जीवन चक्र
माँ की कोख में बैठा सोचूँ
निकलूँगा तो भजन करूँगा
जन्म मृत्यु चक्र काट कर
सुन्दर कुछ मैं सृजन करूँगा ।
जन्म हुआ, रुदन करने लगा
विस्मृत हुआ जो किया प्रण था
प्रभु को पाने जगत में आया
भूल गया कि यही मेरा मन था ।
भूख लगी दूध पी लेता
पालन पोषण में लग गया अपने
माँ को देख प्रसन्न हो जाता
यूँ ही हंस देता देख के सपने ।
प्रपंच जगत के अच्छे लग रहे
माया ने मोह लिया मेरे मन को
आत्म को पहचान रहा ना
सबकुछ मान रहा इस तन को ।
शिक्षा दीक्षा पूरी कर ली
सम्पत्ति, धन भी बहुत कमाया
गृहस्थी में स्त्री, पुत्र आ गए
बस एक भजन ही ना हो पाया ।
बाल्यावस्था, जवानी बीत गई
वृद्ध हो गए काल के दंश से
पाप करते हुए उम्र बीत गई
ना जाने मृत्यु डस ले कब हमें ।
संत समागम कर ना पाया
पुण्य किया भी तो छोटा मोटा
गठरी पाप की बड़ी होती गई
अपनी ही दृष्टि में होता गया छोटा ।
अपने को अंतर्मन में देख रहा
डर लगे क्या गति हो मेरी
अब भी क्या कुछ ऐसा हो सके
मुझे प्राप्ति हो जाए तेरी ।
शरणागति चाहूँ तुम्हारी
हे प्रभु मुझे पार लगा दो
असत्य स्वप्न में झूल रहा हूँ
कृपा करो, मुझको जगा दो ।
अजय सिंगला
