श्रीमद्भागवत -२१०;ब्रह्मा जी का मोह और उसका नाश
श्रीमद्भागवत -२१०;ब्रह्मा जी का मोह और उसका नाश
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
तुम बड़े ही भाग्यवान हो
जो बार बार मिलती है तुम्हे
भगवान् की लीला सुनने को।
वाणी, कान, ह्रदय रसिक संतों के
होते भगवान् की लीला के
गान, श्रवण और चिंतन के लिए
श्रवण करो ये एकाग्र चित से।
ग्वालों को तब था निकाला
अधासुर के मुँह से भगवान् ने
ले आये यमुना के पुलिन पर
बैठ वहां, भोजन करने लगे।
बछड़ों ने भी पानी पिया और
हरी हरी घास चरने लगे
भगवान् कृष्ण बीच में थे और
ग्वालवाल उन्हें घेरे बैठे थे।
आकाश में स्वर्ग के देवता
आश्चर्चकित हो रहे ये लीला देखकर
ग्वालवाल भी इस लीला में
तन्मय हो रहे वहां पर।
उसी समय बछड़े जो उनके
घने जंगल में दूर निकल गए
ग्वालवाल भयभीत हुए सब
भगवन कहें, लेकर आता उन्हें।
ढूंढ़ने चल दिए कृष्ण बछड़ों को
ब्रह्मा जी आकाश में उपस्थित थे
अधासुर का मोक्ष देखकर
बड़ा ही आश्चर्य हुआ था उन्हें।
सोचा मनुष्य बालक बने भगवान् की
लीला देखनी चाहिए और कोई
ऐसा सोचकर पहले बछड़ों को
फिर ग्वालवालों को सभी।
अन्यंत्र कहीं लाकर रख दिया
खुद भी फिर अंतर्धान हो गए
बछड़े न मिलने पर जब
कृष्ण आये पुलिन पर यमुना के।
चारों और ढूँढा उन्होंने पर
ग्वालवाल, बछड़े न मिले उन्हें
तब वे ये जान गए कि
ब्रह्मा जी ने सब किया ये।
वे तो सारे विश्व के ज्ञाता
आनन्दित करने के लिए उन्होंने
बछड़े, ग्वालों की माताओं को और
ब्रह्मा जी को, जो माया रच रहे।
अपने आपको बछड़े, ग्वालवाल
दोनों रूप में बनाया था उन्होंने
उतनी ही संख्या और रूपों में
वे वहां पर प्रकट हो गए।
स्वयं ही बछड़े, स्वयं ही ग्वालवाल
और अपने आत्मस्वरूप बछड़ों को
अपने आत्मस्वरूप ग्वालवालों के साथ में
घेरकर अपने आप को।
अनेकों प्रकार के खेल खेलने लगे
ब्रज में प्रवेश फिर किया उन्होंने
बछड़े और ग्वालों के रूप में
चले गए भिन्न भिन्न घरों में।
इस प्रकार प्रतिदिन संध्या समय
उनके संग वन से लौट थे आते
बाललीलाओं से अपनी सभी
माताओं को आनंदित करते।
माताएं बड़े स्नेह प्यार से
उन कृष्ण का पालन करतीं
गायें भी अपने बछड़ों को
चाटतीं और उन्हें दूध पिलातीं।
मातृभाव गायों ग्वालिनों का
पहले जैसे ही विशुद्ध था
बालकों के प्रति व्रजवासिओं का स्नेह
दिन प्रतिदिन था बढ़ता जाता।
जैसा असीम अपूर्व प्रेम उनका
श्री कृष्ण से पहले से ही था
अपने इन बालकों के प्रति भी
वैसा ही स्नेह होने लगा।
एक वर्ष तक ऐसे ही कृष्ण
क्रीड़ा करते रहे व्रज में
पांच छ रातें जब शेष थीं
एक वर्ष पूरा होने में।
तब एक दिन कृष्ण, बलराम जी
बछड़े चराते हुए गए थे वन में
गोयें गोवर्धन की चोटी पर
घास चर रहीं थी उसी समय।
वहां से गोओं ने देखा कि
दूर घास चर रहे बछड़े उनके
उमड़ आया वात्सल्य स्नेह उनका
दौड़ीं उस और वे बड़े वेग से।
एक एक अंग अपने बछड़ों का
चाटने लगीं थी तब वो गौएं
गोपों ने रोकने का प्रयास किया
परन्तु वे सफल न हो सके।
उनके बालक भी बछड़ों के साथ थे
गोप सब आलिंगन करें उनका
बहुत ही आनंदित हुए सब
और बलराम जी ने जब ये देखा।
कि गोओं और ग्वालवालों की
संतानों पर उत्कंठा बढ़ती जा रही
वो विचार में पड गए क्योंकि
कारण इसका उनको था मालूम नहीं।
सोचें ये कौन सी माया है
देवता, मनुष्य अथवा असुरों की
परन्तु ऐसा कैसे संभव है
फिर समझ आया, माया ये प्रभु की।
क्योंकि किसी और की माया में
ऐसा सामर्थ्य ही नहीं है
कि मुझे भी मोहित कर दे
माया ये तो कृष्ण की ही है।
ज्ञान दृष्टि से जब देखा उन्होंने
बछड़ों और ग्वालवालों को अपने
श्री कृष्ण ही श्री कृष्ण हैं
श्री कृष्ण को तब कहा उन्होंने।
कि ये सब क्या माया है
तब भगवान् ने भी उनको
ब्रह्मा जी की करतूत बता दी
और अपनी सारी लीला जो।
तब तक ब्रह्मा जी ब्रह्मलोक से
व्रज में वापिस लौट आये थे
केवल एक त्रुटि समय व्यतीत हुआ था
अब तक उनके कालमान में।
देखा उन्होंने श्री कृष्ण वहां
ग्वालवाल , बछड़ों के साथ में
एक साल से पहले की भांति
व्रज में हैं क्रीड़ा कर रहे।
सोचने लगे, ग्वालों, बछड़ों को तो
माया से अचेत कर रखा मैंने
तब उतने ही ग्वालवाल और
बछड़े आ गए हैं कहाँ से।
दोनों ही स्थानों पर उन्होंने
बछड़ों, ग्वालवालों को देखा
तब अपनी ज्ञानदृष्टि से
उन्होंने था ये जानना चाहा।
कि इन दोनों में से पहले के
कौन हैं और कौन हैं बाद के
कौन से इनमें हैं बनावटी
और सच्चे इनमें से कौन से।
वे कुछ समझ न सके
कृष्ण को मोहित करने चले थे
किन्तु ये तो बड़ी दूर की बात है
अपनी माया से ही मोहित हो गए वे ।
ब्रह्मा जी विचार कर ही रहे थे कि
ग्वाल, बछड़े उसी क्षण सभी
दिखाई पड़े उन्हें कृष्ण रूप में
चतुर्भुज, पीतांबरधारी।
उनके जैसे दूसरे ब्रह्मा से लेकर
तृण तक सभी चराचर जीव जो
उन सब रूपों की उपासना कर रहे
होकर वहां पर मूर्तिमान वो।
भूत, भविष्य तथा वर्तमान काल के द्वारा
सीमित नहीं हैं भगवान् वे
चकित रह गए ब्रह्मा जी
अत्यंत आस्चर्यजनक दृश्य देख ये।
भगवान् के तेज से निश्चेष्ट हो
ब्रह्मा जी तब थे मौन हो गए
भगवान् के दिव्यस्वरूप को ब्रह्मा जी
तनिक भी समझ न सके।
आँखें तब मुंद गयीं उनकी
और श्री कृष्ण ने जब देखा
ब्रह्मा जी के मोह और असमर्थता को तो
अपनी माया का पर्दा उठा दिया।
ब्रह्मज्ञान हुआ ब्रह्मा जी को
उन्होंने अपने नेत्र खोल दिए
नेत्र खोलते ही दिशाएं और
वृन्दावन दिखाई पड़ा उन्हें।
वृन्दावन सभी के लिए है प्यारा
फूल, फल से लदे वृक्ष लगे उसमें
कृष्ण की लीलाभूमि होने से
क्रोध, तृष्णा, द्वेष प्रवेश न कर सकें।
मनुष्य, पशु मिलकर रहते यहाँ
उसके बाद ब्रह्मा जी ने देखा
अद्वित्य परब्रह्म, गोपवंश के
बालक का था नाट्य कर रहा।
एक होने पर भी अनेक सखा उसके
अनन्त होने पर भी इधर उधर घूम रहा
ज्ञान अगाध होने पर भी उसका
ग्वालवाल, बछड़ों को ढूंढ रहा।
भगवान् को देखते ही ब्रह्मा जी
अपने वाहन से कूद पड़े
चरणकमलों में नमस्कार किया
आंसुओं की धारासे नहला दिया उन्हें।
बड़ी देर तक चरणों में ही पड़े रहे
धीरे धीरे फिर उठ खड़े हुए
नेत्रों से आंसुओं को पोंछा
भगवान् की स्तुति करने लगे।