श्रीमद्भागवत -३०९ः तत्वों की संख्या और पुरुष प्रकृति विवेक
श्रीमद्भागवत -३०९ः तत्वों की संख्या और पुरुष प्रकृति विवेक
उद्धव जी ने कहा, विश्वेश्वर
कितनी संख्या है तत्वों की
आपने तो नो, ग्यारह, पाँच और तीन
कुल अठाईस बतलाया उनको ।
किंतु कुछ छब्बीस बतलाते
कुछ पच्चीस, कुछ छ, कुछ नौ स्वीकार करें
कोई इसे चार कोई ग्यारह
कोई सत्रह,सोलह, तेरह बतलाते ।
इतनी भिन्न भिन्न संखयाएं
किस अभिप्राय से बतलाते ऋषि मुनि
आप कृपा हमें बतलाइए
तब भगवान ने कहा, उद्धव जी ।
वेद ब्राह्मण इस विषय में
जो कुछ कहते हैं, ठीक सब
क्योंकि सबमें अंतरभूत हैं
ये सारे अलग अलग तत्व ।
यह विवाद इसलिए होता है
कि सत्व, रज आदि गुणों का
रहस्य लोग समझ ना पाते
और ना समझें इनकी वृत्तियाँ ।
जब इंद्रियाँ अपने वश में हो जातीं
तथा चित शांत हो जाता ये
ये प्रपंच भी निवृत हो जाता तब
और वाद विवाद मिट जाते सारे ।
एक दूसरे में अनुप्रवेश तत्वों का
इच्छित संख्या सिद्ध हो जाती इससे
दूसरे तत्वों का अंतर्भावहो जाता
एक ही तत्व के वहन से ।
तत्व जो छब्बीस बतलाते
वो कहते हैं कि जीव जो
अनादिकाल से अविद्या से ग्रस्त है
अपने आप को नही जान सकता वो ।
आत्मज्ञान कराने के लिए उसे
आवश्यकता है किसी अन्य सर्वज्ञ की
इसलिए प्रकृति के चौबीस तत्व
पच्चीसवाँ पुरूष और छब्बीसवाँ ईश्वर ही ।
पच्चीस तत्व स्वीकार करें जो
जीव और ईश्वर का भेद ना मानें
तीन गुणों की साम्यावस्था प्रकृति
आत्मा के नहीं, ये हैं प्रकृति के ।
सत्वगुण को कहा गया ज्ञान है
कर्म कहा गया रजोगुण को
तमोगुण को भी इसी प्रकार से
कहा गया है अज्ञान है जो ।
उद्धव जी यदि तीन गुणों को
प्रकृति से अलग मान लिया जाए
तो इन तत्वों की संख्या
स्वयं ही अठाईस हो जाए ।
पुरूष, प्रकृति, महतत्व, अहंकार, आकाश
वायु, तेज, जल, पृथ्वी, नौ ये
श्रोत, त्वचा, चक्षु, नासिका, रसना
जोड़ दो पाँच ज्ञानेंद्रियाँ ये ।
वाक्, पाणि,पाद, वायु और उपस्थ
ये पाँच कर्मेंद्रियाँ भी
और एक मन है जो
ज्ञानेंद्रिय, कर्मेंद्रिय दोनो ही ।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और रसना
ज्ञानेंद्रियों के पाँच विषय ये
और इन सबको मिलाकर
ये तत्व अठाईस होते ।
चलना, बोलना, मल त्यागना
पेशाब करना, काम करना ये
ये कर्म जो कर्मेंद्रियों के
तत्वों की संख्या नही बढ़ती उनसे ।
कर्मेंद्रिय स्वरूप ही मानना चाहिए इन्हें
और सृष्टि के आरम्भ में
प्रकृति ही रहती है
कार्य और कारण के रूप में ।
ग्यारह इंद्रियाँ और पंचभूत कार्य
महतत्व आदि कारण हैं
तीन गुणों की सहायता से
अनेक अवस्थाएँ प्रकृति धारण करती है ।
स्थिति की अवस्था सत्वगुण से
रजोगुण की सहायता से उत्पत्ति की
तमोगुण की सहायता से धारण करे
अवस्था जगत के संहार की ।
महतत्व आदि कारण धातुएँ
परस्पर मिलकर फिर वे
प्रकृति का आश्रय ले सृष्टि कर दें
ब्रह्माण्ड की उसी के बल से ।
जो लोग तत्वों को सात मानते
आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी
पाँच भूत ये, छठा जीव और
सातवाँ तत्व परमात्मा ही ।
देह, इंद्रियाँ, प्रणादि की उत्पत्ति तो
पंचभूत से हुई है इसलिए
वो इनसे अलग नहीं मानते
तत्वों की संख्या सात ही कहते ।
जो छह कहते वो पंचभूत और
छठा परम्पूज्य परमात्मा गिनाते
कहते जीव का परमात्मा में और
समावेश शरीर का पंचभूतों में ।
चार तत्व स्वीकार करते जो वो मानें
तेज, जल, पृथ्वी की उत्पत्ति आत्मा से
इस जग के सभी पदार्थ
इन्हीं से उत्पन्न हैं होते ।
सत्रह संख्या मानें हैं जो
पाँच भूत, पाँच तन्मात्राएँ कहें
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एक मन और
एक आत्मा , सत्रह मिलकर ये ।
सोलह कहने वाले समावेश करें
मन को आत्मा में ही
तेरह तत्व मानते हैं जो
वो ये कहते हैं कि ।
पंचभूत, पाँच ज्ञानेद्रिया,
एक मन, एक जीवात्मा
और तेरह हो जाते जब
उनमें मिल जाता परमात्मा ।
ग्यारह माने जो, पंचभूत
पाँच ज्ञानेंद्रियों के साथ में
एक आत्मा जोड़ दो इसमें
तो ग्यारह तत्व हो जाते ।
पंचभूत, मन, बुद्धि, अहंकार ये
आठ प्रकृतियाँ और एक पुरुष जो
एक मन को जोड़कर इसमें
तत्वों की संख्या हो जाती नौ ।
सभी का कहना उचित है क्योंकि
सबकी संख्या युक्ति युक्त है
किसी मत में बुराई नहीं
सब अपनी जगह ठीक हैं ।
उद्धव कहें “ श्यामसुन्दर यद्यपि
प्रकृति, पुरुष स्वरूपता भिन्न हैं
तथापि ये दोनों आपस में
इतने घुल मिल गए हैं ।
कि साधारणत्य भेद जान पड़ता नहीं
एक दूसरे से अभिन्न प्रतीत हों
मेरे हृदय में ये संदेह कि
इनकी भिन्नता स्पष्ट कैसे हो।
मेरे संदेह का निवारण कीजिए
ज्ञान हो आपकी ही कृपा से
और ज्ञान का नाश होता है
आप की माया शक्ति से ही ।
आत्मस्वरूपिनी माया की आपकी
आप ही विचित्र गति जानते
और कोई जाने ना इसको
इसलिए मेरा संदेह मिटाइये ।
भगवान कृष्ण ने कहा, उद्धव
प्रकृति और पुरुष, शरीर और आत्मा
अत्यंत भेद है इन दोनों में
मैं तुम्हें ये सब समझाता ।
जन्म-मरण, बुद्धि - ह्रास आदि विकार
प्राकृत जगत में लगे ही रहते
इसका कारण कि यह बना है
गुणों के ही क्षोभ से ।
मेरी माया त्रिगुणत्रिया है
भेदवृत्तियाँ पैदा कर देती
अपने सत्व, रज़ादि गुणों से
वही माया अनेकों प्रकार की ।
यद्यपि इसका विस्तार असीम है
फिर भी इस विकारात्मक सृष्टि को
तीन भाग में बाँट सकते हैं
अध्यात्म, अधिदेव और अधिभूत जो ।
जैसे नेत्रइंद्रियाँ अध्यात्म हैं
अधिभूत है रूप, विषय उनका
अधिदेव है नेत्र गोलक में
अंश स्थित है जो सूर्य का ।
ये तीनों सिद्ध होते परस्पर
एक दूसरे के आश्रय से
परस्पर सापेक्ष हैं तीनों इसलिए
परंतु जो सूर्यमंडल आकाश में ।
इन तीनों की आपेक्षा से मुक्त वो
स्वतः ही सिद्ध है वह तो
इस प्रकार आत्मा भी इन तीनों
भेदों का साक्षी, पर इनसे परे वो ।
सबका प्रकाश ही उसी के द्वारा
तीन भेद जिस तरह चक्षु के
उसी तरह तीन भेद त्वचा, श्रोत्
जिव्हा, नासिका और चित आदि के ।
जैसे कि त्वचा, स्पर्श और वायु
श्रवण, शब्द और दिशा होते
जिव्हा, रस और वरुण
नासिका, गन्ध अश्विनी कुमार ये ।
चित, चिंतन का विषय और वासुदेव
मन, मन का विषय और चंद्रमा
अहंकार, अहंकार का विषय और इंद्र
बुद्धि, भरमाने का विषय और ब्रह्मा ।
इन सभी विविध तत्वों से
कोई सम्बन्ध नहीं आत्मा का
प्रकृति से महतत्व और
महत्त्त्व से अहंकार है बनता ।
इसलिए यह गुणों के क्षोभ से
उत्पन्न हुआ प्रकृति का ये
सात्विक, तामस और राजस
तीन भेद हैं ये इसके ।
सृष्टि की विविधता और अज्ञान का
मूल कारण है ये अहंकार ही
आत्मा ज्ञानस्वरूप है उसका
इन पदार्थों से कोई संबंध नहीं ।
है - नहीं, सगुण - निर्गुण , भाव- अभाव
सत्य- मिथ्या आदि रुप में
जितने भी यह विवाद हैं
सबका मूल कारण भेद दृष्टि ये ।
यह विवाद सर्वथा व्यर्थ है
परंतु इससे वो मुक्त नहीं होते
जो लोग विमुख हैं मुझसे
और अपने वास्तविक स्वरूप से ।
उद्धव जी ने पूछा भगवन
जो जीव विमुख आपसे
अपने पुण्य पापों के कारण
ऊँची नीची योनियों में जाते रहें ।
ऐसे व्यापक आत्मा का
एक से दूसरे शरीर में जाना
अकर्ता का कर्म करना और
जन्म मरण विषय वस्तु का ।
यह सब कैसे संभव है
आत्मज्ञान से रहित लोग जो
इस विषय को ठीक ठीक सोच भी ना सकें
इसलिए कृपाकर समझाइए मुझको ।
भगवान कृष्ण कहें, हे उद्धव
मन पुंज है कर्म, संस्कारों का
संस्कारों के भोग प्राप्त करने को
साथ लगी रहें पाँच इंद्रियों ।
लिंग शरीर इसी का नाम है
और कर्मों के अनुसार ही
एक शरीर से एक लोक से
दूसरे शरीर और लोक में जाता वही ।
आत्मा इस लिंग शरीर से पृथक है
उसका आना जाना नहीं होता
लिंग शरीर जब वो समझे अपने को
तब आना जाना प्रतीत होने लगता ।
मन कर्मों के अधीन है
देखे हुए या सुने हुए विषयों का
चिंतन करने लगता है वह और
इन विषयों में वो लीन हो जाता ।
उन देवादि शरीरों में इसकी
इतनी तल्लीनता हो जाती है कि
जीव को अपने पूर्व शरीर का
नहीं रहता है स्मरण भी ।
किसी भी कारन से शरीर को
सर्वथा भूल जाना ही मृत्यु है
किसी भी शरीर को मैं के रूप में
स्वीकार कर लेना ही जन्म है ।
सृष्टि से इंद्रियों के आश्रय मन
या इस ही शरीर की
उत्तम, मध्यम और अधम
आत्मतत्व से ये त्रिविधिता भासती ।
उद्धव, काल की गति सूक्ष्म है
साधारणत उसे देखा ना जा सके
प्रतिदिन उसके द्वारा शरीरों की
उत्पत्ति, नाश होते ही रहते ।
प्रतिक्षण होते रहते जन्म मरण
सूक्ष्म होने के कारण नहीं दिखते
प्राणियों के शरीरों की आयु, अवस्था भी
बढ़ती रहे काल के प्रभाव से ।
गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म
बाल्यावस्था, कुमारवस्था, जवानी
अधेडावस्था, बुढ़ापा और मृत्यु
ये नौ अवस्थाएँ शरीर की ।
जीव से भिन्न यह शरीर है
और ऊँची, नीची अवस्थाएँ ये
उसके मनोरथ के अनुसार हैं
परंतु वह अज्ञानवश उन्हें ।
गुणों के संग से अपनी मानकर
भटकने लगता है और कभी
जब विवेक हो जाता उसको
इसको देता है छोड़ भी ।
जो शरीर और अवस्थाओं का उसकी
साक्षी है वह पृथक है सर्वथा
अज्ञानी प्रकृति और शरीर में
विवेचन ना करे आत्मा का ।
उससे अलग अनुभव ना करते उसे
सच्चा सुख मानें विषय भोगों में
उसी से मोहित हो जाते
भटकते जन्म मृत्युरुप संसार में ।
इस चक्र में भटकते हुए
सात्विक कर्मों की आसक्ति से
ऋषिलोक, देवलोक जाते हैं
और जो आसक्ति हो उन्हें ।
राजसिक कर्मों की, मनुष्य और
असुर योनियों में हैं जाते
भूत प्रेत और पक्षी योनियाँ मिलें
तामसी कर्मों की आसक्ति से ।
बुद्धि के गुणों को देखता जीव जब
तब स्वयं निष्क्रिय होने पर भी वो
उसका अनुसरण करने के लिए
बाध्य हो जाता है वो ।
जैसे घुमाए जाने पर नेत्रों के
पृथ्वी भी घूमती दिखाई देती
ऐसे ही हिलते डोलते जान पड़ते
जल के हिलने से प्रतिबिंब भी ।
मन के द्वारा सोचे गये तथा
भोग पदार्थ स्वप्न में देखे
सर्वथा अलीक हो जाते हैं और
वैसे ही सर्वथा असत संसार ये ।
नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त आत्मा है ये
ना होने पर भी विषयों के
विषयों का चिंतन करता रहे जीव जो
संसार चक्र से प्रवृत्त ना हो सके ।
कभी भी तृप्त ना हों इंद्रियाँ
विषयों को मत भोगों इनसे
अज्ञान से प्रतीत होने वाले
सांसारिक भेदभाव भ्रममूलक हैं ये ।
असाधु पुरुष वाणी से अपमान करे
उपहास करे, निंदा करे विचलित करे
चेष्टा करे निष्ठा से डिगाने की
क्षुब्ध ना होना चाहिये इनसे ।
क्योंकि बेचारे वो तो अज्ञानी
परमात्मा का तो पता ही नहीं उन्हें
अपने कल्याण का इच्छुक जो, उसे
अपने को बचाना विवेक बुद्धि से ।
आत्मदृष्टि एक मात्र साधन है
बचने का समस्त विपत्तियों से
उद्धव जी कहें हे भगवन
शिरोमणि आप स्मस्त वक्ताओं के ।
जैसे मैं इसको समझ सकूँ
जीवन में धारण कर सकूँ इसको
वैसे ही उसको बतलाइए
उपदेश आपका सारा ये जो ।
जो भागवतधर्म आचरण में
पूर्वक संलग्न हैं आपके
आश्रय ले लिया जिन शान्तपुरुषों ने
चरण कमलों का ही आपके ।
और बड़े बड़े विद्वानों के लिए भी
दुष्टों द्वारा किया हुआ तिरस्कार ये
सह लेना अत्यंत कठिन है
क्योंकि प्रकृति अत्यंत बलवान ये ।
