ग्वाला चुपके से उर-आंगन में आता है
ग्वाला चुपके से उर-आंगन में आता है
ना जाने कैसा रंग डाला
ना जाने कैसा तुने मुझ पर रंग डाला,
तन पर तो कोई रंग नहीं है,
मन रंगों से भर डाला।
मन मेरे में चुपके से आके
बस गया एक नटखट ग्वाला,
कोरी मन-चुनर को उसने भिगो डाला।
भर नैनों में लाज ये पागल मन मचलता है,
अल्साए नैनन भी तो सपनों में खो जाते हैं।
कल्पना में मेरी कितने रंग बस गए,
बताए नहीं बता पाती हूं,
मन-मन्दिर में मोहिनी सूरत
देख - देख मुस्काती हूं।
उसके मृदु स्वागत के लिए
ऊर-द्वार खुला जाता है,
चुपके से वो ग्वाला आकर
मेरे मन -मन्दिर में बस जाता है।
ढलका जाता आंचल मेरा,
पांव थिरक - थिरक जाते हैं।
हर धड़कन मेरी गा रही गीत है, भाव चंचल हुए जाते हैं,
मानो किसी गंगा तट पर यौवन धुला-धुला जाता है।
मानो जमना तीर पे चीर कोई चुराता है,
मानो जैसे रखने को लाज चीर कोई बढ़ाता है,
मानो मीठी-मीठी तान से घायल किए कोई जाता है,
हां चुपके से वो ग्वाला मेरे ऊर-आंगन में आ जाता है।