अध्याय : १ अर्जुनविषादयोग
अध्याय : १ अर्जुनविषादयोग
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
युद्धभूमि में गूँज रही थी, रणभेरी चहुँओर ।
अंधे राजा के सम्मुख थे, संजय विकल विभोर ।
कुरुक्षेत्र में दिव्यदृष्टि से, झाँक-झाँक तत्काल ।
सुना रहे राजा को संजय, आँखों देखा हाल ।।
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
बोल उठे धृतराष्ट्र सहज ही, संजय से व्याकुल होकर ।
चिंता, उत्सुकता, संशय के, वशीभूत संयम खोकर ।
"हे संजय ! कुरुक्षेत्र गये सब, युद्ध चाहने वालों ने ।
क्या-क्या किया पाण्डुपुत्रों ने, और हमारे लालों ने ।।" ०१।।
संजय बोले - "दुर्योधन ने, पाण्डव सेना को देखा ।
व्यूहाकृति, मजबूत, व्यवस्थित, मानव सेना को देखा ।
जाकर शीघ्र द्रोण के सम्मुख, मन भावों को खोल उठे ।
युद्धकुशल, आचार्य श्रेष्ठ से, दुर्योधन यों बोल उठे ।।०२।।
"हे आचार्य ! पाण्डुपुत्र जो, सेना लेकर आते हैं ।
शिष्य आपके द्रुपदपुत्र हैं, धृष्टद्युम्न कहलाते हैं ।
उनके द्वारा खड़ी की गई, व्यूहाकृत उस सेना को ।
जरा देखिए गुरुवर ऐसी, अति विस्तृत उस सेना को ।।"०३।।
भरे हुए हैं वीर अनेकों, श्रेष्ठ धनुर्धर सेना में ।
शूरवीर अर्जुन के जैसे, भीम बराबर सेना में ।
सात्यकि और विराट सरीखे, द्रुपद सरीखे महारथी ।
धृष्टकेतु, पुरुजित से योद्धा, चेकितान से धर्मपथी ।।०४-०५।।
काशिराज बलवान यहाँ हैं, कुन्तिभोज आलोकित हैं ।
युधामन्यु, युतमौजा शोभित, शैव्य श्रेष्ठ भी शोभित हैं ।
युवा सुभद्रासुत की ताकत, कम बतलाना ठीक नहीं ।
और द्रोपदी पुत्रों को भी, सौम्य जताना ठीक नहीं ।।०५-०६।।
ब्राह्मणश्रेष्ठ ! हमारी सेना, पर भी दृष्टि डालिये तो ।
कौन प्रमुख योद्धा हैं इसमें, उनको जरा जानिये तो ।
वह पाण्डव सेना का बल था, कौरव बल दिखलाता हूँ ।
जो-जो सेनापति सेना के, उनका नाम बताता हूँ ।।०७।।
भीष्म पितामह और आप गुरु, पाण्डव दल पर भारी हैं ।
युद्धविजेता की उपमा के, कृपाचार्य अधिकारी हैं ।
कर्ण, विकर्ण सरीखे योद्धा, अश्वत्थामा हिम्मत हैं ।
सोमदत्त सुत भूरिश्रवा भी, इस सेना की ताकत हैं ।।०८।।
गुरुवर! देखो, हैं असंख्य, जो वीर हमारे साथ खड़े ।
अस्त्र-शस्त्र से सभी सुसज्जित, युद्धकुशल, बांके, तगड़े ।
यदि मैं कह दूँ तो जीवन से, मोह त्याग देते हैं सब ।
दुश्मन दल के हँसते-हँसते, प्राण छीन लेते हैं सब ।।०९।।
भीष्म पितामह के हाथों से, कौरव सेना रक्षित है ।
युद्धकुशल वीरों से शोभित, हर प्रकार से अविजित है ।
वहीं भीम के हाथों रक्षित, उस सेना में भी दम है ।
युद्ध जीतने में वह सेना, अति प्रवीण है, सक्षम है ।।१०।।
सभी मोर्चों पर आ सारे, डट जायें फिर ठानें हम ।
प्रथम चाल इस महासमर की, बस इतनी सी जानें हम।
आज युद्ध की नीति यही है, यही समय का कहना है ।
भीष्म पितामह की रक्षा में, सबको तत्पर रहना है ।।"११।।
समय आ चुका है अब रण में, दो-दो हाथ दिखाने का ।
एक महाभारत के स्वर्णिम, सम्वादों को गाने का ।
जैसे कोई सिंह शत्रु को, देख गर्जना करता है ।
दूर-दूर तक भय, विस्मय के, भाव अचानक भरता है ।।१२।।
वैसे ही वह कौरव दल का, वृद्ध शेर गुर्राया है ।
भीष्म पितामह ने यों ऊँचे स्वर में शंख बजाया है ।
जिसको सुनकर दुर्योधन के, मन में हर्ष अपार उठा ।
फड़क उड़ी मजबूत भुजाएँ, हृदय सिंधु में ज्वार उठा ।।१२।।
दशों दिशाएँ गूँज उठीं फिर, ढोल, मृदंग, नगाड़ों से ।
शंख बजे, नरसिंघे गूँजे, गूँजा गगन दहाड़ों से ।
एक साथ ध्वनि ऐसी गूँजी, उठा भयंकर कोलाहल ।
धरा, गगन, पाताल लोक तक, गूँज उठी है सृष्टि सकल ।।१३।।
श्रेष्ठ श्वेत अश्वों से सज्जित, रथ पर श्री मधुसूदन हैं ।
उनके साथ धनुर्धर अर्जुन, शक्तिपुंज हैं, सोहन हैं।
दोनों ही ने शंख बजाकर, एक अलौकिक नाद किया ।
जैसे धर्म, न्याय, सुचिता का, सुंदरतम अनुवाद किया ।।१४।।
पाञ्चजन्य को बजा कृष्ण ने, वातावरण पुनीत किया ।
अर्जुन ने भी देवदत्त का, पावन सा संगीत दिया ।
और भयानक कर्मों वाले, भीमसेन ने तान भरी ।
पौण्ड्र शंख को बजा सहज ही, महायुद्ध में जान भरी ।।१५।।
कुंतीपुत्र युधिष्ठिर ने यदि, अनंतविजय का नाद किया ।
तो सुघोष को बजा नकुल ने, उत्साहित आह्लाद किया ।
मणिपुष्पक वह शंख जिसे, सहदेव बजाते दिखते हैं ।
समरक्षेत्र के कर्मयुद्ध में, अलख जगाते दिखते हैं ।।१६।।
श्रेष्ठ धनुर्धर काशिराज भी, और शिखंडी महारथी ।
धृष्टद्युम्न, सात्यिक, विराट भी, द्रुपद सरीखे सत्यपथी ।
सभी द्रोपदी पुत्र, युवा अभिमन्यु आदि रणधीरों ने ।
अपने अपने शंख बजाये, वहाँ उपस्थित वीरों ने ।।१७-१८।।
ऐसी उठी भयंकर ध्वनियाँ, धरती से अम्बर गूँजे ।
लाखों पर्वत टूटे जैसे, ज्यों असंख्य सागर गूँजे ।
उस ध्वनि ने कौरव खेमे में, सबके हृदय विदीर्ण किये ।
साहस डोला, हिम्मत टूटी, ऐसे स्वर उत्कीर्ण किये ।।१९।।
हे राजन ! कपिध्वज अर्जुन ने, कौरव कुल पर ध्यान दिया ।
धनुष उठाकर मन ही मन में, लक्ष्य हेतु संधान किया ।
और कृष्ण से बोले अर्जुन, "हे अच्युत ! अब वेग भरें ।
रथ दोनों सेनाओं के ही, ठीक मध्य मे खड़ा करें ।।२०-२१।।
देख नहीं लेता जब तक मैं, सभी विपक्षी वीरों को ।
युद्ध क्षेत्र में डटे, युद्ध के अभिलाषी रणधीरों को ।
और न तय कर लूँ मैं किनसे, लड़ना योग्य, यथोचित है ।
तब तक रथ को वहीं रोकिए, यहीं ठीक, समयोचित है ।।२२।।
दुर्योधन दुर्बुद्धि हेतु जो, राजा लड़ने आये हैं ।
युद्धभूमि में हो अधीर जो, युद्ध हेतु अकुलाए हैं ।
युद्ध रूप व्यापार हेतु जिन-जिन से मुझको लड़ना है ।
उन सारे राजाओं का ही, मुझे निरीक्षण करना है ।।"२३।।
संजय बोले- "वासुदेव ने, अर्जुन के अनुसार किया ।
भीष्म-द्रोण के सम्मुख लाकर, रथ को अपने रोक दिया ।
मध्य खड़ा है अर्जुन का रथ, दोनों ही सेनाओं के ।
सम्मुख दूर-दूर से आये, युध्द हेतु राजाओं के ।।२४-२५।।
जग संचालक, सृष्टि नियंता, जगती के पालन
कर्ता ।
शोक विनाशक, कष्ट निवारक, बोल उठे यों दुखहर्ता ।
"पार्थ ! युद्ध के लिए डटे हैं, जो कौरव उनको देखो ।
मानवता के जो बैरी हैं, एक दृष्टि सबको देखो ।।"२५।।
पृथापुत्र अर्जुन ने सहसा, देखा उन सेनाओं को ।
चाचा-ताऊ, पुत्र, भाइयों, दादा, परदादाओं को ।
विव्हल अर्जुन देख चकित हैं, युद्धभूमि के चित्रों को ।
गुरुओं, मामाओं, पौत्रों को, मित्रों, ससुरों, सुहृदयों को ।।२६-२७।।
देख उपस्थित बन्धुजनों को, अर्जुन भावविभोर हुए ।
करुणा ने उस विकट समय में, सहज हृदय के छोर छुए ।
जहाँ काल विकराल खड़ा है, सहज काल का मुख खोले ।
वहीं शोक संयुक्त भाव से, कुंती-सुत सहसा बोले ।।२७-२८।।
"हे कृष्ण ! युद्ध हित युद्ध क्षेत्र में, डटे हुए इन स्वजनों को ।
देख शिथिल हो रहे अंग हैं, सम्मुख मेरे अपनों को ।
सूख रहा है मुख ये मेरा, इस शरीर मे कम्पन है ।
रोम-रोम से अनुभव होता, रोमांचित सा यह तन है ।।२८-२९।।
हाथों से गाण्डीव फिसलता, और शिथिलता आती है ।
जाने क्या है जो यह मेरी, त्वचा जली सी जाती है ।
भ्रमित-भ्रमित सा मन है मेरा, है विवेक का अर्थ नहीं ।
अतः खड़े रहने में भी मैं, जैसे आज समर्थ नहीं ।।३०।।
हे केशव ! लक्षण भी सारे, यों हो रहे प्रतीत मुझे ।
किसी दशा में देखूँ इनको, दिखते हैं विपरीत मुझे ।
आज युध्द कर किसी भाँति भी, पाऊँ पुण्य प्रयाण नहीं ।
स्वजनों की हत्या में मुझको, दिखता है कल्याण नहीं ।।३१।।
हे कृष्ण ! विजय की चाह न मुझको, नहीं राज्य की चाह मुझे ।
नहीं चाहिए मर्त्य लोक में, क्षणिक सुखों की राह मुझे ।
हमको ऐसे राज्य हेतु भी, कहिए भला प्रयोजन क्या ?
हे गोविंद ! सभी लाभों से, जीवन हेतु प्रलोभन क्या ??३२।।
राज्य, भोग, सुख की अभिलाषा, जिन स्वजनों के लिए मुझे ।
हैं अभीष्ठ ये सारी चीजें, जिन अपनों के लिए मुझे ।
धन, जीवन की आस त्याग वे, समरांगण में आये हैं ।
डटे हुए हैं मेरे सम्मुख, युद्ध हेतु अकुलाए हैं ।।३३।।
गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के, उसी भाँति हैं पौत्र, ससुर ।
दादे-मामे और अन्य भी, सम्बन्धी हैं युद्धातुर ।
हे मधुसूदन ! उनके हाथों, मारे जाने पर भी क्या ?
तीन लोक का राज्य सहज ही, खोने-पाने पर भी क्या ??३४।।
तीनों लोक निछावर इनपर, क्या पृथ्वी की बात करें ।
इन हाथों में शक्ति नहीं है, जो इनपर आघात करें ।
कुछ भी हो मैं शस्त्र उठाकर, इनको मार न पाऊँगा ।
सब कुछ खोकर, इनके हाथों, भले सहज मर जाऊँगा ।।३५।।
मुझे बतायें आज जनार्दन !, क्या प्रसन्नता पायेंगे ।
वध करके धृतराष्ट्र सुतों का, आखिर क्या पा जायेंगे ।
ये आततायी हैं इनको, मारा भी यदि जायेगा ।
तो भी पाप लगेगा हमको, मन को सदा सतायेगा ।।३६।।
हे माधव ! इस हेतु स्वयं को, योग्य नहीं मैं पाता हूँ ।
स्वजन, बांधवों की हत्या से, इसीलिए घबराता हूँ ।
कटे हुए पौधे में जैसे, सुख का फूल न खिलता है ।
वैसे ही अपने कुटुंब को, मार कहाँ सुख मिलता है ।।३७।।
भ्रष्टचित्त ये लोग लोभ से, यद्यपि सत्य न जान रहे ।
कुल विनाश से प्राप्त दोष को, आज नहीं पहचान रहे ।
मित्रों से विरोध करने में, पाप नहीं ये देख रहे ।
कहीं देखना इन्हें चाहिए, किन्तु कहीं ये देख रहे ।।३८।।
सुनें जनार्दन ! तो भी हम ये, सोचें और विचार करें ।
कुल विनाश से उठे दोष से, परिचित हम, यह ध्यान धरें ।
पाप, पाप है और पाप का, बहिष्कार न्यायोचित है ।
इस पाप कर्म से बचने का, चिंतन भी समयोचित है ।।३९।।
कुल विनाश से सनातनी कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं ।
और धर्म के मिटने से कुल-कर्म भ्रष्ट हो जाते हैं ।
हर युग का संदेश यहीं है, यहीं समय दोहराता है ।
धर्म नष्ट होने पर कुल में, और पाप बढ़ जाता है ।।४०।।
हे कृष्ण ! पाप अति बढ़ने से, ऐसी स्थितियाँ आती हैं ।
मर्यादा को त्याग नारियाँ, अति दूषित हो जाती हैं ।
हे वार्ष्णेय ! जब-जब भी स्त्री, यों दूषित हो जाती है ।
तब-तब नियति वर्णसंकर का, उद्भव लेकर आती है ।।४१।।
वर्णसंकर कुलघातियों तथा, कुल को नरक दिलाते हैं ।
जो लुप्त पिण्ड, जल क्रिया कभी, प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।
अर्थात श्राद्ध, तर्पण से वंचित, जो पुरखे रह जाते हैं ।
इनके वे सभी पितर भी तो, सहज अधोगति पाते हैं ।।४२।।
इन सभी वर्णसंकरकारक, दोषों ही से कर्म नहीं ।
सब कुलघातियों, पातकों के, बचते कुल के धर्म नहीं ।
नष्ट सनातन कुल-जाति-धर्म, हो जाते हैं निश्चित है ।
जिस भाँति सूख जाते पौधे, जिनकी जड़ ही विच्छित है ।।४३।।
अहे जनार्दन ! इस पृथ्वी पर, हम यह सुनते आये हैं ।
काल चक्र ने भी प्रसंग ये, कई बार दोहराये हैं ।
जिनका कुल-धर्म नष्ट होता है, उनको दुखद समास मिला ।
अनिश्चितकाल के लिए उनको, नर्क लोक में वास मिला ।।४४।।
हा ! शोक ! बुद्धिधारी हम हैं, अति ज्ञानी कहलाये हैं ।
फिर भी इस महापाप के हित, तत्पर हैं, अकुलाये हैं ।
जो राज्य और सुख लोभ हेतु, अति व्याकुल हैं, उन्मत हैं ।
इस युद्ध भूमि में स्वजनों का, वध करने को उद्धत हैं ।।४५।।
हो शस्त्ररहित, उस वैरी दल का, यदि न सामना करने पर ।
शस्त्र लिए धृतराष्ट्र सुतों के, हाथों रण में मरने पर ।
इस जीवन का लगता मुझको, भावी सुखद प्रयाण मुझे ।
उनका मुझे मारने में भी, दिखता है कल्याण मुझे ।।४६।।"
संजय बोले - " रण में ऐसा, कहकर विह्वल अर्जुन ने ।
शोक भरे मन से व्याकुल हो, सहसा निश्छल अर्जुन ने ।
बाण सहित अपने हाथों से, निज धन्वा भी त्याग दिया ।
अपने रथ के पश्च भाग में, बैठ सहज निःस्वास किया ।।४७।।"
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
युद्ध भूमि में जब स्वजनों को, देखा हुए अधीर ।
विह्वल होकर मधुसूदन से, बोले अर्जुन वीर ।
कृष्ण और अर्जुन दोनों के, बीच हुए सम्वाद ।
प्रथम भाग में पूर्ण हुए अब, आगे इसके बाद ।।
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
------राहुल द्विवेदी 'स्मित'