श्रीमद्भागवत-२७१; भगवान की अग्रपूजा और शिशुपाल का उद्धार
श्रीमद्भागवत-२७१; भगवान की अग्रपूजा और शिशुपाल का उद्धार
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
सुनकर जरासंध के वध को
राजा युधिष्ठिर प्रसन्न हुए और
श्री कृष्ण से बोले वो ।
‘सर्वशक्तिमान श्री कृष्ण
ब्रह्मा, शंकर और इंद्रादि सभी
तरसते आपकी आज्ञा पाने को
और ये मिल जाती है यदि ।
श्रद्धा से शिरोधार्य करें उसको
अत्यंत दीन हैं हम लोग तो
परन्तु मानते हैं फिर भी
भूपति और नरपति अपने को ।
ऐसी स्थिति में हम लोग तो
दण्ड के पात्र आपके
परन्तु आप हमारी आज्ञा ही
स्वीकार कर उसका पालन करते ।
अभिनय मात्र ये मनुष्य लीला का आपकी
आप स्वयं परब्रह्म परमात्मा
आप जो कुछ कर रहे हैं
ये तो है बस आपकी लीला ‘।
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
इस प्रकार कहकर युधिष्ठिर ने
वरण किया ऋत्विजों का
श्री कृष्ण की अनुमति से ।
भारद्वाज, वशिष्ठ, मैत्रेय, पराशर
द्रोणाचार्य, भीष्म, कृपाचार्य आदि
धृतराष्ट्र और पुत्र दुर्योधन
बुलवाया था वहाँ विदुर को भी ।
और कई राजा भी आए वहाँ
यज्ञ की दीक्षा दी ऋत्विजों ने
युधिष्ठिर के इस यज्ञ में
यज्ञ पात्र सब सोने के थे ।
ब्रह्मा, शंकर, इंद्रादि देवता
लोकपाल, सिद्ध, मुनि, विद्याधर आदि
सभी उपस्थित थे वहाँ पर
बड़ी शोभा थी उस यज्ञ की ।
याजकों ने युधिष्ठिर से
विधिपूर्वक यज्ञ कराया
सभासद विचार करने लगे तब
किसकी होगी अब अग्रपूजा ।
सर्वसम्मति से निष्कर्ष ना निकला।
इस स्थिति में सहदेव ने कहा
‘ यदुवंश शिरोमणि भगवान कृष्ण की
ही होनी चाहिए ये पूजा ।
श्री कृष्ण का रूप सारा विश्व ये
और पूजा करने से इनकी
समस्त प्राणियों की तथा
अपनी भी पूजा हो जाती ‘ ।
भगवान की महिमा और प्रभाव को
अच्छी तरह जानते सहदेव थे
भरी सभा में ऐसा कहकर
सहदेव फिर चुप हो गए ।
युधिष्ठिर और बाक़ी सत्पुरुषों ने
समर्थन किया सहदेव की बात का
युधिष्ठिर ने बड़े आनंद से
कृष्ण की तब की थी पूजा ।
पाँव पखारे प्रभु कृष्ण के
चरणकमलों के जल को उनके
सिर पर धारण किया अपने
कृष्ण को नमस्कार किया सबने ।
शिशुपाल ये सब देख सुन रहा
सुनकर भगवान कृष्ण के गुणों को
उसको बहुत क्रोध आ गया
उठकर खड़ा हो गया वो ।
कृष्ण को सुनाकर ये कहने लगा
‘ बातों से कुछ मूर्खों की
लगता है बुद्धि चकरा गयी
वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्धों की भी ।
पर मैं मानता आप लोग सब
अग्रपूजा के पात्र के विषय में
स्वयं समर्थ हैं इसलिए
वालक सहदेव कि बात ना मानें ।
तपस्वी, विद्वान बड़े बड़े उपस्थित यहाँ
जिनकी पूजा लोकपाल भी करते
उनको छोडकर एक कुलकलंक ग्वालवाल
अग्रपूजा का अधिकारी कैसे ।
इसका ना कोई वर्ण, ना आश्रम
इसका ऊँचा कुल भी नही है
वेद, लोकमर्यादा का उल्लंघन करके
मनमाना आचरण करता है ।
ऐसे में अग्रपूजा का पात्र ये कैसे
और आप तो जानते ही हो
कि राजा ययाति ने भी
शाप दे रखा इसके वंश को ।
इस लिए सत्पुरुषों ने
बहिष्कार किया इसके वंश का
ऐसी स्थिति में अग्रपूजा का
फिर ये अधिकारी कैसे हुआ ।
ब्रह्मऋषियों के द्वारा सेवित
मथुरा का परित्याग किया इसने
क़िला बनाकर रहने लगा है
ब्रह्मवर्चस के विरोधी समुंदर में ।
परीक्षित, शुभ तब शिशुपाल का
नष्ट हो चुका था सारा
इसी से और भी बहुत बुरा
कृष्ण को उसने कहा था ।
भगवान कृष्ण चुपचाप ही रहे
उत्तर ना दिया उसकी बातों का
परंतु सभासदों के लिए कृष्ण की
निन्दा सुनना तो असह था ।
उनमें से कई लोग तब
शिशुपाल को गाली देते हुए
कान बंद कर बाहर चले गए
पांडव भी क्रोध में उठ खड़े हुए ।
मारना चाहते वो शिशुपाल को
शिशुपाल को कोई घबराहट ना हुई
उन नरपतियों से लड़ने को
उसने ढाल, तलवार उठा ली ।
यह देख श्री कृष्ण को
क्रोध आया, वो उठ खड़े हुए
और शिशुपाल का सिर तब
चक्र से काट लिया उन्होंने ।
शिशुपाल के मारे जाने पर
कोलाहल मच गया वहाँ पर
उसके अनुयायी नरपतियों ने
जान बचाई वहाँ से भागकर ।
ज्योति एक शिशुपाल के शरीर से
निकलकर समा गयी कृष्ण में
वैरभाव की वृद्धि हो रही थी
लगातार अंतकरण में उसके ।
तीन जन्म से ये था हो रहा
और वैरभाव में ही सही
ध्यान करके और तन्मय होकर वो
पार्षद हुआ, कृपा हुई कृष्ण की ।
भगवान कृष्ण ने फिर युधिष्ठिर का
राजसूय यज्ञ पूर्ण कराया
कुछ महीने वहीं रहे और
फिर चले गए वो द्वारका ।
राजसूय यज्ञ करने के बाद में
युधिष्ठिर का यश और बढ़ गया
सभी लोग सुखी थे परन्तु
दुर्योधन को ये सहन ना हुआ ।