झूठ कहा न करो
झूठ कहा न करो
जब कभी झूठ की बस्ती में, सच को तड़पते देखा
तब मैंने अपने भीतर किसी, बच्चे को सिसकते देखा
माना तू सबसे आगे है, मगर बैठ न जाना अभी
दो चार कदम ही सही, लोगों को भटकते देखा
धर्म, सत्य, प्रेम भी कोई चीज नहीं
मैंने दौलत के लिये, आदमीे को बदलते देखा
है हुस्न ठीक तेरा, तो गुरुर क्यूँ है
मैंने सूरज को हर शाम मे ढ़लते देखा
महलो की चारदिवारी में, भी दिल छोटे
रिश्ते की सर्द धूप को ढलते देखा
तुम ही तो थे मेरे यहाँ, इस ज़माने में
वरना मौसमों को, हर रूप मे बदलते देखा
किस बात पे तू इतराता है, हे वक़्त से बड़ा तो कुछ भी नहीं
मैंने तारों से जगमग आसमाँ, को भी टूटते देखा।
