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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -३११; सांख्य योग

श्रीमद्भागवत -३११; सांख्य योग

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भगवान कृष्ण कहें, हे उद्धव

सांख्य शास्त्र सुनाऊँगा अब तुम्हें

प्राचीन काल में इसका निश्चय किया

बड़े बड़े ऋषि मुनियों ने ।


भलीभाँति समझकर जीव इसे

सुख दुखादि रूप भ्रम का

तत्काल न्यास कर देता है

मुझे प्राप्त वो कर लेता ।


युगों से पूर्व प्रलयाकाल में

आदिसत्ययुग में और जब मनुष्य सभी

विवेकनिपुण और भेदभाव रहित हों 

तब होते हैं केवल ब्रह्म ही ।


किसी प्रकार का विकल्प ना ब्रह्म में

केवल आदित्य सत्य है वह तो

मन और वाणी की गति ना उसमें

विभक्त हुआ माया,जीव के रूप में  वो ।


उनमें से एक को प्रकृति कहते हैं

कारण, कार्य का रूप धारण किया उसने

दूसरी वस्तु जी ज्ञानस्वरूप है

पुरुष हम कहते हैं उसे ।


उद्धव जी, मैंने ही जीवों के

शुभ और अशुभ कार्यों के

अनुसार प्रकृति का क्षुब्ध किया

तब उसमें तीन गुण प्रकट हुए ।


सत्व, रज और तम ये तीनों

क्रियाशक्ति प्रधान सूत्र उनसे

और ज्ञानशक्ति प्रधान  महत्त्त्व

उनसे ही प्रकट हुए थे ।


मिले हुए ही हैं ये दोनों परस्पर

महत्त्त्व में विलय होने पर ही

अहंकार प्रकट हुआ तब

जीवों को मोह में डालने वाला यही ।


सात्विक, राजस और तामस्

यह भी तीन प्रकार का

अहंकार ही कारण है

पंचतन्मात्रा, इंद्रियाँ और मन का ।


जड़ चेतन अभ्यात्मक है इसीसे

और तामस अहंकार से

उत्पत्ति हुई पंचतन्मात्रा और

पाँच भूतों की उनके ।


राजस अहंकार से इंद्रियों की उत्पत्ति हुई

और जो अधिष्ठाता देवता इंद्रियों के

वो प्रकट हुए सात्विक अहंकार से

ग्यारह इंद्रियों के ग्यारह देवता वे ।


पाँच ज्ञानेंद्रियां, पाँच कर्मेन्द्रियाँ

और मन ग्यारह इंद्रियाँ ये

ये सभी पदार्थ एकत्रित हो

परस्पर मिल गये मेरी प्रेरणा से ।


ब्रह्मांडरूप अण्ड उत्पन्न किया इन्होंने

निवस्थान है मेरा अण्ड ये

जब यह अण्ड जल में स्थित हुआ

विराजमान हो गया मैं उसमें ।


नारायणरूप में मैं वहाँ था

विश्वकमल उत्पन्न हुआ मेरी नाभि से

आविर्भाव हुआ ब्रह्म का उसी पर

बड़ी तपस्या की थी ब्रह्म ने ।


फिर मेरा कृपाप्रसाद प्राप्त कर

लोक, लोकपालों की रचना की

भूः, भूवः, स्व् अर्थात् पृथ्वी, अंतरिक्ष, स्वर्ग

ये तीनों की रजोगुण के द्वारा ही ।


स्वर्ग में निवास करें देवता

भूत प्रेतादि भुवर्लोक में

और भूलोक पृथ्वी जो है

वो मनुष्य आदि के लिए ।


इन तीनों लोकों के ऊपर

महर्तलोक, तपलोक, सिद्धों के स्थान हुए

और सृष्टिकार्य में समर्थ ब्रह्म ने

पृथ्वी के नीचे जो स्थान बनाये ।


अतल, वित्ल, सुतल आदि सात पाताल ये

असुरों और नागों के लिए ये

त्रिगुणात्मक कर्मों के अनुसार ही

प्राप्त हों गतियाँ तीनों लोकों में ।


योग, तपस्या, संन्यास के द्वारा

महर्तलोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक मिलें

ये सब उत्तम गतियाँ मिलें तथा

मेरा परम्धाम मिले भक्तियोग से ।


कर्म और उसके संस्कारों से

युक्त है सारा जगत् ये

कर्मों के अनुसार फल का विधान करूँ

मैं ही काल रूप में उनके ।


इस गुणप्रवाह में पड़कर

जीव डूबता, ऊपर आता कभी

कभी अधोगति होती उसकी

पुण्यवश प्राप्त हो उच्चगति कभी ।


जगत में छोटे बड़े, मोटे पतले

जितने भी पदार्थ हैं बनते

सब सिद्ध होते संयोग से

प्रकृति और पुरुष दोनों के ।


जिसके आदि और अंत में जो है

वही अगर बीच में उसके

तो ही वह सत्य है

असत्य अगर वो नहीं बीच में ।


विकार तो केवल कल्पनामात्र है

जैसे कंगन विकार सोने के

और घड़े आदि बर्तन जो

मिट्टी के विकार हैं सब ये ।


सोना, मिट्टी ही ये थे पहले

यही रहेंगे बाद में भी

अतः यही सत्य है कि वे

सोना या मिट्टी बीच में भी ।


इस कारण का उपादान कारण

प्रकृति है, अधिष्ठान परमात्मा

और जो बलवान काल है

इसको प्रकट वो करने वाला ।


यह काल ब्रह्मस्वरूप है

शुद्ध ब्रह्म हूँ मैं वही

अपना काम करती रहती है

जब तक परमात्मा की इक्ष्णशक्ति ।


और जब तक उसकी पालन प्रकृति बनी रहे

सृष्टि चक्र है चलता रहता

यह विराट ही लीला भूमि है

लोकों की सृष्टि, स्थिति, संहार का ।


कालरूप में व्याप्त हो इसमें

प्रलय का संकल्प करता हूँ जब मैं

तब यह भुवनों के साथ में

विनाश के योग्य हो जाता है ।


उसमें लीन होने की प्रक्रिया

यह कि प्राणियों का शरीर अन्न में

अन्न बीज में, बीज भूमि में

भूमि लीन हो गन्ध तन्मात्रा में ।


गन्ध जल में, जल रस में

रस तेज में और तेज रूप में

रूप वायु में लीन हो जाता

और वायु लीन हो स्पर्श में ।


स्पर्श आकाश में लीन हो

आकाश लीन हो शब्दतन्मात्रा में

इंद्रियाँ अपने कारण देवताओं में और

अन्ततःसमाता राजस अहंकार में ।


राजस अहंकार अपने नियंता

सात्विक अहंकाररूप मन में लीन हो

शब्दमात्रा पंचभूतों के कारण

तामस अहंकार में लीन हो ।


सारे जगत को जो मोहित करे

त्रिविध अहंकार लीन हो महतत्व में

गुण अन्यंत्र प्रकृति में और

प्रकृति लीन हो जाती काल में ।


काल मयामय जीव में और

जीव मुझ आत्मा में लीन हो जाता

आत्मा किसी में भी ना लीन हो

अपने स्वरूप में ही स्थित रहता ।


जगत की सृष्टि और लय का

अधिष्ठाता एवं अवधि  है वो तो

यह प्रपंच का भ्रम नहीं रहता चित में

जो विवेकदृष्टि से देखे इसको ।


यदि कदाचित् उसकी सफूर्ति हो भी जाए

अधिक काल तक ठहर नहीं सकती

उद्धव जी मैं कर्म और कारण

दोनों का ही हूँ साक्षी ।


सृष्टि से प्रलय और प्रलय से सृष्टितक

सांख्य विधि बतलायी तुम्हें मैंने

पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो

संदेह की गाँठ कट जाती इससे ।


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