श्रीमद्भागवत -३००ः हंसरूप में सनकादि को दिए हुए उपदेश का वर्णन
श्रीमद्भागवत -३००ः हंसरूप में सनकादि को दिए हुए उपदेश का वर्णन
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, उद्धव
सत्व, रज, और तम तीनों ये
केवल बुद्धि के ही गुण हैं
गुण नही हैं ये आत्मा के ।
सत्व के द्वारा रज और तम पर
विजय प्राप्त कर लेनी चाहिए
सत्वगुण की वृद्धि होती जब
स्वधर्म की प्रवृति हो मेरे ।
निरंतर सात्विक वस्तुओं के सेवन से
सत्वगुण की वृद्धि है होती
जिस के पालन से सत्वगुण की वृद्धि हो
सबसे श्रेष्ठ है धर्म वही ।
रजोगुण और तमोगुण को
वह धर्म नष्ट कर देता
उन्हीं के कारण होने वाला
अधर्म भी शीघ्र मिट जाता ।
शास्त्र, जन, प्रजाजन,देश,समय
जन्म, ध्यान, मंत्र, संस्कार ये
सब वस्तुएँ यदि सात्विक हों तो
सत्वगुण की वृद्धि करते ।
राजसिक हों तो रजोगुण की
तामसिक हों तो तमोगुण की वृद्धि करें
महात्मा जिनकी प्रशंसा करते हैं
वो सात्विक हैं इनमें से ।
जिनकी निन्दा करते वो तामसिक
राजसिक हैं वो, जिनकी उपेक्षा करें
धर्म की वृद्धि होती है
सात्विक शास्त्र आदि के सेवन से ।
धर्म की वृद्धि से अंतकरण शुद्ध हो
ज्ञान होता है आत्मतत्व का
ये सुनकर फिर उद्धव जी ने
श्री कृष्ण से प्रश्न ये पूछा ।
भगवन, प्रायः सभी मनुष्य जानते
विपतियों का घर हैं विषय ये
फिर भी कुत्ते, गधे, बकरे समान ही
उन्हीं को भोगते रहते हैं वे ।
दुःख सहन करते उनके लिए
इसका क्या कारण बतलायिए
भगवान कृष्ण कहें, प्रिय उद्धव
बताता हूँ मैं, सुनो तुम ध्यान से ।
जब जन अज्ञानवश स्वरूप को अपने
भुलाकर, अहंबुद्धि करे शरीर में
तब सत्वप्रधान मन उसका
रजोगुण की और झुक जाए ।
विषयों का चिंतन करने लगता तब
काम के फंदे में फँस जाता
इंद्रियों के वश होकर वह
उन कर्मों को ही करने लगता ।
यह जानते हुए भी कि इन
कर्मों का अंतिम फल दुःख ही
दूसरी और विवेकी पुरुष का
विक्षिप्त होता है जो चित कभी ।
रजोगुण और तमोगुण के वेग से
तब भी दोषदृष्टि बनी रहे विषयों में
और वह बड़ी सावधानी से
अपने चित को एकाग्र करके ।
चेष्टा करता रहता जिससे कि
आसक्ति नही होती विषयों में
विजय प्राप्त कर प्राणवायु पर
साधक मन लगा लेता मुझमें ।
मेरे शिष्य सनकादि ऋषियों ने
योग का यही स्वरूप बताया
उद्धव जी कहें, श्री कृष्ण आपने
किस समय उनको ये उपदेश दिया ।
उपदेश दिया किस रूप में आपने
मैं जानना चाहूँ अब ये
भगवान कृष्ण ने कहा, हे उद्धव
सनकादि मानस पुत्र ब्रह्मा के ।
एक बार अपने पिता से
योग की सूक्ष्म अंतिम सीमा के
सम्बंध में प्रश्न किया था
पिता से उन्होंने पूछा ये ।
कि गुणों में घुसा रहे चित तो
गुण भी चित में प्रविष्ट हैं रहते
संसार सागर पार करना चाहें
जो पुरुष फिर ऐसी स्थिति में ।
करना चाहे मुक्ति प्राप्त करना
वह इन दोनों को अलग कैसे करे
भगवान कृष्ण कहतें हैं, उद्धव
ब्रह्मा जी भी प्रश्न को ना समझ सके ।
यद्यपि ब्रह्मजी शिरोमणि देवताओं के
स्वयंभू और जन्मदाता प्राणियों के
मूलकारण ना समझ सके
इस प्रश्न
का फिर भी वे ।
क्योंकि बुद्धि कर्म प्रवण उनकी
इसलिए उन्होंने चिंतन किया मेरा
तब मैं हंस का रूप घारण कर
उनके सामने वहाँ प्रकट हुआ ।
मुझको देखकर सनकादि ऋषि
ब्रह्मजी के साथ मेरे पास आए
मेरी चरण वंदना की, पूछा
“ आप कौन हैं “, ये बतलायिए ।
प्रिय उद्धव, सनकादि ऋषि
परमार्थतत्व के जिज्ञासु थे
अब मैं वो सब तुमहे सुनाता
जो कुछ मैंने कहा था उनसे ।
देवता, मनुष्य, पशु पक्षी आदि
पंचभूतातमक होते हैं शरीर सभी
वैसे भी अभिन्न हैं ये सब
और अभिन्न हैं परमार्थरूप से भी ।
“ आप कौन हैं ?”, ये प्रश्न आपका
केवल वाणी का व्यवहार है
विचार पूर्वक नही ये प्रश्न
अतः ये निरर्थक ही है ।
मन से, वाणी से, दृष्टि से तथा
अन्य इंद्रियों से भी जो
ग्रहण किया जाता है वह
सब का सब मैं ही तो ।
मुझसे भिन्न और कुछ भी नही
तत्वविचार के द्वारा समझो ये
चिंतन करते करते ही चित
विषयकार हो जाता है ये ।
विषय चित में प्रविष्ट हो जाता
बात ये सत्य है, तथापि
मेरे स्वरूप, जीव की उपाधि है
विषय और चित ये दोनों ही ।
अर्थात् आत्मा का कोई भी
सम्बंध नही है इन दोनों से
साक्षात्कार करके मुझ परमात्मा का
इन दोनों को त्याग देना चाहिए ।
मुझ में स्थित होकर बुद्धि के
बंधनों का त्याग कर देना चाहिए
इससे ही त्याग हो जाता है
विषय और चित का अपने आप से ।
वर्णाश्रम आदि भेद, स्वर्गादि फल
और उनके कारण मूल कर्म ये
सबके सब मिथ्या आत्मा के लिए
स्वप्न में देखे पदार्थ हों जैसे ।
स्वप्न अवस्था, जागृत, सुषुप्ति
तीनों का साक्षी आत्मा ये
मैंने स्वप्न देखा, मैं सोया, मैं जागा
एक ही आत्मा समस्त अवस्थाओं में ।
ऐसा विचारकर कि मन की ये तीनों
माया से कल्पित हैं मेरी
आत्मा में ये असत्य हैं, निस्चय कर
आराधना करो मुझ परमात्मा की ।
समझो कि जगत मन का विलास है
नष्टप्रायः है, अत्यंत चंचल ये
भ्रम मात्र ये, और स्थूल शरीर
माया का खेल, समान स्वप्न के ।
अज्ञान से कल्पित है इसलिए
दृष्टि हटाकर इस देहादि रूप से
मगन हो जाए जीव जो
आत्मानन्द के अनुभव में ।
नाशवान शरीर सम्बन्धी बातों पर
सिद्ध पुरुष दृष्टि ना डाले
प्राण और इंद्रियों के साथ में
शरीर अधीन है प्रारब्ध के ।
देहादि रूप से दृष्टि हटाकर
मगन रहे मुझ परमात्मा में
आत्म ज्ञानी पुरुष जो होते
स्वीकार ना करे शरीर को ऐसे ।
जो स्त्री, पुत्र, धन आदि
प्रपंच से मोहित होता है
सनकादि ऋषियों, मैंने ये
सांख्य और योग का रहस्य कहा है ।
इन दोनों का गोपनीय रहस्य ये
यही उपदेश देने आया हूँ
तत्वज्ञान मैं देने आया
और मैं स्वयं ही भगवान हूँ ।
समस्त गुणों से रहित मैं
किसी की अपेक्षा नही करता
मैं सबका हितेषी हूँ और
मैं सबका प्रियतम और आत्मा ।
प्रिय उद्धव, सनकादि ऋषियों का
संशय मिटा दिया ऐसे मैंने
भक्ति से उन्होंने मेरी पूजा की
आ गया फिर मैं अपने धाम में।