प्रांजल सृजन
प्रांजल सृजन
तुम हर्षित मुदित गर्वित विश्व विजेता,
है पौरूष श्रेष्ठ तुममे हो तभी अजेता ।
लेकर मेरा सब श्रम उपार्जित आहार,
किन्तु भूल गये तुम सब वो गर्भ विहार ।
नवमास तुझको रख कोंख में जनी थी मैं,
सुत बना तू मेरा, मात तेरी बनी थी मैं ।
कहते कुल-वाहिनी, सप्त वंश होता प्रसन्न,
करती जब मैं अपनी कोंख से पुत्र उत्पन्न ।
कुल धातिनी, कुल कलकिंनी मैं कहलाती,
किसी कन्या को इस धरती पर मैं लाती ।
अभागी, ज़िन्दा कुल्हड़ में गाडी जाती,
बस यूँ ही अन्धियारे में ही मारी जाती ।
वो मांस लोथड़ा, किसने गाडा जान विधाता,
किस कोंख से जन्मी, कौन जनक कौन दाता ।
धरती की कोंख में पड़ी थी, धरती ही थी माता,
सिवा जनक के कौन, उसको घर में लाता ।
सीता को मिला कुल बनी वो जनक नन्दिनी,
किन्तु यहाँ तो लाखों हैं, कुल्हड़ बन्दिनी ।
कौन मुक्त कराए, कौन उन्हें घर लाए,
करती आस वो, कोई कुल उसे मिल जाए ।
किन्तु भाग्य कब देता है सबका साथ?
नर अधम छोड़ उसे भाग गया कबका ।
कुछ हिंसक पशुओं का बनती ग्रास,
कुल काल का झेलती यह संत्रास ।
यह वह नारी है जिसे पति प्यारा था,
भिड़ी मौत से वो, यमराज भी हारा था ।
वही कुल्हड़ में, वही धरती में समाती है,
कुल को बस नर की ही छवि भाती है।
ली अग्नि परीक्षा, किन्तु छोड़ आए उस वन में,
क्रूर था निर्णय, ली थी वो कुल अंश तन में ।
कुल का नाम नर से जाना जाता है,
क्यों पाण्डु विचित्रवीर्य सुत कहलाता है ।
क्यों कौन्तेय माद्रेय सभी जाने जाते,
पाण्डु पुत्र सभी जग में माने जाते ।
देकर नाम परम्परा प्रथा नियोग का,
छुपा लिया भेद अपने अयोग का ।
किन्तु यह सरासर जग में धोखा था,
माद्री विजयी भीतर से तो खोखा था।
अभिशप्त होने का कैसा स्वांग भरा था,
पुरूष था किन्तु पौरूष नितान्त निरा था।
कैसी विचित्र चाल थी यह काल की,
किस बीज की उत्पत्ति सत्यकाम की।
मौन भला वो यह कैसे बता पाती,
क्या थी! उस नर बीज की जाति।
क्यों नहीं जुड़ा किसी नर का साथ नाम,
सत्यकाम को जाबाला ने दी दिया नाम।
कितना पाश्विक था अश्वमेघ का रण,
तुरकावषेय के अश्व का वह आक्रमण।
सायण महीधर कैसे व्याख्या कर पाए,
ऐतरेय ब्राम्हण में सम्मिलित कर पाए।
था अब तो, मनुज ही नारी के साथ,
किन्तु वृति कैसी? कर दिया अश्व के साथ।
किसको कोसती, किसको देती वो गाली,
ऋत्विक पुरोहित थे, बडे़ ही बलशाली।
वेदों पुराणों की थी जो कभी अधिष्ठात्री,
चाण्डाल समकक्ष बताते उसे धर्मशास्त्री।
धर्म धुरन्धर, ज्ञानी सब उसके प्रकोष्ठ आते,
रूपजीवा, वारांगना, पण्यस्त्री कह उसे बुलाते।
रूपजीविका का सिद्धांत ही क्या होता है?
शत मुद्राएं दे रातभर वह संग सोता है।
किन्तु यह कहो, किसने बनायी वारागंना?
किसने बॉंधे नुपुर, किसने दिया वो आँगना?
वज्र प्रहार किया उसके ललाट पर किसने?
शक्तिमान शिकंजे में वो भाग्य कसा किसने?
सौंप ध्रुव देवी आतंकी शकराज को,
रामगुप्त हो गया निर्भय स्वराज को।
मैं सर्वथा, घृणित, त्याज्य रही किन्तु,
'दशकुमारचरित' की रही केन्द्र बिन्दु।
प्राणतन्तु अश्वघोष 'प्रांजल' में तना है,
अजन्ता, एलोरा में नग्न रूप बना है।
हुआ ना इन्द्र शापित, ना परगामी कहलाया,
विडम्बना कठोर, अहिल्या को पत्थर बनाया।
उल्हास, रूप, रस, रंग, गंध, मकरन्द,
सब थे किन्तु, कम ना हुआ अधम द्वन्द्व।
अविद्या, अंधकार, व्यााध की रही सदा शिकार,
किन्तु सामंत, पुरोहितों ने लिया भीतर आकार।
रमणी, कामिनी, कुट्टनी, चित्रलेखा या आम्रपाली,
पौरूष समक्ष सदैव थी बस, परोसी हुई थाली।
इन्द्रलोक, यमलोक, त्रिलोक, नर रहा हावी,
रही सदा नैपथ्य में शची, मेनका, रम्भा, रावी।
बलात् उठा संयोगिता को, ले भागा पृथ्वीराज,
किन्तु अनीति थी यह, न बना वह नीति राज।
अकबर ने भी चुनवाया नारी को ही दीवार में,
नहीं दे पाया दण्ड, अपने सलीम को प्यार में।
देता भी कैसे? वह तो कुलदीपक जो ठहरा,
किन्तु लगा मुगलों में आलमआरा पर पहरा।
बनी रज़िया एक ही, नारी शासक भारत में,
रास ना आई, नर को यह किसी हालत में।
नारी हो शासक पुरूष मन को यह गिला था,
षड़यन्त्र का तभी तो चला यह सिलसिला था।
फंस गई थी जाल में वो किस्मत मारी थी,
वरना अकेली ही सब पर कितनी भारी थी।
मरवा दिया उसे भी याकूत से प्रेम के कारण,
बैरा मियाँ ने तब किया मुकुट सर पर धारण।
कठोर जीवन, करना पड़ता है कठिन परिश्रम,
किन्तु तब भी नहीं आँका जाता उसका श्रम।
भोर उठे, नहीं विश्राम, श्रम बिन्दु भाल में,
कमतर ही माना, श्रम उसका हर हाल में।
अश्वथामा ढूँढ़ रहा कोख, लिए ब्रह्मास्त्र,
वहीं दुश्शासन खींच रहा नारी वस्त्र।
निर्भया संग बलात्, छोड़ा उसे मरणासन्न,
देखो तनिक नहीं डोला विष्णु का आसन।
डोले भी कैसे? वह भी नर जो ठहरा,
आँखों पर उसके परदा पौरूष का गहरा।
'अम्लाट' ने उतारे पुरूष तलवार के घाट,
बह रहा था लहू, रक्त रंजित दोनों पाट।
सिद्धि अभितृप्ति से घोषणा वज्रया
न की,
टूटा संयम भ्रम, बिछी लाश अभिमान की।
नंगी अंकित की चारुता मेरे अंग-अंग की,
बनाई कोणिक प्रतिमाएं नग्न रंग-रंग की।
आकृति विज्ञानी देखते हैं झांक-झांक कर,
कला पोषक, सम्प्रेषक वो कहलाए,
नग्न रूप सर्व समक्ष मेरा जो लाए।
दालानो, गर्भ गृहों, मंदिरों पर की अंकित,
नारी शुचिता तब रोई थी, हुई कलंकित।
जो गोप्य था, गुह्य कर्म था, सर्व समक्ष था,
नारी को तो वो, नग्न करने में वह दक्ष था।
मीरा का विषपान, पद्मिनी जौहर करती आई,
''कौमुदी महोत्सव'' जननी, मैं ही पन्ना माई।
यतियों का यत्न केन्द्र, देवदासी, योगिनी मैं,
साधुओं को अर्पित, बस बनी मात्र भोगिनी मैं।
कहां जाऊंँ, पथ किधर है, कब छंटेगा अंधेरा,
कब खींचेगा तम से बाहर, हाथ पकड़ मेरा।
मेरी खाल को खींच-खींच लहू पीते जाते,
किंतु हाय उफ्, ना आँसू मेरे बह पाते।
सदैव ढूंढता रहा, रति छवि, हो परगामी,
सर्वथा वही आकृति, ना समझा अज्ञानी।
हो मनुज, मनुज ना तुम बन पाए,
अधम कर्म, पशु समान ही कर पाए।
जाग तू! अभी भी समय तेरे साथ है,
मुक्ति सूत्र अभी भी नारी के हाथ है।
नवमास रह गर्भ में, बाहर जब तू आता,
विडम्बना शेष जीवन गर्भ को बिताता।
कर सकता है विश्राम दृढत्तर वृक्ष छाया,
किन्तु नहीं है विश्राम को मेरी यह काया।
यह बात भी तूने ही मुझ पर लादी थी,
न मैं कुछ बोली, ना मैं तेरी प्रतिवादी थीं।
कितनी जंजीरों में बांध दिया है अब मुझको,
चाहूँ कितना किन्तु छोड़ ना सकती तुझको।
पतिव्रता रही, काम चलता न तेरा एक से,
परितृप्ति साधन, जोडे़ सम्बन्ध अनेक से।
अन्तःपुर मे मैं करती रही अकेली विलाप,
तुम करते रहे रमणी संग ही मधु मिलाप।
उपेक्षिता, निरादरिता, बस मैं हारी थी,
नयनो में नीर, बेबसी और लाचारी थी।
वो नर था, किन्तु गुण नरत्व के न पाए,
पशु समकक्ष रहा, मानवी गुण कैसे लाए।
मानवी गुण यूँ ही तो नहीं मिल पाते,
पुरूषोचित्त श्रम श्रेष्ठ से ही मिल पाते।
स्वामी फिर भी मैंने तो तुझको माना,
दे सर्वस्व मैंने अपना तुझको जाना।
ना कोई छल छद्म, अर्पण मेरा स्वभाव,
किया सर्वस्व अर्पित, किन्तु रहा निष्प्रभाव।
बढ़ा तेरा प्रभा मण्डल, बढ़ा प्रभाव,
मिलता गया मुझे, अभाव पर अभाव।
अम्बर से भी बड़ा था मेरा खालीपन,
शेष था मेरे पास, बस ये खाली तन।
मन पोखर तो सूख चुके थे कब के,
नयन, नीर, नारी, निशक्त थे सब से।
ओ पुरूष निर्भय, मुझको तू छलता रहा,
एक अंग गहने, दूजे अगन धरता रहा।
मैं बिछती गई, होती रही यूं ही बावरी,
लग अंग संग निजमन समझती सांवरी।
किन्तु कलुषित तेरा मन न बांच पाई,
कितने तुम सच्चे हो ये न जाँच पाई।
अन्तःमण्डनं मेरा किया कालीदास ने,
मुदित सब अंग प्रत्यंगों के सुवास मे।
उज्जैन, धार, भोजराज ने नचाया नंगा,
उनके दुष्कर्म, न धो पाएगी कोई गंगा।
कभी जौहर, कभी नर वासना दिखी है,
क्या, भाग्य में बस मेरे अग्नि लिखी है?
था बोध मुझे, किन्तु मूर्ख नाम दिया,
स्वयं ज्ञानी बने, मेरा अपमान किया।
मेरे ज्ञान से बने कितने ग्रन्थ, भोजपत्र,
किन्तु सार्थक, हुई ना कभी स्वतन्त्र।
बीता वह युग, नव कालखण्ड आया,
छँंटा ना तम, बस वही अखण्ड छाया।
किया तुमने स्वतन्त्र कहने को मुझे,
नग्न छोड़ा उन्मुक्त, रहने को मुझे।
पहले भी नग्न, किन्तु झीना आवरण,
उन्मुक्त देह और मेरा रूप निरावण।
अब तो रूपवाहिनी पर कर सवार,
ले गया मुझको सब घर सब द्वार।
अतिथि-शयन कक्ष सब झांक रहे,
निरावृत मेरा यौवन सब आँक रहे।
मुदित, उन्मादित, उतारती रही वस्त्र,
सौन्दर्य प्रतियोगिताएं बनी ब्रह्मास्त्र।
रूप यौवन लेता गया नया आकार,
रूप दर्शन का करने लगी व्यापार।
मैं जान गई हो तुम तन के व्यापारी,
किया तन का मैंने शृंगार चमत्कारी।
मादक तन बस जाग उठा साकार,
है पौरूष, किन्तु मेरे समक्ष है लाचार।
बाहुबली, नतमस्त, दुर्बल निकला,
एक रूपबाण कितना प्रबल निकला।
किया हर युग में, कितना अपमानित,
कितने दुर्बल हो, हुआ यह प्रमाणित।
मैं हूॅं विजयी किन्तु यह जानती हूँ
हम दोनों हैं सृष्टि-पूरक मानती हूँ।
ना मैं श्रेष्ठ, ना तुम अतुल बलशाली,
बस भ्रम है ये, अपने मन का खाली।
छोड़ो अहम् के ये अपने अपने यत्न,
मिलें, चलें, करें नव सृष्टि का सृजन
लज्जित नर देख रहा उसके मुख को
समझ न पाया था अब तक तेरे दुःख !
आज हटा आवरण ह्रदय से अभिमान का
अब रहेगा सदा ध्यान सहचरी तेरे मान का !
मैं देवयानी ,मै अदिति ,मै ही योगमाया
मिलकर तेरे संग मैंने सृष्टि को यूँ रचाया !
पुल्कित डाल,पात ,पुष्प, पल्लव देखो सब
मेरे तेरे मिलन को ताक रहे कैसे देखो सब !
भ्रमर गुंजन कर रहा मन मोद यूँ फिर रहा
हो मदमस्त जीवन का देखो नवरस पी रहा !
उन्मादित क्षण ये देखो कितने उत्तेजित हैं
और कमल दल भी देखो मकरंद आवेशित हैं !
तो क्यों न हम सर्जक बन जाएँ
उल्हासित इस पृथ्वी को कर जाएँ !!