Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

Ajay Singla

Classics

5.0  

Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत -११९; श्री नारद जी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति

श्रीमद्भागवत -११९; श्री नारद जी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति

5 mins
449


शुकदेव जी कहें कि परम समर्थ हो

भगवान के शक्ति संचय से

दस हजार पुत्र उत्पन्न किये

दक्ष ने पत्नी असिक्नी से।


हर्यशव नाम के वो पुत्र

एक आचरण और एक स्वाभाव के

संतान उत्पत्ति की आज्ञा दी दक्ष ने

तब तपस्या करने वो चले गए।


पश्चिम दिशा में सिंधू नदी और

समुन्द्र के संगम पर एक तीर्थ

नरायणसर नाम का और वहां

निवास करें मुनि और सिद्ध पुरुष।


अंतकरण में शुद्ध हो गए

नरायणसर में स्नान करते ही

भागवत दर्शन में लग गया

उनका चित्त और उनकी बुद्धि।


फिर भी पिता दक्ष की आज्ञा से

बंधे होने के कारण वो सब

उग्र तपस्या ही करते रहे

वहां देखा उन्हें नारद जी ने तब।


देखें कि रूचि है भागवतधर्म में

प्रजवृद्धि के लिए ततत्पर फिर भी

ज्ञान देने के लिए वहां गए

उनके पास जाकर शिक्षा दी।


अरे हर्यशवों, तुम प्रजापति हो पर

तुम सब मूर्ख हो वास्तव में

पृथ्वी का अन्त नहीं देखा तुमने

तब सृष्टि तुम कैसे करोगे।


देखो एक ऐसा देश है

पुरुष है जिसमें एक ही

एक ऐसा बिल है कि जिससे

बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं।


एक ऐसी स्त्री बहुरूपिणी

और एक पुरुष जो उसका पति है

एक ऐसी नदी है जो

आगे, पीछे दोनों और बहती है।


एक घर है ऐसा विचित्र

पच्चीस पदार्थों से बना हुआ

विचित्र बड़ी जिसकी कहानी है

और एक हंस है ऐसा।


एक चक्र भी है ऐसा

छुरे एवं वज्र से बना हुआ

नारद जी कहें ये चक्र 

अपने आप ही घूमता रहता। 


अरे हर्यशवों तुम लोग जब तक

अपने पिता के उचित आदेश को

समझ न लो और देख न लो

इन उपर्युक्त वस्तुओं को।


तब तक उनकी आज्ञानुसार तुम

सृष्टि कैसे कर सकोगे

शुकदेव जी कहें, ये सुनकर

हर्यशव थे विचार करने लगे।


जन्म से ही बड़े बुद्धिमान थे

गूढ़ वचन सुनकर नारद के

सोचें लिंगशरीर ही पृथ्वी है

आत्मा का अनादि बंधन ये।


अन्त देखे बिना की इसका

मोक्ष के अनुपयोगी कर्मों में

कोई लाभ नहीं है दिखता

इन कर्मों में लगे रहने से।


सचमुच ईश्वर एक ही है

वही आश्रय है हम सब का

वही हमारे भगवान हरि हैं

परन्तु कोई आश्रय नहीं उनका।


प्रवेश करके फिर निकल न पाए

जैसे मनुष्य बिल रूप पाताल में

वैसे ही परमात्मा को प्राप्त कर

नहीं लौटता फिर संसार में।


उस परमात्मा को जाने बिना

स्वर्गादि जो फल हैं देते

उन कर्मों को करने से भी

लाभ कोई हम नहीं देखते।


यह हमारी बुद्धि है जो

बहुरूपिणी व्यभचारिणी स्त्री समान ये

उन कर्मों का क्या प्रयोजन

विवेक प्राप्त किये बिना जीवन में।


ये कर्म आसक्ति बढ़ाते

कुटिल स्त्री समान है बुद्धि ही

इसके संग से पुरुष का ऐश्वर्य

और स्वतंत्रता नष्ट हो गयी।


इसी के पीछे पीछे भटक रहा

कुटिल स्त्री के पति की भांति

इसकी गतियां, चालों को जाने बिना

कर्मों से क्या सिद्धि मिलेगी।


माया ही वो नदी है

दोनों तरफ ही बहती है जो

सृष्टि भी वही करती है

और प्रलय भी करती है वो।


जब लोग सहारा लेने लगते

इसमें से निकक्ने के लिए

तपस्या, विद्या आदि तटों का

वेग से बहे ये, उन्हें रोकने के लिए।


क्रोध, अहंकार आदि के रूप में

और भी वेग से बहती है ये

विवश, अनभिज्ञ जो पुरुष उसके वेग से

लाभ उठाएगा क्या मायिक कर्मों से।


ये पच्चीस तत्व ही एक अद्भुत घर है

 पुरुष उनकाआश्चर्यमय आश्रय है 

वही समस्त कार्य कारणात्मक

जगत का अधिष्ठाता है |


यह बात न जानकार

बिना सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त किये

झूठी स्वतंत्रता से किये जाने वाले

कर्म सारे व्यर्थ ही हैं ये।


शास्त्र हंस के समान हैं

स्वरुप बताने वाला भगवान का

 उसे जाने बिना कर्मों का लाभ क्या

आश्रय छोड़ कर ऐसे हंस का।


यह काल ही एक चक्र है

निरंतर घूमता रहता है ये

धार तीखे छुरे, वज्र के समान

जगत को अपनी और खींचे ये।


इसको रोकने वाला कोई नहीं

यह काल परम स्वतंत्र है

यह बात जानकर भी जो लोग

कर्मों का अनुष्ठान करते हैं।


कर्मों के फल को नित्य समझकर

जो लोग सकाम भाव से

अनुष्ठान करते हैं उनको 

क्या लाभ उन अनित्य कर्मों से।


दूसरा जन्म शास्त्र द्वारा हो

इसलिए शास्त्र पिता हैं हमारे

उनका आदेश कि कर्मों से निवृत हो

ना कि लगना है कर्मों में।


एकमत से निश्चय कर लिया

हे परीक्षित जब हर्यशवों ने

नारद जी की परिक्रमा की और

पथिक बन गए वो मोक्ष पथ के।


नहीं पड़ता है वहां से लौटना

इस पथ पर चलकर फिर

नारद फिर लोकान्तरों में विचरें

मन को हरि चरणों में स्थित कर।


दक्ष को पता चला नारद के कारण

पुत्र उनके कर्तव्यच्युत हो गए

उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ

क्रोध से वो व्याकुल हो गए।


ब्रह्मा जी ने सांत्वना दी उनको

तब उन्होंने उत्पन्न किये थे

पंचजन नंदिनी असिक्नी से

हजार पुत्र शबलाशव नाम के।


पिता आज्ञा पाकर वो चले गए

नारायण सरोवर में तप करने के लिए

भगवान की वो वहां करें आराधना

घोर तपस्या में वो लग गए।


नारद जी पहुँच गए वहां फिर

उपदेश दें उन्हें और कूट बचन कहें

भाईओं के मार्ग का अनुसन्धान करो

समझकर थे ये उनसे कहें।


दर्शन नारद का व्यर्थ न जाये

तब उन सब भाईओं ने भी

अनुगमन किया अपने भाईओं का

सब ने चुना मोक्ष मार्ग ही।


देखा दक्ष ने अपशकुन हो रहे

आशंका उन्हें, अनिष्ठ की पुत्रों के

इतने में उन्हें मालूम हो गया

पुत्रों को चौपट कर दिया नारद ने।


नारद जी पर वो बड़े क्रोधित हुए

और जब नारद उनसे थे मिले

क्रोध में फड़कने लगे होंठ थे

आवेश में नारद जी से बोले।


दक्ष प्रजापति कहें, अरे दुष्ट

झूठ मूठ के साधु बनकर

हमारे बालकों का अपकार किया

भिक्षुओं का मार्ग दिखाकर।


ऋषिऋण ब्रह्मचर्य से 

और देवऋण यज्ञ से 

और पुत्रोप्राप्ति से पितृ ऋण

नहीं उतारा है उन्होंने।


उनके दोनों लोकों का सुख

चौपट कर दिया है तुमने

पापात्मा तुम, दया का वास न

सचमुच ही तुम्हारे ह्रदय में।


भगवान के पार्षदों में रहकर

कलंक लगाया उनकी कीर्ति में

बड़े निर्लज्ज हो, प्रेम भावना का

विनाश तुम हो करने वाले।


जो किसी से वैर न करते

वैर करो तुम, उन लोगों से भी

विषय शक्ति का बंधन कट सकता

समझो तुम सिर्फ वैराग्य से ही।


तुम्हारा विचार ये सही नहीं क्योंकि

अनुभव किये बिना विषयों का

मनुष्य उन दुःखरूप विषयों की

कटुता जान नहीं है सकता।


उनको दुःख का अनुभव होने पर

वैराग्य होता स्वयं फिर जैसा

दूसरों के बतलाने पर

वैराग्य न होता है वैसा।


हम लोग सदगृहस्थ हैं

पालन करें धर्म मर्यादा का

तुम उतारू हो उच्छेद करने पर

हमारी इस वंशपरम्परा का।


भटकते रहो तुम इसीलिए

हे मूढ़, लोक लोकान्तरों में

ठौर नहीं होगी कहीं भी

तुम्हारे ठहरने के लिए।


शुकदेव जी कहें हे परीक्षित

जब ये सब कहा दक्ष ने

दक्ष का शाप स्वीकार कर लिया

बहुत अच्छा कह कर नारद ने।


साधुता इसी का नाम है

शक्ति होते हुए भी बदला लेने की

दूसरों का अपकार किया हुआ

सह लिया जाये साधुता से ही।


Rate this content
Log in