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Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

Classics

तृप्ति

तृप्ति

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तृप्ति 


बैठे बैठे सोच रहा मैं 

क्या मन कभी तृप्त भी होता 

विषयों में फँसाकर हमें दुख दे ये 

ये भी क्या कभी चैन से सोता ।


पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ जो हमारी 

आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा सभी 

उनसे कहता मन, भोग भोग लो 

प्रभु का नाम ले लेना फिर कभी ।


इंद्रियाँ ये खींचती हमको 

अपने अपने प्रिय विषयों में 

नेत्रों का आकर्षण होता 

मनमोहक दृश्य, सुंदर काया में ।


अपना यश और रमणीय संगीत 

ये दोनों कान को भायें 

नासिका गन्ध की अनुभूति करती 

पुष्प, इत्र की और ले जाए ।


जीभ चखना चाहे स्वाद को 

मीठा, खट्टा जो अच्छा लगे मन को 

छूना चाहती त्वचा उसको जो 

मखमली हो, भाये है तन को ।


हाथ, पैर, मुख, जननेंद्रियाँ, गुदा 

पाँच ये कर्मेन्द्रियाँ हमारी 

जो भी काम इन्हें सौंपा गया 

अपना अपना ये कर्म कर रहीं ।


चंचल मन इन दसों इंद्रियों को 

विषयों में लगाकर भोग भोगता 

किन्तु अतृप्ति ही आख़िरी 

फल है इन सब विषय भोगों का ।


मनुष्य विषय जो छोड़ना चाहता 

बुद्धि और विवेक के बल से 

इस मन को वश में कर ले तो 

छूट जाए संसार बंधन ये ।


इन्द्रियों के सुख सब झूठे 

सदा बना रहे जो, सत्य वो 

सूखी रोटी भी भाती भूखे को 

अच्छा ना लगे कुछ, पेट भरा हो ।


लंपट चाहे संग स्त्री का 

ब्रह्मचारी को वही बुरी लगे 

उत्सव में जो संगीत लगे अच्छा 

बुरा लगे वही मातम में ।


तो क्या सुख दुख वस्तुएं ना दे रहीं 

ये तो है मन की अवस्था

संसार सारा कभी सुख,कभी दुख दें 

असत् है क्योंकि सम रहता ना सदा ।


ये संसार स्वप्न की तरह है 

कुछ सत्य ना, परम् असत्य ये 

निद्रा टूटे सुख-दुख खत्म हों 

राग द्वेष जो चलें स्वप्न में ।


मान अपमान भी यहाँ के झूठे 

सुख - दुख भी यहाँ सब है माया 

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद,मत्सर 

इन सब ने मनुष्य को भरमाया ।


पिता झिड़के उतना बुरा ना लगे 

पुत्र झिड़के तो दिल जल जाए 

मान तो सुख देता है सदा 

दुख दे अपमान, कहीं से भी आए ।


तो क्या मान-अपमान सुख-दुख देता 

या हम सुख, दुख अपने को दे रहे 

मान अपमान में सम रहे जो 

वो ही परमानंद में रहे ।


रोज़ जगत में मृत्यु हो रहीं 

घर पर चैन से तुम बैठे हो 

किन्तु मृत्यु हो अपने घर में 

बहुत दिनों तक हृदय तपाती वो ।


दोनों परिस्थियों में मृत्यु तो हुई 

एक जीव तो गया जगत से 

और आ भी गया हो शायद 

किसी और योनि में रूप बदल के ।


तुम्हारे साथ ही बैठा हो शायद 

और दुत्कार रहे हो तुम उसे 

वो भी भूला, तुम भी भूले 

ना जानो तुम उसे, ना वो तुम्हें ।


प्यार करो तुम किसी जीव से 

शरीर से प्यार है या ईश्वर से 

जो उसके भीतर बैठा है 

सब कुछ देखता साक्षी भाव से ।


कोई भी प्रियजन हो अपना 

शरीर से ही तुम प्यार करो तो 

रखो ना, जला दो जल्दी से 

जिस समय उनकी मृत्यु हो।


एक दिन भी तुम झेल ना पाओ 

तो क्या तुम्हें ईश्वर से प्यार था 

फिर तुम शोक क्यों करते हो 

वो तो अजर, अमर सर्वथा ।


लिप्त होकर विषय, वासनाओं में 

तुम अतृप्त रहते सदा हो 

जो चित रम जाए हरि में 

परम् आनंद तुम्हें प्राप्त हो ।


सुख आया तो थोड़ा हंस लिए 

दुख आया तो रो भी लिए कभी 

सुख के साथ दुख जुड़ा हुआ है 

जन्म हुआ तो होगी मृत्यु भी ।


ज्ञान होता दो परिस्थियों में 

श्मशान में हो या हो सत्संग में 

इनसे बाहर निकलते ही मन 

फिर लग जाए प्रपंचों में ।


श्मशान तो ना जा सको रोज तुम 

सत्संग तुम कर लो जी भर के 

स्त्री, पुत्र, पिता,सखा, बंधु सब 

संसार के ये बंधन सब झूठे ।


सच्चा बस एक परमात्मा है 

यत्न करो उसी से जुड़ जाओ 

माना कि आसान नहीं ये 

मुक्ति तो ऐसे ही तुम पाओ ।


प्रभु के भक्तों का संग रखो 

चित लगा हो सदा प्रभु के ध्यान में

मिथ्या संसार की सभी वस्तुएं 

झूठे रिश्ते, नाते सारे ये ।


भोग आकर्षित करते हैं जब 

सोचें हम तृप्त हों इनको भोग के 

जितने भोग भोगते जाएँ 

अतृप्ति बढ़ती ही रहे ।


और भोगों की हो लालसा 

भोग कोई ना मिल सके जो कभी 

जलन करे बहुत वो भीतर 

पाप की और ये लालसा खींचती ।


सपने सुनहरे देखें भविष्य के 

याद ना रहे कि ये ठिकाना 

ना रहे शायद अगले पल भी 

रुकी सांस और लौट के जाना ।


स्वप्न में कोई कष्ट दे रहा 

जग जाओ तो ये कट जाए 

संसार के दुखों से निवृत्ति हो 

अन्तर्मन जब तेरा जग जाए ।


प्रभु की चाह, उसे पाने की इच्छा 

अंदर है तेरे, जन्म जन्म से 

मनुष्य जन्म जो मिला है कृपा से 

इसी जन्म में तू पा ले उसे ।


तृप्ति किसने पाई जगत में 

ये तो बस हरिभक्ति में ही 

सुख - दुख, मान- अपमान सम लगे 

तब बस रह जाए ना कुछ भी ।


सारी प्रकृति के भोग भोगकर 

भी तेरा मन कभी ना तृप्त हो 

प्रेम से समर्पण कर सब प्रभु को 

क्षण भर में तुम तृप्त हो जाओ ।


असत्य ये संसार है सारा 

सत्य बस एक परमात्मा ही 

शरणागत हो जाओ प्रभु के 

परमानंद तभी जब कोई इच्छा नहीं ।


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