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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत-२५७; श्री कृष्ण रुक्मिणी संवाद

श्रीमद्भागवत-२५७; श्री कृष्ण रुक्मिणी संवाद

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श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

भगवान कृष्ण बैठे हुए थे

आराम कर रहे पलंग पर

साथ में रुक्मिणी जी के ।


भीष्मकनन्दिनी रुक्मिणी जी

अपने पति की सेवा कर रहीं

सुंदर महल बड़ा रुक्मिणी जी का

श्री कृष्ण को वो पंखा झल रहीं ।


रुक्मिणी जी मुस्कुरा रहीं थीं

श्री कृष्ण ने प्रेम से कहा उन्हें

राजकुमारी, विवाह करना चाहते थे

बड़े बड़े नरपति जब तुमसे ।


उन सबको तुमने छोड़ कर

मेरे जैसे साधारण व्यक्ति को

अपना पति स्वीकार किया तुमने

किसी प्रकार तुम्हारे समान नही जो ।


सुंदरी, ऐसा तुमने क्यों किया

आ बसे समुंदर में हम तो

जरासन्ध आदि राजाओं से

डरकर यहाँ आए हम देखो ।


हमने तो वैर बांध रखा है

बड़े बड़े बलवानों से

और प्रायः राजसिंहासन जो

वंचित हम उसके अधिकार से ।


किस मार्ग के अनुयायी हम

या हमारा मार्ग कौन सा

यह भी मालूम नही है

सभी लोगों को अच्छी तरह ।


हम लोग लोकिक व्यवहार कभी

अच्छी तरह पालन करते नही

अनुनय, विनय के द्वारा स्त्रियों को

हम लोग रिझाते भी नही ।


हमारे जैसे पुरुषों का 

जो स्त्रियाँ अनुसरण हैं करतीं

उन्हें प्रायः भोगना पड़ता

जीवन में क्लेश और क्लेश ही ।


हम तो सदा के अकिंचन हैं

ना कुछ है, ना रहेगा पास हमारे

ऐसे ही अकिंचन लोगों से

हम सदा प्रेम भी करते ।


और वो भी हमसे प्रेम करें

परन्तु जो अपने को धनी मानते

प्रायः हमसे प्रेम ना करें और

हमारी सेवा भी नही करते ।


जिसका धन, कुल, ऐश्वर्या, सौंदर्य 

और आय समान होता है अपने

सम्बंध, मित्रता और विवाह का

बनाना चाहिए बस उन्हीं से ।


नही करना चाहिए उनसे जो

श्रेष्ठ या अधम हों अपने से

अपनी अदूरदर्शिता के कारण

ये विचार नही किया तुमने ।


बिना जाने बूझे, भिक्षुओं से

सुनकर झूठी प्रशंसा मेरी

मुझ गुनहीन को वरण कर लिया

पर अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं ।


अपने अनुरूप किसी श्रेष्ठ क्षत्रिय को

अब भी वरण कर सकती हो

लोक, परलोक की तुम्हारी

जिससे अभिलाषाएँ पूरी हों ।


शिशुपाल, जरासन्ध, दंतवक्त्र आदि और

रुक्मी, बड़ा भाई तुम्हारा जो

सभी मुझसे द्वेष करते थे

यह सब तो तुम जानती ही हो ।


अपने बल पोरुष के मद में

वे सब अंधे हो रहे थे

तुम्हारा हरण किया था, उनका

मान मर्दन करने के लिए ।


श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

रुक्मिणी जी को अभिमान हो गया ये

कि क्षणभर के लिए भी

भगवान मुझसे अलग नही होते ।


इनकी सबसे अधिक प्यारी मैं

इसी गर्व की शांति के लिए

ये सब रुक्मिणी को कहकर

भगवान कृष्ण चुप हो गए ।


परीक्षित, रुक्मिणी जी ने जब ऐसी

अप्रिय बातें सुनीं कृष्ण की

अत्यंत भयभीत हो गयीं क्योंकि

पहले ऐसी कभी ना सुनी थीं ।


हृदय धड़कने लगा उनका

चिंता के समुंदर में डूब गयीं

हाथ का चँवर गिर पड़ा

अचेत हो धरती पर गिर पड़ीं ।


भगवान ने देखा, मेरी प्रेयसी

हास्य, विनोद की गम्भीरता समझे ना

प्रेम पाश की दृढ़ता के कारण

उसकी हो रही ये दशा ।


हृदय उनका करुणा से भर गया

उठा लिया रुक्मिणी जी को

करकमलों से मुँह पोंछा उनका

छाती से लगा लिया उनको ।


समझाने बुझाने में बड़े कुशल वे

एकमात्र आश्रय सभी भक्तों के

रुक्मिणी जी को समझाया और

प्रेम से कहा तब उनसे ।


‘ विदर्भनन्दिनी, बुरा मत मानो

रूठना नही आज तुम मुझसे

मेरे ही परायण तुम, जानता मैं ये

छलना की थी ये हंसी हंसी में ।


देखना चाहता था ऐसा कहकर

कैसे फड़कते होंठ तुम्हारे

मुँह कैसे लगे भोहें चढ़ जाने से

कैसी लाली आती नेत्रों में ।


श्री शुकदेव जी कहते हैं राजन

रुक्मिणी को जब विश्वास हो गया

कि उसके प्रियतम कृष्ण ने

ये तो बस एक परिहास किया था ।


भय जाता रहा हृदय का कि

कृष्ण छोड़ ना दें हमें

मुखारविंद निहारती हुई कृष्ण का

कहने लगीं रुक्मिणी उनसे ।


‘ कहना ठीक है आपका ये कि

मैं भगवान के अनुरूप नहीं

समस्त गुणों से युक्त, अनन्त वो

नही कर सकती समानता उनकी ।


कहाँ वो अपनी अखण्ड महिमा में

स्थित, तीनों गुणों के स्वामी

आप देवताओं से सेवित

मैं तो बस प्रकृति गुणमयी ।


कामनाओं के पीछे भटकने वाले

अज्ञानी लोग ही करें सेवा जिसकी

ऐसे में भगवान के समान

मैं भला कैसे हो सकती ।


आपका यह कहना भी ठीक है

कि राजाओं के भय से

उनसे बचने के लिए ही

छुपे आप इस समुंदर में ।


तीनों गुणरूप राजा हैं ये 

नहीं हैं ये राजा पृथ्वी के

विराजमान रहें आत्मा के रूप में

उन्हीं के अन्तकरणरूप समुंदर में ।


वैर रखते आप राजाओं से

संदेह नही है कोई इसमें

परंतु ये राजा कौन हैं ?

अपनी दुष्ट इंद्रियाँ हैं ये ।


आप राजसिंहासन से रहित हैं

ठीक ही है यह भी तो

क्योंकि आपकी सेवा जो करते

दुत्कार देते राजा के पदों को ।


जब आप कहते हैं ये कि

मार्ग स्पष्ट नही है आपका

और आप आचरण नही करते

प्रायः लोकिक पुरुषों के जैसा ।


यह बात भी निस्संदेह सत्य है

क्योंकि सेवन करते जो ऋषि मुनि

पादपद्यों का मकरंदरस आपके 

अस्पष्ट रहता उनका मार्ग भी ।


विषयों में उलझे नरपशु

लगा सकते इसका अनुमान भी नहीं

और प्रायः अलोकिक होतीं हैं

चेष्ठाऐँ आपके भक्तों की ।


तो आपकी चेष्ठाऐँ अलोक़िक हों

कहना ही क्या है इसमें तो

दरिद्रता नही कह सकते उसे

आपकी अकिंचनता है जो ।


उसका अर्थ यह कि आपसे 

अतिरिक्त कोई वस्तु ना होती

जिसके कारण आप ही सब कुछ हैं

पास रखने के लिए कुछ भी नही ।


परन्तु जिन ब्रह्मा आदि देवताओं को

भेटें देकर सब पूजा करते

वे सभी देवता आपकी

पूजा करते हैं बड़े प्रेम से ।


सर्वथा उचित है कहना आपका

कि धनाढ्य मेरा भजन नही करते

उसके अभिमान में मरे वो जा रहे

लगे रहते इंद्रियों को तृप्त करने में ।


ना तो वे यह जानते

कि आप मृत्यु के रूप में

उनके सिर पर सवार हैं

सर्वदा ही काल रूप में ।


जितने वांछनीय पदार्थ जगत में

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष

सबके रूप में आप ही प्रकट हों

आप सभी साधनों के फल स्वरूप ।


विचारशील पुरुष जो होते

प्राप्त करने के लिए आपको

सब कुछ छोड़ देते हैं

इससे ही आप मिलते हैं उनको ।


भगवन, उन्हीं विवेकी पुरुषों का

सम्बंध आपके साथ होना चाहिए

वशीभूत जो सुख या दुःख के

स्त्री पुरुष के सम्बंध से होने वाले ।


वो कदापि आपका सम्बंध

प्राप्त करने योग्य नही हैं

और ठीक ही कहा आपने कि

भिक्षुओं ने आपकी प्रसंशा की है ।


परन्तु वे भिक्षु कौन हैं?

ऐसे परमानन्द महात्मा वे

अपराधी से अपराधी व्यक्ति को

दण्ड न देने का निश्चय किया जिन्होंने ।


अदूरदर्शिता मेरी नही इसमें

कि मैंने वरण किया आपको

जगत की आत्मा आप हैं

प्रेमियों को आतमदान करते हो ।


जान बूझकर परित्याग किया मैंने

ब्रह्मा, इंद्रादि देवताओं का

क्योंकि काल जो पैदा हो आपसे

अभिलाषाओं पर उनकी पानी फेरता ।


फिर शिशुपाल, दन्वक्त्र आदि

बात ही क्या है उनकी तो

सर्वेश्वर ! तर्क संगत नही थी

आपकी ये भी बात जो ।


कि समुंदर में आप बसे हैं

भयभीत होकर इन राजाओं से

क्योंकि समस्त राजाओं को भगाया

आपने मेरे हरण के समय ।


कमलनयन ! आप कैसे कहते हो

कि जो मेरा अनुसरण करते हैं

उनको कष्ट उठाना पड़ता है

ये सब भी सही नही है ।


अंग, पृथु, भरत,ययाति और गय

प्राचीन काल में बड़े राजा जो

सब कुछ छोड़ आपको पाने की 

अभिलाषा से वन में चले गए वो ।


प्राप्ति मार्ग का अनुसरण करते हुए

क्या वे हैं कष्ट उठा रहे

आप कहें कि किसी और को वरण करो

इस बारे में ये कहना मुझे ।


भगवान आप समस्त गुणों के

एकमात्र साक्ष्य हैं और आपके

चरणकमलों की सुगंध का

सदा बखान करें संत बड़े बड़े ।


उसका आश्रय लेने मात्र से

मुक्त हों संसार के पाप ताप से

और सदा निवास करती हैं

लक्ष्मी जी भी इन्हीं में।


फिर स्वार्थ, परमार्थ को अपने

भली भाँति समझे स्त्री जो

इन चरणकमलों की सुगंध सूंघने को

एक बार भी मिल गयी हो जिसको ।


तिरस्कार करके वो आपका फिर

क्यों वरण करे ऐसे लोगों को

मृत्यु, रोग, जन्म, ज़रा आदि

इन सभी भयों से युक्त जो ।


आप सारे जगत के स्वामी

समस्त आशाओं को पूर्ण करें

अपने अनुरूप ही समझकर

वरण किया है आपको मैंने ।


एकमात्र यही अभिलाषा मेरी

कि शरण में रहूँ मैं आपकी

मनुष्य का यह शरीर जो

जीवित होने पर भी मुर्दा ही ।


ऊपर से चमड़ी, नख, केशों से ढका

भीतर मांस, खून, मल, मूत्र भरे

वही मूढ़ स्त्री पति समझकर

इस शरीर का सेवन करे ।


जिसे कभी आपके चरणविंद की

सुगंध नही मिली सूंघने को

परन्तु अर्धागिनी मैं तो आपकी

भरपूर मिली है ये मुझको तो ।


कमलनयन ! आप आत्माराम हैं

सुन्दरता और गुणों पर मेरे

दृष्टि नही जाती आपकी अतः

स्वाभिक है आप उदासीन रहें ।


दृढ़ है अनुराग ये मेरा

फिर भी आपके चरणकमलों में

इन्हीं चरणकमलों की सेवा करूँ

मेरी अभिलाषा भी बस ये ।


भगवान कृष्ण ने कहा, ‘ साध्वी !

यह सब सुनने के लिए ही तो

तुम्हारी बँचना की, तुम्हें छकाया

हंसी हंसी में ये सब कहा तुमको ।


मेरे वचनों की जो व्याख्या की तुमने

वह अक्षरशः सत्य है

तुम मेरी अनन्य प्रेयसी हो

मेरे प्रति तुम्हारा अनन्य प्रेम है ।


तुम्हारे पतिप्रेम औत पातिव्रत्य का

भलीभाँति देख लिया है मैंने

तनिक भी इधर उधर ना हुई तुम

मेरी उल्टी सीधी बातों से ।


प्रिय, मोक्ष का स्वामी मैं

भवसागर से पार करूँ लोगों को

विषयसुख की अभिलाषा करते

मुझे प्राप्त करके भी जो ।


वो बड़े मंदभागी हैं क्योंकि

विषयभोग तो नरक में भी मिलते

सूकर-कूकर की योनि में

भी उन्हें प्राप्त कर सकते ।


तुमने जो मेरी सेवा की है

संसार बन्धन से मुक्त करे ये

और ऐसी सेवा मेरी

दुष्ट लोग नही कर सकते ।


तुम्हारे समान प्रेम करने वाली मुझे

कोई और भार्या दिखाई ना देती

तुम्हारे भाई को जब विरूप किया मैंने

तुमने तब भी कोई बात ना कही ।


अनिरुद्ध के विवाह में बलराम ने

रुक्मी को तो मार ही डाला

किंतु मुझसे वियोग ना हो जाए इसलिए 

यह दुःख तुमने चुपचाप सह लिया ।


तुम्हारे इस गुण के कारण

मैं तुम्हारे वश में हो गया 

और अभिनंदन करता हूँ

तुम्हारे सर्वोच्च इस प्रेम भाव का ।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

आत्माराम हैं भगवान कृष्ण तो

विनोद भरे वार्तालाप भी करें

रुक्मिणी से विहार भी करें वो ।


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