'मां' का मर्म
'मां' का मर्म
औलाद मेरी मुझ से बेखबर हो गई,
मां मैं उनकी स्टोर रूम का सामान हो गई।
भरा पूरा परिवार किंतु मैं लाचार ,
सहारा थी जिनका आज उनके सहारे का मोहताज हो गई।
जख्म पर जिनके मरहम लगाया, अकेलेपन का दर्द दे दिया
हाथों से खिलाया, उनके लिए मेरी सांसे बोझिल हो गई।
परिवार में व्यस्त, मस्त मां का प्यार भूल गए,
पोते के मुख से "मेरी मांं "पर निबंध सुन आंखें नम हो गई ।
साथी का विछोह क्या कम था संतान ने किनारा कर लिया,
इस लोक से जल्द विदाई हो अंतिम इच्छा यही हो गई।