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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

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4.8  

राहुल द्विवेदी 'स्मित'

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नेत्र यदि आपके यों लजाते नहीं

नेत्र यदि आपके यों लजाते नहीं

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आप यदि इस तरह मुस्कुराते नहीं ।

स्वप्न सजते नहीं, खिलखिलाते नहीं ।।


नेत्र यदि आपके यों लजाते नहीं ।

प्रेम सागर में हम भी नहाते नहीं ।।


स्वेत चादर में लिपटी हुई भोर में ;

दृश्य आपस में आँखें मिलाते नहीं ।


प्रेम पावन कलस है जगत यज्ञ का ;

चोट देकर इसे मुस्कुराते नहीं ।


गुनगुनी रेत भी जल लगेगी तुम्हें ;

जब तलक रेत के पास जाते नहीं ।


रोक चातक भटकता रहा धुंध में ;

भूल बैठा कि बादल जलाते नहीं ।


नित्य अनुभव के जल से जो सींचे गए ;

पुष्प वे फिर कभी सूख पाते नहीं ।


दीप सद्भावना के जलाते हैं हम ;

द्वेष की आँधियाँ हम चलाते नहीं ।


सूर्य हैं सूर्य सा नित चमकते हैं हम ;

जुगनुओं की तरह झिलमिलाते नहीं ।


पाँव कीचड़ में जो पड़ चुके हों, कभी ;

फिर वे कीचड़ में जाते लजाते नहीं ।



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