रात हो चली
रात हो चली
मद्धिम चांदनी में,
तारों ने जाजम बिछाई है,
रात हो चली
गतिशील मानव विराम
की बारी आई है|
मंद बयार ने,
नव पल्लवित कलियों में
हलचल मचाई है,
रात हो चली
तापीय मानव
शीतलता की बारी आई है।
शोर कोलाहल से,
व्यथित प्रकृति में चुप्पी छाई है।
रात हो चली
विनाश को आतुर मानव
पर्यावरण शुद्धि की बारी आई है।
पशु पक्षी मानव,
सब को घर लौटनेे
की जल्दी छाई है।
रात हो चली
दिनचर मानव निशाचर
की बारी आई है।
दिन की उधेड़बुन को,
विश्राम दे चित्त शांत
करने की बारी आई है।
रात हो चली
यथार्थ की कड़वाहट को भूल
स्वप्न देखने की बारी आई है।