श्रीमद्भागवत - १८७; ऋचीक, जमदग्नि और परशुराम का चरित्र
श्रीमद्भागवत - १८७; ऋचीक, जमदग्नि और परशुराम का चरित्र
श्रीशुकदेव जी कहें, पुरुरवा के
उर्वशी से छ पुत्र हुए
आयु, श्रुतायु, सतयायु
रय, विजय और जय नाम के।
श्रुतायु का पुत्र वसुमान हुआ
श्रुतंजय हुआ सत्यायु का
रय का एक, और जय का अमित
विजय का भीम, भीम का कांचन हुआ।
कांचन का पुत्र होत्र और
होत्र के पुत्र जह्नु थे
जह्नु वही थे जो गंगा जी को
अंजलि में लेकर पी गए थे।
जह्वु का पुत्र पुरु हुआ
पुरु का बलाक, बलाक के अजक थे
अजक का पुत्र कुश था
और कुश के चार पुत्र थे।
कुशाम्भु, तनय, वसु और कुशनाभ
उनमें से कुशाम्भु के गाधि हुए
हे परीक्षित, कन्या सत्यवती
हुई थी गाधि की पत्नी से।
एक बार ऋचीक ऋषि ने
गाधि से उनकी कन्या मांग ली
पर गाधि ने ये समझकर कि
वे कन्या के योग्य नहीं।
ऋचीक ऋषि से कहा उन्होंने
मुनिवर, हम लोग कुशिक वंश के
हमारी कन्या मिलनी कठिन है
एक शर्त रखते हैं इसलिए।
एक हजार घोड़े लाकर दो
आप मुझे इसके शुल्करूप में
शरीर तो श्वेत हो जिनका
परन्तु एक कान श्याम वर्ण हो।
जब गाधि ने ऐसा कहा तो
ऋचीक उनका आशय समझ गए
वैसे ही घोड़े ले आये
वरुण के पास जाकर वे।
सत्यवती से विवाह हो गया ऋषि का
तो एक बार महर्षि ऋचीक से
पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थना की
उनकी पत्नी और उनकी सास ने।
प्रार्थना स्वीकार कर ली मुनि ने
अलग अलग मन्त्रों से उन्होंने
दोनों के लिए चरु पकाये
फिर स्नान करने के लिए चले गए।
सत्यवती की माँ ने ये समझकर कि
ऋषि ने अपनी पत्नी के लिए
श्रेष्ट चरु पकाये होंगे इसलिए
उससे वो मांग लिए उन्होंने।
सत्यवती ने अपना चरु
अपनी माता को दे दिया
और जो माँ का चरु था
वो उसने स्वयं खा लिया।
ऋचीक ऋषि को जब ये पता चला
तो उन्होंने सरस्वती से ये कहा
तुमने ये क्या अनर्थ कर दिया
ये नहीं करना चाहिए था।
अब तुम्हारा पुत्र घोर प्रकृति का
दंड देने वाला होगा लोगों को
और एक श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता
वो तुम्हारा भाई होगा जो।
सत्यवती ने मुनि को प्रसन्न किया
और प्रार्थना की मुनि से
स्वामी, ऐसा नहीं होना चाहिए
तब कहा था ये ऋचीक मुनि ने।
अच्छी बात है, पुत्र के बदले
घोर प्रकृति का हो पौत्र तुम्हारा
समय पर फिर सत्यवती के गर्भ से
जमदग्नि मुनि का जन्म हुआ।
सब लोगों को पवित्र जो करे
कौशकी नदी बन गयी सत्यवती
जमदग्नि की पत्नी बनी रेणुका
पुत्री वे रेणु ऋषि की।
रेणुका के गर्भ से फिर
वसुमान आदि कई पुत्र हुए
परशुराम भी उनके पुत्र थे
वे उनमें सबसे छोटे थे।
हैहयवंश का अंत करने को
कहते हैं कि भगवान् ने
परशुराम का अवतार ग्रहण किया
हरि के अंशावतार थे वे।
इक्कीस बार क्षत्रिहीन किया था
इस पृथ्वी को उन्होंने
यद्यपि अपराध थोड़ा सा ही
किया था उनका क्षत्रिओं ने।
फिर भी क्योंकि क्षत्रिय बड़े दुष्ट और
ब्राह्मणों के अभक्त हो रहे
और वो रजोगुणी और
विशेषकर तमोगुणी हो रहे थे।
इसी कारण से वो क्षत्रिय सब
पृथ्वी पर थे भार हो गए
पृथ्वी का भार उतर दिया था
इसीलिए ही परशुराम ने।
राजा परीक्षित ने पूछा, उस समय
क्षत्रिय तो विलुप्त हो गए होंगे
परन्तु ऐसा क्या अपराध किया था
जो बार बार उनका संहार किया उन्होंने।
श्री शुकदेवजी कहें, परीक्षित
हैहयवंश का अधिपति अर्जुन था
सेवा सुश्रुषा से उसने उस समय
दत्तात्रेय जी को प्रसन्न किया था।
उनसे हजार भुजाएं मांग लीं
और वरदान प्राप्त किया उन्होंने
कि कोई भी राजा युद्ध में
उन्हें पराजित कर न सके।
साथ में इंद्र का अबाध बल
अतुल संपत्ति, तेजस्विता
कीर्ति और शरीरिक बल भी
उनकी कृपा से प्राप्त कर लिया।
योगेश्वर वो हो गया था
और ऐसा ऐश्वर्य था उसका
कि सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप या
स्थूल से स्थूल रूप धारण कर लेता।
सभी सिद्धिआं उसने प्राप्त कीं
संसार में वो वायु जैसे विचरता
एक बार सहस्रबाहु अर्जुन
स्त्रिओं संग नदी में विहार कर रहा।
मदोन्मत सहस्रबाहु ने उस समय
नदी का वहाव रोक दिया बाहों से
दशमुख रावण का शिविर भी
था वहीँ कहीं पास में।
उलटी बहने लगी धारा नदी की
रावण का शिविर डूबने लगा उसमें
बड़ा वीर माने रावण अपने को
बात सहन न हुई उसे ये।
सहस्रबाहु के पास जाकर तब
वो बुरा भला कहने लगा उसे
तब सहस्रबाहु ने पकड़ लिया
स्त्रिओं के सामने ही उसे खेल खेल में।
राजधानी महिष्मति ले आया
बंदर समान कैद किया रावण को
पुल्सत्य जी के कहने पर ही फिर
छोड़ा था उन्होंने उसको।
एक दिन सहस्रबाहु अर्जुन
शिकार खेलने जंगल में गए
दैववश जमदग्नि मुनि के
आश्रम में पहुँच गए वे।
कामधेनु रहती थी आश्रम में
जमदग्नि मुनि के पास में
खूब सत्कार किया सेना का
उसके प्रताप से राजा का मुनि ने।
वीर हैहयाधिपति ने देखा
ऐश्वर्य जमदग्नि मुनि का
उनसे भी बढ़ा चढ़ा है इसलिए
कामधेनु को ले जाना चाहा।
कुछ भी आदर न देकर
स्वागत सत्कार को मुनि के
अभिमानवश मुनि से माँगा भी नहीं
और कहा अपनी सेना से।
छीन ले चलो कामधेनु को
सेवकों को आज्ञा दी उन्होंने
बछड़े के साथ कामधेनु को
बलपूर्वक महिष्मतिपुरी ले गए।
उन सब के चले जाने पर
परशुराम आश्रम पर आये
वृतांत सुन दुष्टता का राजा की
क्रोध से तिलमिला उठे वे।
अपना फरसा, तरकस, ढाल और
धनुष ले उनके पीछे दौड़े
नगर में थे प्रवेश कर रहे
सहस्रबाहु अर्जुन तब अपने।
देखा उसने कि परशुराम जी
वेग से उनकी और आ रहे
हाथ में उनके धनुषवाण और
फरसा लिए हुए थे हाथ में।
कला मृगचर्म धारण किये हुए
और जटाएं सूर्य सी थी दमकतीं
देख ये कि उनकी और आ रहे
राजा ने सेना तब भेजी अपनी।
बात बात में ही परशुराम जी
काटते जा रहे सारी सेना वे
सेना को नष्ट कर दिया अकेले ही
सहस्रबाहु ने जब देखा ये।
देखा कि सैनिक जो रणभूमि में
खून से लथपथ हो रहे
बहुत क्रोध आ गया था उन्हें
स्वयं आ गए फिर लड़ने के लिए।
परशुराम जी पर वाण छोड़े थे
एक साथ हजारों भुजाओं से
काट दिया था सबके सब
उन वाणों को परशुराम ने।
पहाड़ और पेड़ उखाड कर
परशुराम पर लपके वो
अपने फरसे से काट डाला था
परशुराम ने उनकी भुजाओं को।
पहाड़ समान फिर उसका सिर
अलग कर दिया था धड़ से
पिता के मर जाने पर भाग गए
दस हजार लड़के जो उसके।
लोटा लाये थे परशुराम जी
कामधेनु को बछड़े के साथ में
बहुत ही दुखी हो रही थी
सौंप दिया उसे पिता को अपने।
पिता और भाईओं को अपने
सब वृतांत सुनाया था ये
सुनकर जमदग्नि थे बोले
बेटा, अपराध किया है तुमने।
बड़े वीर तुम हो परन्तु
सर्वदेवमय नरदेव का तुमने
व्यर्थ ही वध किया है
ये न करना चाहिए था तुम्हे।
बेटा, हम लोग ब्राह्मण हैं
क्षमा के प्रभाव से ही
संसार में हम पूजनीय हुए
शोभा हमारी क्षमा के द्वारा ही।
सार्वभोमा राजा का वध
बढ़कर है ब्राह्मण के वध से
जाओ, तीर्थों का सेवन करके
पाप धो डालो प्रभु के स्मरण से।