बदल गये हैं खेत
बदल गये हैं खेत
दौड़ रहे हैं आँख मूँद कर सपनों के पीछे
गिद्ध, छडूंदर, घोड़ा, हाथी, चमगादड़, तीतर।।
सरस्वती लक्ष्मी के हाथों की है कठपुतली।
कालिख भी मँहगे चश्मे से दिखती है उजली।
स्वाभिमान की अर्थी ढोती रोज सवेरे साँझ
मैना आती जाती है अब कौवा जी के घर।।
सत्य झूठ की बैसाखी पर लँगड़ाता चलता।
और खोखले आदर्शों के टुकड़ों पर पलता।
धर्म, न्याय, सन्मार्ग, नीति सब त्याग चुके हैं प्राण
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दुराचार को नहीं रहा अब हाकिम जी का डर।।
हंस भूल बैठे हैं अपनी क्षमताएँ सारी।
स्वयं अपाहिज प्रतिभा ओढ़े बैठी मक्कारी।
संत बने अब घूम रहे हैं बगुला और सियार
खोल चुके हैं जगह-जगह पर लालच के दफ्तर।।
चातक नजरें खोज रही हैं एक बूँद पानी।
बादल सत्तासीन हुए पर करते मनमानी।
फसलों से अनुबंध तोड़कर बदल गये हैं खेत
किन्तु लबालब भरा हुआ है यह खारा सागर।।