न जाने क्यों
न जाने क्यों
हर रोज यहाँ जमाने को
मैंने बदलते हुए देखा है,
जिंदगी को न जाने क्यों
मैंने सिसकते हुए देखा है।
जब चलते थे तो उन्हें मैंने
सीना ताने चलते देखा है,
उनको आज पाँव उठाने के लिए
सहारे को तलाशते देखा है।
नजरों की चमक देखते थे
तो सहम जाते थे परिवार,
उन्हीं नजरों को बरखा की
तरह बरसते देखा है बार-बार।
जिनके हाथों के इशारे से
दौड़ पड़ते थे जाबाज़,
उन्हीं हाथों को हवा की तरह
थरथराते देखा है मैंने आज।
जिनके गले में कभी थी
बिजली-सी कड़कती आवाज़,
उन होठों पर भी मजबूरी
का ताला लगा देखा है आज।
जवानी के साए कुदरत की
बेशकीमती इनायत है इंसान,
इनके जाते ही बेजान-सा
देखा है महल का नुकसान।