श्रीमद्भागवत -३११; सांख्य योग
श्रीमद्भागवत -३११; सांख्य योग
भगवान कृष्ण कहें, हे उद्धव
सांख्य शास्त्र सुनाऊँगा अब तुम्हें
प्राचीन काल में इसका निश्चय किया
बड़े बड़े ऋषि मुनियों ने ।
भलीभाँति समझकर जीव इसे
सुख दुखादि रूप भ्रम का
तत्काल न्यास कर देता है
मुझे प्राप्त वो कर लेता ।
युगों से पूर्व प्रलयाकाल में
आदिसत्ययुग में और जब मनुष्य सभी
विवेकनिपुण और भेदभाव रहित हों
तब होते हैं केवल ब्रह्म ही ।
किसी प्रकार का विकल्प ना ब्रह्म में
केवल आदित्य सत्य है वह तो
मन और वाणी की गति ना उसमें
विभक्त हुआ माया,जीव के रूप में वो ।
उनमें से एक को प्रकृति कहते हैं
कारण, कार्य का रूप धारण किया उसने
दूसरी वस्तु जी ज्ञानस्वरूप है
पुरुष हम कहते हैं उसे ।
उद्धव जी, मैंने ही जीवों के
शुभ और अशुभ कार्यों के
अनुसार प्रकृति का क्षुब्ध किया
तब उसमें तीन गुण प्रकट हुए ।
सत्व, रज और तम ये तीनों
क्रियाशक्ति प्रधान सूत्र उनसे
और ज्ञानशक्ति प्रधान महत्त्त्व
उनसे ही प्रकट हुए थे ।
मिले हुए ही हैं ये दोनों परस्पर
महत्त्त्व में विलय होने पर ही
अहंकार प्रकट हुआ तब
जीवों को मोह में डालने वाला यही ।
सात्विक, राजस और तामस्
यह भी तीन प्रकार का
अहंकार ही कारण है
पंचतन्मात्रा, इंद्रियाँ और मन का ।
जड़ चेतन अभ्यात्मक है इसीसे
और तामस अहंकार से
उत्पत्ति हुई पंचतन्मात्रा और
पाँच भूतों की उनके ।
राजस अहंकार से इंद्रियों की उत्पत्ति हुई
और जो अधिष्ठाता देवता इंद्रियों के
वो प्रकट हुए सात्विक अहंकार से
ग्यारह इंद्रियों के ग्यारह देवता वे ।
पाँच ज्ञानेंद्रियां, पाँच कर्मेन्द्रियाँ
और मन ग्यारह इंद्रियाँ ये
ये सभी पदार्थ एकत्रित हो
परस्पर मिल गये मेरी प्रेरणा से ।
ब्रह्मांडरूप अण्ड उत्पन्न किया इन्होंने
निवस्थान है मेरा अण्ड ये
जब यह अण्ड जल में स्थित हुआ
विराजमान हो गया मैं उसमें ।
नारायणरूप में मैं वहाँ था
विश्वकमल उत्पन्न हुआ मेरी नाभि से
आविर्भाव हुआ ब्रह्म का उसी पर
बड़ी तपस्या की थी ब्रह्म ने ।
फिर मेरा कृपाप्रसाद प्राप्त कर
लोक, लोकपालों की रचना की
भूः, भूवः, स्व् अर्थात् पृथ्वी, अंतरिक्ष, स्वर्ग
ये तीनों की रजोगुण के द्वारा ही ।
स्वर्ग में निवास करें देवता
भूत प्रेतादि भुवर्लोक में
और भूलोक पृथ्वी जो है
वो मनुष्य आदि के लिए ।
इन तीनों लोकों के ऊपर
महर्तलोक, तपलोक, सिद्धों के स्थान हुए
और सृष्टिकार्य में समर्थ ब्रह्म ने
पृथ्वी के नीचे जो स्थान बनाये ।
अतल, वित्ल, सुतल आदि सात पाताल ये
असुरों और नागों के लिए ये
त्रिगुणात्मक कर्मों के अनुसार ही
प्राप्त हों गतियाँ तीनों लोकों में ।
योग, तपस्या, संन्यास के द्वारा
महर्तलोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक मिलें
ये सब उत्तम गतियाँ मिलें तथा
मेरा परम्धाम मिले भक्तियोग से ।
कर्म और उसके संस्कारों से
युक्त है सारा जगत् ये
कर्मों के अनुसार फल का विधान करूँ
मैं ही काल रूप में उनके ।
इस गुणप्रवाह में पड़कर
जीव डूबता, ऊपर आता कभी
कभी अधोगति होती उसकी
पुण्यवश प्राप्त हो उच्चगति कभी ।
जगत में छोटे बड़े, मोटे पतले
जितने भी पदार्थ हैं बनते
सब सिद्ध होते संयोग से
प्रकृति और पुरुष दोनों के ।
जिसके आदि और अंत में जो है
वही अगर बीच में उसके
तो ही वह सत्य है
असत्य अगर वो नहीं बीच में ।
विकार तो केवल कल्पनामात्र है
जैसे कंगन विकार सोने के
और घड़े आदि बर्तन जो
मिट्टी के विकार हैं सब ये ।
सोना, मिट्टी ही ये थे पहले
यही रहेंगे बाद में भी
अतः यही सत्य है कि वे
सोना या मिट्टी बीच में भी ।
इस कारण का उपादान कारण
प्रकृति है, अधिष्ठान परमात्मा
और जो बलवान काल है
इसको प्रकट वो करने वाला ।
यह काल ब्रह्मस्वरूप है
शुद्ध ब्रह्म हूँ मैं वही
अपना काम करती रहती है
जब तक परमात्मा की इक्ष्णशक्ति ।
और जब तक उसकी पालन प्रकृति बनी रहे
सृष्टि चक्र है चलता रहता
यह विराट ही लीला भूमि है
लोकों की सृष्टि, स्थिति, संहार का ।
कालरूप में व्याप्त हो इसमें
प्रलय का संकल्प करता हूँ जब मैं
तब यह भुवनों के साथ में
विनाश के योग्य हो जाता है ।
उसमें लीन होने की प्रक्रिया
यह कि प्राणियों का शरीर अन्न में
अन्न बीज में, बीज भूमि में
भूमि लीन हो गन्ध तन्मात्रा में ।
गन्ध जल में, जल रस में
रस तेज में और तेज रूप में
रूप वायु में लीन हो जाता
और वायु लीन हो स्पर्श में ।
स्पर्श आकाश में लीन हो
आकाश लीन हो शब्दतन्मात्रा में
इंद्रियाँ अपने कारण देवताओं में और
अन्ततःसमाता राजस अहंकार में ।
राजस अहंकार अपने नियंता
सात्विक अहंकाररूप मन में लीन हो
शब्दमात्रा पंचभूतों के कारण
तामस अहंकार में लीन हो ।
सारे जगत को जो मोहित करे
त्रिविध अहंकार लीन हो महतत्व में
गुण अन्यंत्र प्रकृति में और
प्रकृति लीन हो जाती काल में ।
काल मयामय जीव में और
जीव मुझ आत्मा में लीन हो जाता
आत्मा किसी में भी ना लीन हो
अपने स्वरूप में ही स्थित रहता ।
जगत की सृष्टि और लय का
अधिष्ठाता एवं अवधि है वो तो
यह प्रपंच का भ्रम नहीं रहता चित में
जो विवेकदृष्टि से देखे इसको ।
यदि कदाचित् उसकी सफूर्ति हो भी जाए
अधिक काल तक ठहर नहीं सकती
उद्धव जी मैं कर्म और कारण
दोनों का ही हूँ साक्षी ।
सृष्टि से प्रलय और प्रलय से सृष्टितक
सांख्य विधि बतलायी तुम्हें मैंने
पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो
संदेह की गाँठ कट जाती इससे ।
