नेत्र यदि आपके यों लजाते नहीं
नेत्र यदि आपके यों लजाते नहीं
आप यदि इस तरह मुस्कुराते नहीं ।
स्वप्न सजते नहीं, खिलखिलाते नहीं ।।
नेत्र यदि आपके यों लजाते नहीं ।
प्रेम सागर में हम भी नहाते नहीं ।।
स्वेत चादर में लिपटी हुई भोर में ;
दृश्य आपस में आँखें मिलाते नहीं ।
प्रेम पावन कलस है जगत यज्ञ का ;
चोट देकर इसे मुस्कुराते नहीं ।
गुनगुनी रेत भी जल लगेगी तुम्हें ;
जब तलक रेत के पास जाते नहीं ।
रोक चातक भटकता रहा धुंध में ;
भूल बैठा कि बादल जलाते नहीं ।
नित्य अनुभव के जल से जो सींचे गए ;
पुष्प वे फिर कभी सूख पाते नहीं ।
दीप सद्भावना के जलाते हैं हम ;
द्वेष की आँधियाँ हम चलाते नहीं ।
सूर्य हैं सूर्य सा नित चमकते हैं हम ;
जुगनुओं की तरह झिलमिलाते नहीं ।
पाँव कीचड़ में जो पड़ चुके हों, कभी ;
फिर वे कीचड़ में जाते लजाते नहीं ।