श्रीमद्भागवत - १४५ ;यतिधर्म का निरूपण और अवधूत प्रह्लाद संवाद
श्रीमद्भागवत - १४५ ;यतिधर्म का निरूपण और अवधूत प्रह्लाद संवाद


नारद जी कहें , धर्मराज यदि
ब्रह्मविचार का सामर्थ्य हो वानप्रस्थी में
तो शरीर के अतरिक्त सब कुछ छोड़ कर
मनुष्य वो तब संन्यास ले ले।
किसी वस्तु, व्यक्ति, स्थान और
समय की उपेक्षा वो न रखकर
एक गांव में एक ही रात ठहरने का
नियम लेकर विचरे पृथ्वी पर।
यदि वह वस्त्र पहने तो
केवल कोपान ही धारण करे
जिससे कि गुप्तांग ढक जाएं
या फिर वो वस्त्रहीन रहे।
आपत्ति न आये जब तक कोई
बस आश्रम के चिन्हों को धारण करे
इनके सिवा अपनी त्यागी हुई
किसी भी वस्तु को न ग्रहण करे।
सन्यासी को चाहिए कि वह
हितेषी हो समस्त प्राणियों का
शांत रहे, भगवान् परायण रहे
आश्रय न ले वो किसी का।
अपने आप में ही रमे वो
और विचरे वो अकेला ही
ऐसा समझे केवल माया है
बंधन और मोक्ष दोनों ही।
न अभिनन्दन करे निश्चित मृत्यु का
और न ही अनिश्चित जीवन का
प्रनियों की उत्पत्ति और नाश के कारण
काल की करता रहे प्रतीक्षा।
कोई जीविका न करे वो
अपने जीवन निर्वाह के लिए
वाद विवाद के लिए ही तर्क न करे
संसार में किसी का पक्ष वो न ले।
शिष्य मण्डली न जुटाए
बहुत से ग्रंथों का अध्ययन करे
आरम्भ न करे बड़े कामों का
न ही वो व्याख्यान दे।
हो तो वो अत्यंत विचारशील
जान पड़े जैसे बालक कोई
मनुष्य की दृष्टि में ऐसा लगे
मानो हो वो गूंगा कोई।
युधिष्ठर, इस विषय में महात्माओं ने
वर्णन किया प्राचीन इतिहास का
यह इतिहास एक संवाद है
दत्तात्रेय मुनि और प्रह्लाद का।
विचरण कर रहे प्रह्लाद जी
एक बार्, मंत्रियों के साथ में
देखा सह्य पर्वत की तलहटी में
कावेरी के तट पर मुनि एक पड़े।
धूल से शरीर की ज्योति ढकी हुई
प्रह्लाद ने जाकर चरणों का स्पर्श किया
प्रणाम किया, पूजा की उनकी
और उनसे था ये प्रश्न किया।
भगवन, शरीर हृष्ट पुष्ट आपका
जैसे उद्योगी और भोगी पुरुषों का
उद्योग से धन, धन से भोग मिलें
शरीर हृष्ट पुष्ट हो भोगियों का।
भगवन, उद्योग नहीं करते आप हैं
आपके पास धन नहीं इसलिए
भोग कहाँ से प्राप्त होंगें
फिर शरीर हृष्ट पुष्ट है कैसे।
विद्वान, समर्थ और चतुर आप हैं
और आप ऐसी अवस्था में
संसार को कर्म करते देख सभी
पड़े हुए हैं समभाव में।
इस सब का क्या कारण है
कृपाकर मुझको बतलाइये
नारद कहें कि प्रह्लाद के प्रश्न सुन
दत्तात्रेय जी उनसे फिर ये कहें।
दत्तात्रेय जी कहें, हे दैत्यराज
करें सम्मान श्रेष्ठ पुरुष तुम्हारा
जानो तुम कर्मों की प्रवृति का
और निवृति का क्या फल मिलता |
तुम्हारी अनन्य भक्ति के कारण
नारायण विराजें तुम्हारे ह्रदय में
फिर भी मुझे जैसा कुछ आता
उसके अनुसार उत्तर दूँ मैं तुम्हे।
प्रह्लाद, तृष्णा ऐसी वस्तु है
इच्छानुसार भोग के मिलने पर भी
जो कभी नहीं होती पूरी
संसार चक्र उसी कारण ही।
न जाने कितने कर्म करवाए
तृष्णा ने मुझसे, और इससे
कितनी योनियों में भटककर देववश
मनुष्य योनि मिली है अब मुझे।
स्वर्ग, मोक्ष, तिर्यग्योनी तथा
मानवदेह इससे प्राप्त होती
पुण्य करो इसमें तो स्वर्ग मिले
पाप करें तो योनि पशु पक्षी की।
निवृत हो जाएं तो मोक्ष
और दोनों प्रकार से काम करें तो
इस मनुष्य को फिर से
मनुष्ययोनि ही प्राप्त हो।
परन्तु मैं ये देखता हूँ कि
संसार के सभी पुरुष कर्म जो करते
सुख की ही प्राप्ति के लिए
और निवृत होने को वो दुःख से।
किन्तु उसका फल उल्टा होता
और भी दुःख में पड़ जाते वो
इसलिए मैं उपरत हो गया
इन सबसे, ये कर्म हैं जो।
विषयों की और है दौड़ता
मनुष्य अपनी आत्मा को छोड़कर
प्रारब्ध को भोगता हुआ पड़ा रहता
मैं समस्त भोगों को मनोराज्यमात्र समझकर।
शरीर आदि तो प्रारब्ध के आधीन हैं
उसके द्वारा जो सुख पाना चाहता
या मिटाना चाहता दुःख अपना
कभी वो सफल नहीं हो पाता।
मनुष्य सर्वदा आक्रान्त रहता है
शरीरिक, मानसिक आदि दुखों से
धनियों का दुःख तो मैं देखता रहता
जो लोभी हैं और हैं इन्द्रियों के वश में।
भय के मारे उन्हें नींद न आये
संदेह बना रहता है सब पर
और शरीर और धन के लोभी
सदा वो रहते हैं डरकर।
डरता वो राजा, चोर, शत्रु, स्वजन
पशु, पक्षी,याचक और काल से
सोचें कहीं कोई भूल न कर दूँ
डरता रहता अपने आप से।
बुद्धिमान पुरुष को चाहिए
जिसके कारण शिकार होना पड़े
शोक, मोह, भय, क्रोध आदि का
उस धन, जीवन के स्पृहा का त्याग करे।
इस लोक में सबसे बड़े गुरु मेरे
अजगर और मधुमक्खी हैं
वैराग्य और संतोष की प्राप्ति
हमें उन्ही की शिक्षा से हुई है।
मधुमक्खी जैसे इकठ्ठा मधु करती
वैसे ही कष्ट से लोभी धन संचय करे
परन्तु उसके स्वामी को मारकर
दूसरा कोई उसे छीन ले।
इससे मैंने ये शिक्षा ग्रहण की
रहो विरक्त विषय भोगों से
निष्चेष्ट पड़ा रहता हूँ
इसलिए मैं समान अजगर के।
देववश जो कुछ मिल जाता है
रहता हूँ संतुष्ट उसी में
धैर्य धारण कर यूँ ही पड़ा रहता
बहुत्त दिनों तक यदि कुछ भी न मिले।
कभी थोड़ा और कभी अन्न बहुत
कभी नीरस, तो कभी स्वादिष्ट
कभी सर्वथा गुणहीन और
कभी अनेकों गुणों से युक्त।
कभी श्रद्धा से प्राप्त भोजन मिले
कभी अपमान के साथ ये मिलता
कभी अपने आप मिल जाये
दिन में कभी, कभी रात में मिलता।
कभी एक बार भोजन कर भी
तभी दोबारा कर लेता हूँ
भोगों से अपने प्रारब्ध के
ही मैं संतुष्ट रहता हूँ।
इसलिए मृगचर्म या वल्कल
या कोई रेशमी या सूती
वस्त्र जैसा भी मिल जाये
पहन लेता हूँ मैं वैसा ही।
कभी पृथ्वी, पत्ते पत्थरों या
पड़ा रहता कभी राख के ढेर पर
कभी दूसरों की इच्छा से
महलों में पलंग के गद्दों पर।
कभी नहाकर सुंदर वस्त्र पहनूं
रथ, हाथी घोड़ों पर चलता
कभी पिशाचों के समान मैं
नंग धडंग होकर विचरता।
न किसी की निन्दा करूँ मैं
न करूँ मैं स्तुति किसी की
मनुष्य का चाहता परम कल्याण मैं
परमात्मा में एकता चाहता इनकी।
सत्य का अनुसरण करे जो
उन मनुष्यों को चाहिये कि
नाना प्रकार के भेद विभेद जो
चित वृति में उन्हें हवन करे।
चित्तवृत्ति को फिर मन में
मन को सात्विक अहंकार में
अहंकार को महतत्व द्वारा
हवन कर दे वो माया में।
और उस माया को फिर
आत्मानुभूति में स्वाहा करे
आत्मस्वरूप में स्थित हो
निष्क्रिय एवं उपरत हो जाये।
परमहंसों के इस धर्म का
श्रवण कर फिर प्रह्लाद ने
पूजा की उनकी और विदा ले उनसे
प्रस्थान किया राजधानी के लिए ।