श्रीमद्भागवत -१९५ः अवधूतोपाख्यान - अजगर से लेकर पिंगला तक नो गुरुओं की कथा
श्रीमद्भागवत -१९५ः अवधूतोपाख्यान - अजगर से लेकर पिंगला तक नो गुरुओं की कथा


श्रीदत्तात्रेय जी कहते हैं, राजन
बिना इच्छा के प्राणियों को जैसे
रोकने की चेष्ठा करने पर भी
और बिना किसी प्रयत्न के ।
पूर्वकर्मानुसार दुःख प्राप्त होते
वैसे ही वो रहे जहां भी
स्वर्ग या नरक में, उन्हें
प्राप्त होते इंद्रिय सम्बन्धी सुख भी ।
सुख दुःख का रहस्य जानने वाले
बुद्धिमान पुरुष को चाहिए
कि इसके लिए इच्छा अथवा
किसी प्रकार का प्रयत्न ना करे ।
बिना माँगे , बिना इच्छा किए
अनायास जो कुछ मिल जाए
वह चाहे रूखा सूखा या
मधुर और स्वादिष्ट हो चाहे ।
अधिक हो या थोड़ा हो
बुद्धिमान पुरुष समान अजगर के
उसी को खाकर ही अपना
जीवन निर्वाह करे, उदासीन रहे ।
यदि भोजन ना भी मिले तो
प्रारब्धभोग समझकर उसे भी
किसी प्रकार की चेष्ठा ना कर
कई दिनों तक भूखा ही रहे ।
उसे चाहिए कि अजगर समान ही
केवल प्रारब्ध के अनुसार जो मिले
उस भोजन को प्राप्त करके
उसी में वो संतुष्ट रहे ।
मनबल इंद्रियबल और देहबल
तीनों ही हैं उसके शरीर में
तब भी अजगर की तरह ही
वह निश्चेष्ट ही रहे ।
निद्रारहित होने पर भी
सोया हुआ सा वो रहे
कर्मेंद्रियों के होने पर भी
उनसे कोई चेष्ठा ना करे ।
समुंदर से मैंने सीखा कि
सर्वदा प्रसन्न, गम्भीर रहे वो
अथाह, अपार, असीम रहते हुए
किसी भी स्थिति में उसे क्षोभ ना हो ।
ऐसा रहना चाहिए साधक को
समुंदर जैसे बिना ज्वार भाटे के
वर्षा ऋतु में बढ़ता नही
घटता नही ग्रीष्म ऋतु में ।
वैसे ही साधक को भी चाहिए
कि सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति में
प्रफुल्लित नही होना चाहिए उसे
उदास ना हो उनके घटने से ।
राजन, पतिंगे से मैंने ये सीखा
जैसे रूप पर मोहित होकर वो
आग में कूद पड़ता है
और फिर जल जाता वो तो ।
वैसे ही अपनी इंद्रियों को वश में
ना रख सकता हैं पुरुष जो
हाव भाव पर लट्टू हो जाता
जब स्त्री को देखता है वो ।
घोर अंधकार में, नरक में गिरकर
सत्यानाश कर लेता अपना
स्त्री ऐसी माया है जिससे
जीव मोक्ष से वंचित रह जाता ।
कामिनी, गहने आदि नाशवान पदार्थ
में फँसा हुआ है मूढ़ जो
वह अपनी विवेकबुद्धि खोकर
पतिंगे के समान ही नष्ट हो ।
राजन, सन्यासी को चाहिए कि
कष्ट ना देकर कोई गृहस्थों को
भोरें की तरह ही सदा
जीवन का निर्वाह करे वो ।
सन्यासी जो भोजन लेता है
सवादवश एक ही घर से
नष्ट हो जाता है वो तो
भ्रमर समान बंद हो कमल में ।
जिस प्रकार विभिन्न पुष्पों का
सार संग्रह करता है भोंरा
बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि
सार निचोड़ ले सभी शास्त्रों का ।
राजन, मधुमक्खी से मैंने सीखा कि
सन्यासी को संग्रह ना करना चाहिए
भीक्षा लेने के लिए पात्र हाथ बस
बर्तन पेट उसे रखने के लिए ।
संग्रह ना कर बैठे वह कभी
नही तो मधुमक्खी समान ही
जीना दूभर हो जाएगा उसका
गँवा बैठेगा अपना जीवन भी ।
हाथी से ये सीखा मैंने
कि सन्यासी कभी पैर से भी अपने
स्त्री का स्पर्श ना करे
और यदि करता वो ऐसे ।
तो जैसे हथनियों के संग में
हाथी बंध जाता है जैसे
वो सन्यासी भी उसी तरह
बंध जाए स्त्री के संग में ।
हाथी पालने वाले गड्ढे को
ढककर लकड़ी की हथनी खड़ी करें
उसे देख हाथी आता वहाँ
गिरकर फँस जाता गड्ढे में ।
विवेकी पुरुष कभी भी स्त्री को
स्वीकार ना करे भोग्य रूप में कभी
क्योंकि यह स्त्री ही तो
मूर्तिमान मृत्यु है उसकी ।
यदि वह इसे स्वीकार करेगा तो
मारा जाता है हाथी जैसे
हाथी की तरह ही मारा जाएगा
अपने से बलवान पुरुष से ।
मधु निकालने वाले पुरुष से
यह शिक्षा ग्रहण की मैंने
कि धन का संचय करते जो
लोभी पुरुष बड़ी कठिनाई से ।
किन्तु दान ना करे उसमें से
और ना ही उपभोग करे उसका
उसके संचित धन को कोई
पुरुष दूसरा है भीगता ।
जैसे मधु निकालने वाला
संचित मधु निकल ले मधुमखियों का
ऐसे ही गृहस्थ जिस संचित धन से
सुख भोग की रखता अभिलाषा ।
उससे भी पहले भोगते उसे
सन्यासी और ब्रह्मचारी
क्योंकि गृहस्थ पहले अतिथि को देता
वो भोजन करे स्वयं ही ।
मैंने हरिण से ये सीखा कि
वनवासी सन्यासी को कभी
नही सुनने चाहिएँ गीत वो
जो भी हों विषय सम्बन्धी ।
इस बात की शिक्षा ग्रहण की
उस हरिण से, जो व्याघ के
मीठे गीत से मोहित होकर
बंध जाता उसके पाश में ।
ऋषयशृंग मुनि थे जो
हरिनी के गर्भ से पैदा हुए थे
स्त्रियों का गाना नाचना देखकर
हो गए थे उनके वश में ।
मछली से मैंने ये सीखा
कि जैसे वो लोभ में
काँटे में लगे मांस के
प्राण गँवा बैठती अपने ।
वैसे ही दुर्बुद्धि मनुष्य भी
लोभ में अच्छे स्वाद के
जिव्हा के वश में हो जाता है
और मारा जाता है इससे ।
भोजन बंद करके विवेकी पुरुष
दूसरी इंद्रियों पर तो विजय प्राप्त कर लेते
परंतु रसना - इंद्रियाँ उनकी
नही होतीं इससे भी वश में ।
भोजन बंद कर देने से
और भी प्रबल हो जाती हैं वे
जितेंद्रिय ना हो सकता वो तब तक
जब तक रसेंद्रियान नही वश में ।
रसेंद्रियों को जो वश में कर लिया
तब तो मानो सभी इंद्रियाँ वश में
पिंगला वैश्य की एक कथा
अब मैं सुनाता हूँ तुम्हें ।
मिथिला में पिंगला वैश्य रहती थी
स्वेच्छाचारणी और रूपवती वो
घर के दरवाज़े पर खड़ी हुई
एक दिन आधी रात को ।
किसी पुरुष को रमनस्थान par
अपने ले जाने के लिए वो
पुरुष की कामना नही थी
बस धन की कामना उसको ।
इतनी दृढ़मूल हो गयी वो कामना कि
पुरुष जाता कोई भी वहाँ से
वो सोचती कि ये आया mujhe
धन देकर, उपभोग करने के लिए ।
आगे बढ़ जाते जब सब वो
सोचती कोई धनी अब आएगा
जो मेरा उपभोग करेगा और
बहुत सा धन मुझे दे जाएगा ।
चित की दुर्दशा बढ़ती जा रही
दरवाज़े पर टंगी वो बहुत देर तक
नींद भी उसकी जाती रही और
बाहर जाए कभी जाए भीतर ।
ऐसे ही आधी रात बीत गयी
सोचे कि बहुत बुरी आशा ये
उसका चित व्याकुल हो गया
वैराग्य हुआ उसे इस वृति से ।
दुःख बुद्धि हो गयी उसको
वैराग्य का कारण चिंता ही थी
सुख का हेतु होता है
परंतु ऐसा वैराग्य भी ।
गीत गाया वैराग्य में उसने
“ फाँसी पर लटका मनुष्य आशा की
तलवार की तरह इसे काटने वाला
बस केवल है ये वैराग्य ही “ ।
जिसे वैराग्य नही हुआ है
वह शरीर और उसके बंधन से
मुक्त ना होना चाहे जैसे कि
अज्ञानी ममता ना छोड़ना चाहे ।
पिंगला ने ये गीत गाया था
“ हाय ! मैं अधीन हो गयी इंद्रियों के
मेरे मोह का विस्तार तो देखो
मैं इन दुष्ट पुरुषों से ।
जिनका कोई अस्तित्व नही है
विषय सुख की लालसा करती
मूर्ख मैं जो देखा ना हृदय में
विराजमान मेरे सच्चे स्वामी ।
प्रेम सुख और परमार्थ का
सच्चा धन भी देने वाले वो
सब पुरुष अनित्य,, वो नित्य हैं
हाय! मैंने छोड़ दिया उनको ।
इन तुच्छ मनुष्यों का सेवन किया
जो कोई कामना पूरी ना कर सके
दुःख, भय, आदि - व्यादि और
शोक - मोह ही देते हैं वो ।
मेरी मूर्खता ही है ये कि
सेवन करती हूँ मैं उनका
बड़े खेद की बात है मैंने
वैश्य वृति का आश्रय लिया ।
व्यर्थ में अपने शरीर, मन को
क्लेश और पीड़ा पहुँचाई
मेरे शरीर को ख़रीदा मनुष्यों ने
जो हैं लम्पट और लोभी ।
धन और रति सुख हूँ चाहती
मूर्ख मैं इस शरीर से
मुझे धिक्कार कि अत्यंत
निंदनीय आजीविका अपनाई मैंने ।
यह शरीर तो एक घर है
हमारी हड्डियाँ ही टेढ़े तीरछे
बांस और खंभे लगे इसमें
छाया गया चाम, रोएँ, नाखूनों से ।
नौ दरवाज़े हैं इसके
जिनसे मल निकलते रहते
इसमें संचित सम्पत्ति है जो
मल मूत्र ही केवल हैं वे ।
मेरे अतिरिक्त ऐसी कौन स्त्री है
ऐसे शरीर का सेवन करेगी जो
विदेहों की, जीवन मुक्तों की नगरी ये
सबसे मूर्ख और दुष्ट हूँ मैं तो ।
क्योंकि परमात्मा को छोड़कर मैं
अभिलाषा करती दूसरे पुरुषों की
अब मैं अपने आप को देकर
ख़रीद लूँगी अपने प्रभु को ही ।
विहार करूँगी उनके साथ में
जैसे विहार करें लक्ष्मी जी
मेरे मूर्ख चित !और विषय भोगों ने
कितना सुख दिया तुम्हें, बतलाओ तो सही ।
पुरुष जो विषय सुख देने वाले
काल के गाल में पड़े हुए वो
मेरे और मनुष्यों की तो बात ही क्या
इससे ना बच सके देवता भी जो ।
प्रसन्न हुए भगवान हैं मुझपर
अवश्य ही मेरे कुछ शुभ कर्म से
इस प्रकार वैराग्य हुआ है
तभी तो दुराशा में मुझे ।
अवश्य ही वैराग्य ये मेरा
देने वाला होगा सुख मुझको
वैराग्य से ही शांति है मिलती
काटे संसार के बंधनों को ।
मैं ये उपकार भगवान का
सिर झुकाकर स्वीकार करती हूँ
और उन्हीं जगदीश्वर की
शरण अब मैं ग्रहण करती हूँ ।
प्रारब्ध अनुसार जो मिल जाए
उसी से निर्वाह कर लूँगी
और बड़े सन्तोष के साथ तथा
श्रद्धा भाव के साथ रहूँगी ।
अब किसी और पुरुष से नही
प्रभु के साथ विहार करूँ मैं
विषयों में पड़कर जीव ये
दुःख के कुएँ में गिरा हुआ है ।
भगवान को छोड़ कौन समर्थ है
इस की रक्षा करने में
जीव जब विरक्त हो विषयों से
स्वयं ही अपनी रक्षा कर ले ।
अवधूत दत्तात्रेय जी कहते हैं
ऐसा निश्चय कर पिंगला वैश्य ने
धनियों की दुराशा, मिलने की लालसा का
परित्याग कर दिया उसी समय ।।
सचमुच ये आशा ही है
सबसे बड़ा दुःख देती है जो
और जीव का सबसे बड़ा सुख
संसार में निराशा ही तो ।