श्रीमद्भभागवत-२९४ः अवधूतोपाखियान - पृथ्वी से लेकर कबूतर तक आठ गुरुओं की कथा
श्रीमद्भभागवत-२९४ः अवधूतोपाखियान - पृथ्वी से लेकर कबूतर तक आठ गुरुओं की कथा


भगवान कृष्ण ने कहा, उद्धव
जो कुछ कहा तुमने मुझसे
मैं वही करना चाहता हूँ
ब्रह्मदि देवता भी यही चाहते ।
कि मैं उनके लोकों से होकर
अपने धाम को चला जाऊँ
पृथ्वी पर उनका जो काम था
मैं सब पूरा कर चुका हूँ ।
ब्राह्मणों के शाप से भस्म हो चुका
यह मेरा यदुवंश कुल जो
पारस्परिक कलह और युद्ध में
नष्ट हो जाएगा ये तो ।
आजसे सातवें दिन समुंदर
डुबो देगा द्वारकापुरी को
सारे मंगल नष्ट होंगे जब
मैं भी तब त्यागूँ पृथ्वी को ।
थोड़े ही दिनों में पृथ्वी पर
बोलबाला होगा कलियुग का
पृथ्वी को जब मैं त्याग दूँ
तब तुम भी इसपर मत रहना ।
क्योंकि कलियुग में अधिकांश लोगों की
रुचि अधर्म में ही होगी
स्वामी का स्नेह, सम्बन्ध छोड़कर
मुझ में तुम अब लगाओ प्रीति ।
समदृष्टि से पृथ्वी पर
अब तुम सवछंद विचरण करो
सभी आसक्तियाँ छोड़ कर
बस मुझमें ही स्थित रहो ।
मन से सोचा जाता जो जगत में
या कहा जाता वाणी से
नेत्रों से देखा जाता अथवा
इंद्रियों से जो अनुभव करें ।
वह सबका सब नाशवान है
मन का विकार, सपने की तरह वो
इसीलिए माया मात्र है
मिथ्या है, ऐसा समझ लो ।
इसलिए इंद्रियों को वश में कर
चित की समस्त वृत्तियों को रोक लो
सारा जगत आत्मा में फैला हुआ
फिर ऐसा तुम अनुभव करो ।
आत्मा मुझ सर्वेश्वर ब्रह्म से
एक है, अभीष्ट है सोचो
सभी की आत्मा हो जाओगे तुम
ऐसे तुम आनंदमगन रहो ।
तब पीड़ित ना होगे विघ्नों से क्योंकि
आत्मा तुम विघन करने वाले की भी
निषिद्ध कर्मों से निवृत हो जाओ तब
बालक समान हो जाती बुद्धि ।
यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर ले जो
हितेषी, सुहृदय होता प्राणियों का
मेरा स्वरूप देखे सभी में
जन्म मृत्यु के चक्र में ना पड़ता ।
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
श्री कृष्ण ने जब ऐसा कहा
तत्वज्ञान की प्राप्ति की इच्छा से
उद्धव ने कृष्ण से ये प्रश्न किया ।
सन्यासरूप त्याग का उपदेश दिया
मेरे कल्याण के लिए आपने
परन्तु जो विषयों में जकड़े हैं
उनके लिए अत्यंत कठिन ये ।
उनमें भी जो विमुख आपसे
असम्भव ऐसा त्याग उनके लिए
प्रभु मेरी भी ऐसी ही समझ है
कि मैं भी ऐसा ही एक उनमें से ।
“ यह मैं हूँ!, यह मेरा है !
इस सब में आपकी माया से
मैं अब भी डूब रहा हूँ
देह, स्त्री,पुत्र धन आदि में ।
अतः उपदेश जो दिया आपने
इस प्रकार समझाइए मुझे उसे
कि मैं मूढ़ सेवक उसका साधन
कर सकूँ बड़ी सुगमता से ।
भगवान श्री कृष्ण कहें “ उद्धव
यह जगत क्या ?, इसमें क्या हो रहा ?
ऐसा विचार करने में निपुण जो
विवेकशक्ति से अपने को बचा लेता ।
हित अहित का उपदेशक गुरु है
मनुष्य का अपना आत्मा ही
कई शरीरों का निर्माण किया मैंने
सबसे अधिक प्रिय मुझे मनुष्य ही ।
मनुष्य शरीर में बुद्धि आदि से
साक्षात अनुभव मेरा कर सकते
महात्मा लोग इस विषय में
प्राचीन इतिहास एक कहा करते ।
परमतेजस्वी अवधूत दत्तात्रेय
और राजा यदु का संवाद ये
एक बार राजा यदु ने देखा
तरुण अवधूत एक निर्भय विचर रहे ।
राजा यदु ने पूछा, ब्राह्मण
कर्म ना करते आप तो
यह अत्यंत निपुण बुद्धि फिर
कहाँ से प्राप्त हुई आपको ।
जिसका आश्रय लेकर आप
परम विद्वान होने पर भी
इस संसार में विचर रहे हैं
जैसे हो अबोध बालक कोई ।
आप विद्वान और निपुण हैं
समर्थ आप हैं कर्म करने में
भाग्य, सौंदर्य प्रशंसनीय आपका
अमृत टपक रहा वाणी से ।
जड़, उन्मुक्त, पिशाच के समान
रहते हो आप फिर भी
ना तो आप कुछ चाहते हैं
और कुछ करते भी नही ।
काम, लोभ के दावानल में
जल रहे जीव संसार के
अंशमात्र भी ना पड़ते इसमें
आप मुक्त हैं, मालूम होता ये ।
पुत्र, स्त्री, धन, संसार के
स्पर्श से ही रहित हैं आप तो
सदा सर्वदा अपने स्वरूप में
आप तो स्थित रहते हो ।
ऐसे में परम आनंद का
अनुभव कैसे होता आपको
कृपाकर अवश्य बतलाइए
मैं जानना चाहता हूँ जो ।
भगवान कृष्ण ने कहा, उद्धव
हमारे पूर्वज राजा यदु जी
बड़े ही ब्राह्मण भक्त थे
उनकी बुद्धि शुद्ध थी बड़ी ।
तब दत्तात्रेय जी ने कहा
राजन, मैंने अपनी बुद्धि से
बहुत से गुरुओं का आश्रय लिया
शिक्षा ग्रहण करके ही उनसे ।
स्वच्छंद विचर रहा इस जगत में
और चौबीस गुरु हैं मेरे
पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि
चंद्रमाँ, सूर्य, कबूतर अजगर उनमें से ।
समुंदर, पतंगा, मधुमक्खी, हाथी
शहद निकालने वाला, हरिण, मछली
पिंगला वैश्या, कुरर पक्षी, बालक,मकड़ी
कुमारी कन्या, बान बनाने वाला, सर्प , भृंगी ।
इन गुरुओं का आश्रय लिया मैंने
और इनसे जो शिक्षा ली मैंने
जो सीखा है वो सब का सब
अब मैं बतलाता हूँ तुम्हें ।
पृथ्वी से मैंने शिक्षा ली
उसके धैर्य की और क्षमा की
आघात, उत्पात करते लोग उसपर
वह रोती नही,ना बदला लेती ।
संसार के प्राणी समय समय पर
आक्रमण कर बैठते जाने अनजाने में
धीर पुरुष को चाहिए कि समझे
विवशता उनकी और क्रोध ना करे ।
पृथ्वी के ही विकार पर्वत, वृक्षों से
मैंने ये शिक्षा ग्रहण की
कि उनकी चेष्टा सर्वदा ही जैसे
दूसरों के हित के लिए ही होती ।
साधु पुरुष को चाहिए कि
स्वीकार करके स्थिरता उनकी
शिक्षा वो ग्रहण करे उनसे
संसार के हित और परोपकार की ।
प्राणवायु जो शरीर के भीतर
मैंने शिक्षा ग्रहण की उससे ये
कि आहार मात्र की इच्छा
बस रखता है वो जैसे ।
उनकी प्राप्ति से ही संतुष्ट हो जाता
वैसे ही साधक को भी चाहिये
कि उतना भोजन हो वो करे
जीवन निर्वाह हो जाए जितने में ।
इंद्रियों को तृप्त करने के लिए
बहुत से विषय ना चाहे
और उतने ही विषयों का
उपभोग उसको करना चाहिए ।
जिनसे बुद्धि विकृत ना हो
उसका मन चंचल ना हो जिससे
और वाणी ना लग जाए
जिससे व्यर्थ की बातों में ।
शरीर के बाहर रहने वाली वायु से
मैंने सीखा कि जैसे वायु ये
अनेक स्थानों पर जाता परंतु
आसक्त नही होता कहीं से ।
गुण दोष अपनाता नही किसी का
वैसे ही प्रत्येक पुरुष को भी चाहिए
विभिन्न विषयो
ं में जाए भी वो परंतु
अपने लक्ष्य पर स्थिर रहे ।
किसी के गुण दोष की
और झुक ना जाए वो
और किसी से आसक्ति या
द्वेष ना करना चाहिए उसको ।
वायु का गुण नही ये
गन्ध गुण है पृथ्वी का
परंतु इस वायु को ही
वहन करना पड़ता गन्ध का ।
ऐसा करने पर भी वायु
रहता है शुद्ध सदा ही
गन्ध से उसका सम्पर्क नही होता
वैसे ही चाहिए साधक को भी ।
कि इस पार्थिव शरीर से
सम्बन्ध है जब तक उसका
तब तक वहन करनी पड़े
भूख, प्यास, व्याधि, पीड़ा ।
परंतु अपने को शरीर नही
साधक आत्मा के रूप में देखे
शरीर का आश्रय होने पर भी
उससे सर्वदा निर्लिप्त रहे ।
जितने भी घट मठ आदि
पदार्थ हैं, कारण उन सब के
भिन्न भिन्न प्रतीत होते परंतु
आकाश अखंड ही है वास्तव में ।
वैसे ही चर अचर जितने भी
सूक्ष्म, स्थूल शरीर हैं उनमें
सर्वत्र स्थित होने के कारण
आतमाराम ब्रह्म है सभी में ।
मणियों में व्याप्त सूत के समान
साधकों को चाहिए कि वे
आत्मा को देखा करे
अखंड और असंग रूप से ।
आत्मा की आकाशरूपता की
भावना करनी चाहिए साधक को
आग लगती है , पानी बरसता
अन्न आदि पैदा हों, नष्ट हों ।
बादल आदि आते जाते हैं
वायु की प्रेरणा से ही
परंतु आकाश अछूता रहता
यह सब होने पर भी ।
आकाश की दृष्टि से यह है ही नही
इसी प्रकार ना जाने कितनी
सृष्टि और प्रलय होते रहते पर
आत्मा का उनसे कोई सम्बन्ध नही ।
स्वच्छ, पवित्र करने वाला
जिस प्रकार जल स्वभाव से
लोग पवित्र हो जाते हैं
दर्शन और स्पर्श से गंगा के ।
वैसे ही साधक को भी चाहिए
कि वो शुद्ध, मधुर भाषी हो
अपने दर्शन, स्पर्श से ही
पवित्र कर दे वो लोगों को ।
राजन, अग्नि से शिक्षा ली मैंने
कि तेजस्वी, ज्योतिर्मयी होती वो जैसे
उसे दबा नही सकता है
कोई भी अपने तेज से ।
संग्रह, परिग्रह के लिए पात्र
उसके पास नही कोई जैसे
और रख लेती है जैसे
वो सबकुछ अपने पेट में ।
सब कुछ खा लेने पर भी
लिप्त ना हो उनके दोषों में
अग्नि से ये सब सीखा मैंने
ऐसे ही साधक को भी चाहिए ।
कि परमतेजस्वी, यथयोग्य हो वो
भोजन मात्र का संग्रह करे
विषयों का उपभोग करते हुए भी
मन, इंद्रियों को वश में रखे ।
किसी का दोष वो साधक
अपने में ना आने दे
प्रकट, अप्रकट अग्नि रहे जैसे
वो भी कभी प्रकट कभी अप्रकट हो जाए ।
कहीं कहीं ऐसे भी प्रकट हो
कि पुरुष उपासना कर सकें उसकी
भिक्षा देने वालों के अशुभ को
भस्म करता अग्नि समान ही ।
लकड़ियों में रहकर उसके समान ही
लंबी, सीधी टेढ़ी अग्नि दिखे
परंतु वैसी है नही वो
सच पूछो तो ये अग्नि वास्तव में।
वैसे ही सर्वव्यापक आत्मा भी अपनी
माया से रची वस्तुओं के रूप में
प्रतीत होने लगे वैसे ही
पर उसका कोई सम्बन्ध ना उनसे ।
चंद्रमा से ये शिक्षा ग्रहण की
कि घटती बढ़ती कलाएँ दीखतीं उसकी
चन्द्रमा तो बस चंद्रमा है
वो तो कभी घटता बढ़ता नही ।
वैसे ही मृत्यु पर्यन्त जितनी
अवस्थाएँ हैं सब शरीर की
आत्मा से इन अवस्थाओं का
कोई भी होता सम्बन्ध नही ।
सूर्य से मैंने शिक्षा ग्रहण की
कि पृथ्वी का जल खींचते वो जैसे
और समय आने पर इसको
बरसा देते वर्षा के रूप में ।
वैसे ही योगी पुरुष भी
इंद्रियों के। विषयों को ग्रहण करें
और समय आने पर उसका
त्याग, उनका दान कर देते ।
इंद्रियों के किसी भी विषय में
किसी भी समय आसक्ति नही होती उसे
कभी किसी से भी अत्यंत
स्नेह आसक्ति करनी चाहिए नही ।
किसी पात्र में प्रतिबिंबीत हो सूर्य
भिन्न भिन्न देता दिखाई
परंतु जैसे सूर्य एक है
प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा एक ही ।
अत्यंत आसक्ति जो करते हम
कबूतर की तरह कष्ट उठाना पड़े
राजन, एक बार एक कबूतर ने
घोंसला बनाया एक पेड़ में ।
अपनी मादा कबूतरी के साथ में
कई वर्ष तक रहा उसमें
स्नेह की वृद्धि होती जाती
निरंतर एक दूसरे के लिए ।
आसक्त हो गए इतने आपस में
एक साथ बैठते, खाते वो
कबूतरी जो कुछ चाहे, कबूतर
कष्ट उठाकर भी लाता उसको ।
कबूतरी भी अपने कामुक पति की
कामनाओं को पूर्ण करती
गर्भ ठहरा जब कबूतरी को
तब अपने पति के पास ही ।
अंडे दिए और उनमें से
निकले छोटे से कोमल बच्चे
अपने बच्चों का वो पालन करते
प्रेम और बड़े आनंद से ।
गुटर गूं सुन उन बच्चों की
आनंद मगन हो जाते दोनों
कबूतर, कबूतरी भावुक हो जाते
पंखों से स्पर्श करें बच्चे जब वो ।
सच पूछो तो मोहित हो जाते
भगवान की इस माया से ही
इतने मगन रहते आपस में
लोक परलोक की भी याद ना आती ।
एक दिन दोनों जंगल में गए
चारा लेने बच्चों के लिए
इधर बहेलिया एक घूमते घूमते
घोंसले की और निकला उनके ।
जाल फैला बच्चों को पकड़ लिया
और कबूतर कबूतरी जब आए
देखा बच्चे जाल में फँसे
कष्ट में वो चैं चैं कर रहे ।
कबूतरी के दुःख की सीमा ना रही
रोती चिल्लाती उनके पास गयी
स्नेह की रस्सी में जकड़ी हुई वो
शरीर की भी सुध बुध ना रही ।
स्वयं भी फँस गयी जाल में
कबूतर ने जब ये सब देखा
कि प्रियतमा इस दशा में पहुँची
दुखी होकर विलाप करने लगा ।
“ हाय, मेरी गृहस्थी नष्ट हो रही
और मेरी ये प्राण प्यारी
आज मुझे सूने घर में छोड़कर
बच्चों के साथ स्वर्ग सिधार रही ।
मेरा संसार में क्या काम अब
अब किस के लिए जाऊँ घर में “
मूर्ख कबूतर दीन हो रहा
बच्चे तड़प रहे फंदे में ।
यह सब देखते देखते
कूद पड़ा जाल में जान बूझकर
राजन, बहेलिया बड़ा खुश था
चलता बना वो सबको लेकर ।
विषयों और लोगों के संग साथ में
ही जिस गृहस्थी को सुख मिले
कुटुम्ब के भरण पोषण में
जो अपनी सुध बुध खो बैठे ।
उसे कभी शान्ति नही मिलती
और कबूतर के समान ही
वो कष्ट पाता रहता है
अपने कुटुम्ब के साथ सदा ही ।
मनुष्य शरीर मुक्ति का द्वार है
फँसा रहे जो घर गृहस्थी में ही
ऊँचे तक चढ़ कर गिर रहा वो
“ आरूढ़ च्युत” है,भाषा में शास्त्र की ।