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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -२८२. भगवान के द्वारा वासुदेव जी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश तथा देवकी जी के छ पुत्रों को लौटा लाना

श्रीमद्भागवत -२८२. भगवान के द्वारा वासुदेव जी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश तथा देवकी जी के छ पुत्रों को लौटा लाना

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श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

कृष्ण बलराम एक दिन गए थे

प्रातक़ालीन प्रणाम करने के लिए

वासुदेव, देवकी के पास में ।


वासुदेव, भगवान की महिमा सुन चुके थे

बड़े बड़े ऋषियों के मुँह से

उनके ऐश्वर्यपूर्ण चरित्र भी

अपनी आँखों से देखे थे उन्होंने ।


दृढ़ विश्वास उन्हें हो गया था

कि स्वयं भगवान हैं ये तो

प्रेमपूर्वक सम्बोधन करके कहा

उन्होंने अपने पुत्रों को ।


“ सचिदानंदन स्वरूप श्री कृष्ण

और महायोगेश्वर संकर्षण

सारे जगत के स्वामी तुम दोनो

इसका तुम ही कर रहे हो पोषण ।


वायु, दिशाएँ, बुद्धि की शक्ति

सब पदार्थ स्वरूप तुम्हारे

अज्ञानी जो स्वरूप ना जानें आपका

कर्मों के फेर में फँसे हैं रहते ।


जन्म मृत्यु के चक़्र में भटकते

और प्रारब्ध के अनुसार मुझे भी

दूर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ

पर मेरी आयु भी यूँ ही बीत गयी ।


जानता मैं कि तुम लोग मेरे

पुत्र नही, स्वामी हो प्रकृति के

इसीलिए शरणागत बनकर

आया हूँ मैं तुम्हारी शरण में ।


तुम्हारी योग़माया का रहस्य

जान सकता नही जीव कोई

सब लोग करते रहते हैं

गाण तुम्हारी कीर्ति का ही “ ।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

वचन सुनकर वासुदेव जी के

श्री कृष्ण मुस्कुराने लगे और

मधुर वाणी में कहा फिर उनसे ।


“ पिता जी, हम पुत्र हैं आपके

और ब्रह्मज्ञान के इस उपदेश से

हम दोनों, आप और सभी लोगों को

ब्रह्मरूप ही समझना चाहिए ।


आत्मा तो बस एक ही है

वो अपने में गुणों की सृष्टि कर लेता

एक होने पर भी अनेक वो

स्वयंप्रकाश है पर दृश्य लगता ।


अपना स्वरूप होने पर भी

भिन्न लगता अपने से वो

नित्य होने पर भी अनित्य प्रतीत हो

निर्गुण होने पर भी सगुण वो “ ।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

श्री कृष्ण के इन वचनों को

सुनकर वासुदेव बहुत ही

आनंद में मगन हो गए वो ।


देवकी जी बैठी हुई वहाँ

बहुत विस्मित हो गयीं सुनकर ये

कि मरे गुरु पुत्र को यमलोक से

कृष्ण बलराम वापिस ले आए थे ।


याद आ गयी उन पुत्रों की

कंस ने जिनको मार दिया था

नेत्रों से अश्रूधारा बहने लगी

चित आतुर हो गया उनका ।


कृष्ण, बलराम को सम्बोधित कर कहा

“ अनन्त है शक्ति तुम्हारी

योगेश्वरों के भी ईश्वर तुम

नारायण तुम मैं हूँ जानती ।


तुम्हारे गुरु सांदीपणि जी का

पुत्र मर गया था जो उसको

यमपुरी से वापिस लाए तुम

गुरुदक्षिणा में दे दिया उनको ।


मेरी भी अभिलाषा है ये

कि कंस ने मार दिया था जिनको

मेरे पुत्रों को वापिस ले आओ

आँखों से देखना चाहती उनको “ ।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

ऐसी अभिलाषा सुनकर माता की

योग़माया से प्रवेश किया फिर

सुतल लोक में दोनों ने ही ।


दैत्यराज बलि ने देखा कि

कृष्ण और बलराम पधारे

तब उनके दिव्य दर्शन से

आनंद में मगन हो गए वे ।


प्रभु के पाँव पखारे, पूजा की

भगवान की स्तुति करने लगे

कहें वे “ कृपा कीजिए कि हमारी

चित्वृति चरणकमलों में लगी रहे “।


श्री कृष्ण कहें “ हे दैत्यराज

मरीचि की पत्नी उर्णा के गर्भ से

छ पुत्र उत्पन्न हुए थे

सभी के सभी देवता थे वे ।


यह देखकर कि ब्रह्मा जी उद्यत

समागम करने को अपनी पुत्री से

वो सबके सब हंसने लगे थे 

तब शाप दिया उनको ब्रह्मा ने ।


और वे असुर योनि में उत्पन्न हुए

हिरण्याकशिपु के पुत्र रूप में

योग़माया ने वहाँ से ले जाकर

रख दिया उन्हें देवकी के गर्भ में ।


और उनके उत्पन्न होते ही

मार डाला था कंस ने उनको

तुम्हारे पास देवकी के वो पुत्र

उनके लिए शोकातुर हो रहीं वो ।


अतः हम अपनी माता का

शोक दूर करने के लिए

आए हैं ले जाने के लिए

उन सब को तुम्हारे पास से ।


इसके बाद वे शाप मुक्त हो

चले जाएँगे अपने लोक में

स्मर, उदगीथ, परिणवंग, पतंग 

क्षदर्भूत, घृणी नाम थे उनके ।


पुनः सदगती प्राप्त होगी फिर 

उन सब को मेरी कृपा से “

परीक्षित, बस इतना कहकर ही

भगवान कृष्ण तब चुप हो गए ।


दैत्यराज बलि ने बालकों को

सौंप दिया कृष्ण बलराम को

द्वारका ले आए उन सबको

सौंप दिया उन्हें अपनी माता को ।


उन छ बालकों को देखकर

आँखों में आंसू आए माता के

छाती से उनको लगा लिया

रोने लगीं वात्सल्य स्नेह में ।


विष्णु भगवान की सब माया

वो मोहित हो रहीं थी जिससे

यह सृष्टि चक्र चलता रहे

इसका कोई पार ना पा सके ।


उन बालकों ने देवकी का

अमृतमयदूध था पिया

उससे और भगवान के स्पर्शमात्र से

उन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया ।


इसके बाद उन लोगों ने

कृष्ण, बलराम, देवकी और वासुदेव को

नमस्कार किया था और फिर

देवलोक में चले गए वो ।


देवकी माता यह देखकर

अत्यंत ही विस्मित हो गयीं

कि मेरे पुत्र लौटे और फिर चले गए 

यह सब कृष्ण की लीला थी ।



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