Er. Pashupati Nath Prasad

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Er. Pashupati Nath Prasad

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गीता काव्यानुवाद, अध्याय 1

गीता काव्यानुवाद, अध्याय 1

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कुरूक्षेत्र के धर्म भूमि में 

युद्ध कामना वाले ,

 मेरे और पांडू पुत्र जो 

दिख रहे मतवाले ,

धृतराष्ट्र बोले - हे ! संजय ,

अपना मुंह तू खोलो ,

जो जो देख रहे हो 

 उसको सत्य सत्य तुम बोलो ।

संजय उवाच -

व्यूह युक्त पांडव सेना को 

 देखा दुर्योधन ,

 द्रोणाचार्य के निकट में जाकर ,

अपना मुंह खोला ,

 मन ही मन में सोच समझकर ,

 सुने हे! राजन ,

 गुरु द्रोण से अति विनम्र हो ,

ये बातें बोला -

सुने धीर आचार्य महान ,

 द्रुपद पुत्र दिखे बुद्धिमान ,

 पांडू सेना में डाला प्राण ,

शिष्य आपका कहे जहान ।

 इस सेना में बहुत सा वीर 

अर्जुन भीम सा दिखता धीर ,

 महारथी द्रुपद विराट ,

 ययुधान लगते सम्राट ।

पुरुजित व काशीराज ,

 धृष्टकेतु व शैव्य सिरताज ,

 कुंतीभोज और चेकितान ,

 दिखे सभी योद्धा महान ।

युधामन्यु ,उतमौजा वीर ,

पुत्र सुभद्रा दिखते धीर ,

द्रोपदी सूत सब हैं बलवान ,

महारथी सब हैं बुद्धिमान ।

 ब्राह्मण श्रेष्ठ सुने आचार्य ,

अपने पक्ष में जो हैं आर्य ,

 सेनापति और प्रधान ,

 उसे सुनाएं सुने श्रीमान ।

अश्वत्थामा और कृपाचार्य ,

कर्ण , विकर्ण और खुद आचार्य ,

 भीष्म पितामह दादा तुल्य ,

 भूरिश्रवा सब शिव त्रिशूल ।

और बहुत से वीर महान ,

अस्त्र-शस्त्र में हैं विद्वान ,

 युद्ध हेतु सब हैं निडर ,

नहीं मृत्यु का तनिक भी डर।

 है मेरी सेना सबल ,

जिसे पितामह देते बल ,

पांडु सेना है निर्बल 

भीम चाहे दे कितना बल।

एक निवेदन है श्रीमान ,

सब मोर्चा का वीर जवान ,

 रखें पितामह का ही ध्यान ,

 इनकी रक्षा जीत सुजान ।

पितामह प्रतापी भीष्म ,

सब में वृद्ध सब तरह समृद्ध ,

शंख बजा किया चिग्घाड़ ,

जैसे सिंह करे दहाड़ ,

हर्ष हुआ दुर्योधन वीर ,

पांडू सेना हुई अधीर ।

शंख मृदंग और ढोल नगाड़े ,

नरसिंघें बाजे अब बाजा ,

शव्द भयंकर हुआ समर में ,

हे ! राजन यह हाल है ताजा ।

शुभ्र अश्व युक्त उत्तम रथ में ,

अर्जुन कृष्ण ने यह सब देखा ,

 अपना अपना शंख बजाकर ,

 क्या प्रभाव हुआ यह पेखा ।

पांचजन्य श्री कृष्ण बजाया ,

शंख देवदत्त अर्जुन धीर ,

पांडू महाशंख को लेकर 

फूंका भीमसेन गंभीर ।

अनंतविजय राजा युधिष्ठिर ,

सुघोष फूंक दिया नकुल ,

मणिपुष्पक सहदेव बजाया ,

 हुआ दुर्योधन सुन आकुल ।

काशीराज, शिखंडी आदि ,

 धुष्टधुम्र , विराट इत्यादि ,

अभिमन्यु , सात्यकि , द्रुपद अब ,

 पांच पुत्र द्रोपदी मिलकर सब ,

 अपना-अपना शंख बजाए ,

 घोर ध्वनि चहु ओर छितराए ।

 नभ , पृथ्वी और दसों दिशाएं 

शब्द भयंकर से हैं छाए ,

 दुर्योधन ,दुशासन आदि ,

सैन्य सभी आदि इत्यादि ,

आकुल व्याकुल दिखता मुझको ,

 ताजा हाल सुनाया तुझको ।

कपिध्वज रथ पर अर्जुन ने 

भली-भांति सेना को देखा ,

 चारों दिशाएं सब संबंधी 

धनुष उठा कर फिर वह पेखा ,

 दोनों सेनाओं के बीच में 

खड़ा करें रथ को श्रीमान ,

 विनय भाव से श्री कृष्ण से 

 बोला अर्जुन वीर महान ।

किन-किन के संग युद्ध है करना 

 भली-भांति देख लूं न जब तक ,

 नम्र निवेदन करता माधव

 कृपा कर रखें रथ तब तक ।

दुर्बुद्धि दुर्योधन का जयघोष मनाने 

जो जो नृप लोग हैं आए , 

आवश्यक अवलोकन उनका

 माधव से अर्जुन बतलाए।

 संजय उवाच -

भीष्म , द्रोण संपूर्ण राजाओं

 के समक्ष रथ को है लाकर ,

 उत्तम रथ को खड़ा किया है ,

दोनों सेनाओं बीच आकर ,

अर्जुन से बोला भगवान ,

भली भांति परखो सुजान ।

 ताऊ, चाचा , भ्रताओं को ,

 दादा , परदादाओं को ,

गुरुओं को , मित्रों को परखो ,

पुत्रों को , मामाओं को ,

पात्रों को ,ससुरों को परखो ,

 सुहृदयों का हृदय निरखो ।

इन सज्जनों को निरख के अर्जुन ,

 आकुल व्याकुल होकर बोला ,

 शोक संतप्त हृदय युक्त अर्जुन

 केशव से अपना मुंह खोला -

 सुने कृष्ण रूपी भगवान ,

 इन स्वजनों को देख श्रीमान ,

 मेरे अंदर का वर्तमान ,

 तन मन मस्तक प्रधान ।

धधक रहा अग्नि में तात ,

 सूख रहा मुख देखें आप ,

शिथिलता छा रही है धीर ,

कांप रहा है पूर्ण शरीर ।

गिर रहा गांडीव हाथ से ,

धधक रही त्वचा में आग ,

नहीं खड़ा रहने की शक्ति ,

मन में भ्रम और विराग ।

 उल्टा लक्षण देख रहा हूं ,

 नहीं दिखता है कल्याण ,

 स्वजन मारकर क्या पाऊंगा,

 बोला अर्जुन वीर महान ।

नहीं विजय की चाहत मेरी ,

 नहीं सूख और ऐसा राज ,

नहीं भोग और जीवन ऐसा ,

 लेकर क्या होगा सिरताज ।

 सुख भोग और यह राज ,

जिनके लिए अभीष्ट है धीर ,

 धन जीवन कर त्याग युद्ध में 

लड़ने को उद्यत सुधीर ।

 गुरु , पिता और पुत्र ,पितामह ,

पौत्र , ससुर ,मामा व साला ,

 भिन्न-भिन्न संबंधी देखके

 उठ रही है मन में ज्वाला ।

इस धरती की है क्या विसात ,

आ जाए अगर त्रिलोक हाथ ,

 इनका बध तब भी उचित नहीं ,

मेरा मंतव्य सुने श्रीनाथ ।

धृतराष्ट्र के इन पुत्रों को ,

मार केशव क्या पाएंगे ,

इन दुष्टों को मार युद्ध में ,

नरहंता कहलाएंगे ।

योग्य नहीं पता हूं खुद को

 धृतराष्ट्र के पुत्र वध को ,

 अपने कुटुंब मारकर माधव

 नहीं चाहता हूं मैं सुख को।

भ्रष्ट चित्त लोभी कुलनाशक ,

 मित्र द्रोही हैं ये पापी जन ,

 इनसे बचने हेतु माधव ,

क्यों न विचारे हम साधु जन ।

 कुल नाश से कुल धर्म ही 

नष्ट हो जाता ,

कुल धर्म ना रहा कुल में 

 पाप फैलाता ।

 

पाप बढ़ा कुल की त्रिया 

दूषित हो जाती है ,

दूषित त्रिया ही वर्णसंकर

 को जन्माती ।

वर्णसंकर कुल घात करें 

और नरक ले जाए,

 इनके कर्म धर्म से 

पूर्वज ही गिर जाए ।

वर्णसंकर कारक दोष हैं

ये कहलाते ,

ऐसे पापों के कारण से

 पापी आते ,

 कुल धर्म और जाति धर्म

 और धर्म सनातन नष्ट हो जाते ।

कुल धर्म नष्ट है जिनका ,

नर्क वास होता है उनका ,

बहुत काल तक कष्ट हैं करते ,

 यहां अनिश्चित सा बन रहते ।

सब कहते मुझको विद्वान ,

 कर रहा हूं पाप महान ,

 राज्य सुख के लोभ में रत हूं ,

 स्वजन वध हेतु उद्यत हूं ।

शस्त्रधारी धृतराष्ट्र पुत्र प्रभु !

 मार डाले यदि मुझको रण में ,

 तोभी मंगलमय मैं मानू ,

 तनिक भय नहीं मेरे मन में।

संजय उवाच -

ऐसा कहके धनुष बाण छोड़ 

शोक युक्त मतवाला ,

पार्श्व भाग में रथ के अंदर 

जा बैठा बलवाला।


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