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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१५४; देवताओं और दैत्यों का मिलकर समुन्द्र मंथन के लिए उद्योग

श्रीमद्भागवत -१५४; देवताओं और दैत्यों का मिलकर समुन्द्र मंथन के लिए उद्योग

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शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित

इस प्रकार जब देवताओं ने

श्री हरि की स्तुति की तो वे

प्रकट हो गए उनके बीच में।


मानो हजारों सूर्य उग आये

शरीर की प्रभा उनकी थी ऐसी

भगवान् की उस प्रभा को देखकर

देवताओं की आँखें चोंधिया गयीं।


आकाश, पृथ्वी, अपने शरीर को भी

नहीं देख सके वो वहां

केवल ब्रह्मा जी और भगवान् शंकर ने

उन हरि की छवि का दर्शन किया।


बड़ी ही सुंदर झांकी थी

स्वच्छ, शयामल शरीर था उनका

सुंदर रेशमी पीताम्बर

बड़ा ही सुंदर उनका मुख था।


वक्षस्थल पर लक्ष्मी जी

कौस्तुभमणि थी गले में

पृथ्वीपर गिरकर शाष्टांग

प्रणाम किया था देवताओं ने।


साथ लेकर देवताओं को

शंकर जी और भगवान् ब्रह्मा

स्तुति करें परम पुरुष भगवान् की

ब्रह्मा जी ने था फिर ऐसा कहा।


जो सूक्षम से भी सूक्षम है

और जिनका स्वरुप अनंत है

उन ऐश्वर्यशाली प्रभु को

नमस्कार हम सब करते हैं।


मुझे भी रचने वाले प्रभु

उनके इस विशवमय स्वरुप में

समस्त देवताओं सहित मुझे

तीनों लोक दिखाई दे रहे।


आपमें ही पहले ये जगत लीन था

मध्य में भी यह स्थित है आपमें

और अन्त में भी यह पुनः

आप में ही लीन हो जाये।


कमलनाभ ! आपके विर्भाव से

सुखी और शांत हो गए हम सब

जिस उदेश्य से आये शरण में

कृपाकर पूर्ण कीजिये उसे अब।


आप सबके साक्षी हैं अतः

इस विषय में निवेदन क्या करें आपसे

ब्राह्मण, देवताओं के कल्याण के लिए

जो आवश्यक हो, आदेश दीजिये।


शुकदेव जी कहें, ब्रह्मादि की स्तुति सुन

प्रभु गंभीर वाणी में बोले

अकेले समर्थ थे वो सब कुछ करने में

फिर भी देवताओं से कहने लगे।


विहार करने की इच्छा से

समुन्द्र मंथन आदि के द्वारा

देवताओं को सम्बोधित कर

श्री हरि ने था ऐसा कहा।


ब्रह्मा, शंकर और देवताओ तुम सुनो

तुम्हारे कल्याण का यही उपाय है

इस समय असुरों और दैत्यों पर

काल की बेहद कृपा है।


तुम्हारे अभ्युदय और उन्नत्ति का

समय नहीं आता है जब तक

पास जाओ दैत्यों दानवों के

उनसे संधि कर लो तुम तब तक।


मेल मिलाप कर लेना चाहिए

उस समय शत्रुओं से भी

शत्रुता भुला दो कुछ समय के लिए

बड़ा काम करना हो जब कोई।


बिना बिलम्ब के तुम लोग सब

अमृत निकलने का प्रयत्न करो

मरने वाला प्राणी भी हो तो

अमर होता पीने पर जिसको।


सब प्रकार के घास, तिनके, लताएं,

औषधियां क्षीरसागर में डालो

मथानी बनाओ मंदराचल को

वासुकि नाग को नेति बनालो।


मेरी सहायता से समुन्द्र मंथन करो

और देवताओ, विश्वास करो

दैत्यों को केवल श्रम का कलेश और

फल मिलेगा तुम्ही लोगों को।


तुम लोग सब स्वीकार करो

असुर लोग जो चाहें तुमसे

शांति से काम बन जाते

कुछ नहीं होता क्रोध करने से।


सबसे पहले समुन्द्र से निकले

कालकूट विष, उससे डरना नहीं

और किसी भी वास्तु के लिए

तुम लोग लोभ करना नहीं।


शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित 

देवताओं को यह उपदेश दे 

पुरुषोत्तम भगवान उनके बीच से 

उसी समय अंतर्धान हो गए। 


उनके जाने पर ब्रह्मा, शंकर भी 

अपने अपने लोक को गए 

तदनन्तर इन्द्रादि देवता 

पास गए राजा बलि के। 


बिना शस्त्र के देवता आ रहे 

जब दैत्यसेनापतियों ने देखा ये 

मन में बड़ा क्षोभ हुआ उनके और 

पकड़ लेना चाहा था उन्हें। 


परन्तु दैत्यराज बलि जो 

पवित्र कीर्ति से संपन्न थे 

संधि, विरोध के अवसर को जानते 

रोका दैत्यों को ऐसा करने से। 


बलि के पास तब पहुंचे देवता 

तीनों लोकों को जीता था बलि ने 

राजसिंहासन पर बैठे वो 

उनसे कहा था तब इंद्र ने। 


मधुर वाणी में समझाकर 

उनसे वो सब बातें कहीं 

जो शिक्षा स्वयं भगवान ने 

उनको इससे पहले दी थी। 


बलि को यह बात जंच गयी 

सेनापतियों को भी अच्छी लगी 

देवता, असुरों ने आपस में 

संधि करके मित्रता कर ली। 


पूर्ण उद्योग करने लगे सब 

मिलकर समुन्द्र मंथन के लिए 

मन्दाचल को उखाड लिया 

उन सबने अपनी शक्ति से। 


भुजाएं उनकी परिध के समान थीं 

शक्ति बहुत थी शरीर में 

अपने बल का घमंड तो था ही 

पर्वत को समुंद्रतल की और ले चले। 


परन्तु मंदरपर्वत भारी बड़ा 

और ले जाना भी दूर था 

इसलिए सब के सब हार गए 

इंद्र, बलि आदि दैत्य, देवता। 


जब वे सब मंदराचल को 

किसी प्रकार आगे न ले जा सके 

तब विविश होकर उन्होंने 

पटक दिया उसे रास्ते में। 


सोने का पर्वत था वह 

मंदराचल बहुत भारी था 

चकनाचूर हुए गिरते समय उसके 

बहुत से दानव और देवता। 


उनका उत्साह भंग हुआ देखकर 

भगवान् सहसा वहां प्रकट हो गए 

देवताओं को जीवित कर दिया 

उन्होंने अपनी अमृतमय दृष्टि से। 


इसके बाद खेल खेल में 

पर्वत उठा लिए एक हाथ से 

गरुड़ पर उसको रख दिया 

और स्वयं भी उसपर सवार हुए। 


पक्षीराज गरुड़ ने फिर 

पर्वत उतर दिया समुन्द्र तट पर 

गरुड़ जी वहां से चले गए तब 

भगवान् के विदा करने पर। 



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