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Ajay Singla

Classics

5  

Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत - २२६ ; रासलीला का प्रारम्भ

श्रीमद्भागवत - २२६ ; रासलीला का प्रारम्भ

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श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित 

शरद ऋतू आई थी व्रज में 

बेला, चमेली आदि पुष्प जो 

खिलकर सब वे महक रहे थे।


चीर हरण के समय गोपियों को 

संकेत दिया था जिन रात्रियों का 

भगवान् ने उन्हें दिव्य बनाकर 

रास लीला करने का संकल्प लिया।


चन्द्रमाँ ने शीतल किरणों से 

प्राणियों का संताप हर लिया 

पूर्णिमा की रात थी वो 

चन्द्रमाँ का मंडल अखंड था।


केसर के समान लाल हो रहे चन्द्रमाँ 

और उनकी कोमल किरणों से 

सारा वन रंग गया था 

प्रेम और अनुराग के रंग में।


भगवान् कृष्ण ने बांसुरी पर 

एक मधुर थी तान छेड़ दी 

बढाती प्रेम की लालसा को ये 

गोपियों के मन को हरने वाली।


यों तो पहले से ही कृष्ण ने 

कर रखा था वश में उनके मन को 

भय, संकोच, धैर्य, संयम की 

वृतियां भी छीन लीं अब तो।


कृष्ण की वंशीध्वनि सुनते ही 

विचित्र गति हो गयी उन सब की 

पति रूप में प्राप्त करने को 

जिन्होंने एक साथ साधना भी की थी।


वे भी एक दुसरे से छिपाकर 

वहां के लिए चल पड़ीं 

वहां पर कृष्ण मिले उन्हें 

जहाँ से वंशीध्वनि आ रही।


दूध दूह रही जो गोपियाँ 

दूध दूहना छोड़ चल पड़ीं 

चूल्हे पर दूध रखा था किसी ने 

छोड़ चलीं उसे उफनते हुए ही।


परसना छोड़ चल पड़ीं वो 

भोजन जो परसा रहीं थीं 

दूध पिलाना छोड़ चल पड़ीं 

बच्चों को दूध जो पिला रहीं थी।


जो पतियों की सेवा में लगी थीं 

चली गयीं उनको छोड़कर 

और जो भोजन कर रहीं 

चली छोड़ भोजन वहीँ पर।


चंदन, उबटन लगा रही कोई 

अंजन लगा रहीं कुछ आँखों में 

 उलटे पुल्टे वस्त्र धारण कर 

चल पड़ीं थी कृष्ण से मिलने।


पिता, पति. सम्बन्धियों ने 

जब उन्हें था रोकना चाहा 

प्रेम यात्रा में विघ्न डाला उनकी 

परन्तु कोई उन्हें रोक न सका।


कृष्ण के प्रेम में इतनी मोहित वो 

कि रोकने से रूकतीं वो कैसे 

प्राण, मन, आत्मा का उनकी 

अपहरण कर लिया था कृष्ण ने।


कुछ गोपियाँ जो घर के भीतर थीं 

बाहर निकलने का मार्ग न मिला उन्हें 

कृष्ण के सौंदर्य का ध्यान करने लगीं 

नेत्रों को बंद करके वो अपने।


श्री कृष्ण के असह विरह की 

तीव्र वेदना से उनके ह्रदय के 

अशुभ संस्कार भस्म हो गए 

तब कृष्ण प्रकट हुए उनके सामने।


बड़े प्रेम और आवेश से 

आलिंगन किया कृष्ण का 

परित्याग किया गुणमय शरीर का 

दिव्य शरीर प्राप्त कर लिया।


ये अप्राकृत शरीर योग्य था 

सम्मिलित होने के लिए लीला में 

श्री कृष्ण करने वाले जो 

गोपियों को कृतार्थ करने के लिए।


राजा परीक्षित ने पूछा, भगवन 

गोपिआँ भगवान् को प्रियतम ही मानें

उनका उनमें ब्रह्मभाव नहीं था 

आसक्ति दिखती प्राकृत गुणों में।


संसार से निवृति कैसे संभव हुई 

ऐसी स्थिति में गोपियों के लिए 

मेरे मन में ये प्रश्न आ रहा 

इसका उत्तर आप बतलाइए मुझे।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित 

पहले ही कह चूका मैं तुम्हे 

भगवान् के प्रति द्वेषभाव रखा था 

चेदिराज शिशुपाल ने।


फिर भी अपने प्राकृत शरीर को 

छोड़कर अप्राकृत शरीर में 

उनका पार्षद हो गया वो 

कृपा कृष्ण की मिल गयी उसे।


ऐसी स्थिति में जो समस्त प्रकृति और 

उसके गुणों से अतीत भगवान् की 

प्यारी गोपिआँ प्राप्त करें उन्हें 

इसमें आश्चर्य की बात नहीं कोई।


परीक्षित, मनुष्य का भगवान् से 

बस सम्बन्ध हो जाना चाहिए 

काम, क्रोध और भय का हो 

या स्नेह, सौहार्द का ये।


अपनी वृतियां जोड़ दी जाएं 

भगवान् में चाहे जिस भाव से 

भगवान् की प्राप्ति होती जीव को 

जब भगवान् से जुड़ जातीं वे।


जब भगवान् कृष्ण ने देखा कि 

गोपिआँ मेरे पास आ गयीं 

उन्हें मोहित करते हुए, उन्हें 

उन्होंने तब ये बात कही।


महाभाग्यवान गोपियो !

स्वागत करता हूँ तुम्हारा 

बतलाओ प्रसन्न करने के लिए तुम्हे 

काम करूँ तुम्हारा कौन सा।


रात का समय है और इसमें 

बड़े जीव जंतु घूमें यहाँ 

अतः तुम व्रज में चली जाओ 

सभी ढूंढ रहे होंगे तुम्हे वहां।


माँ, बाप, भाई, बंधू तुम्हारे 

न डालो तुम उनको भय में 

शीघ्र व्रज में लौट जाओ तुम 

मान लो तुम बात मेरी ये।


कल्याणी गोपियों, स्त्रियों का धर्म यही 

कि सेवा करें अपने पति की 

और संतान का पालन पोषण करें 

कुलीन स्त्री का धर्म यही।


निंदनीय है जार पुरुष की सेवा 

इससे परलोक बिगड़ता उसका 

स्वर्ग नहीं मिलता फिर उसको 

इस लोक में भी अपयश होता।


मोक्ष आदि की बात तो कौन करे 

भय, नर्क आदि का हेतु ये 

मेरे प्रति अनन्य प्रेम की 

प्राप्ति होती लीला श्रवण से।


वैसे प्रेम की प्राप्ति तो 

मेरे पास में रहने से भी न हो 

इस लिए मेरी बात मान तुम 

अपने अपने घर को जाओ।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित 

भगवन की ऐसी बात को सुनकर 

गोपिआँ बड़ी उदास हो गयीं 

दुःख का पहाड़ टूट पड़ा उनपर।


चिंता के समुन्द्र में डूब गयीं 

सूख गए अधर थे उनके 

मुँह नीचे लटका लिया उन्होंने 

धरती कुरेदें पैरों के नखों से।


नेत्रों से आंसू बहने लगे 

हृदय उनका इतना भर गया 

चुपचाप खड़ी हो गयीं 

मुँह से उनके कोई बोल न निकला।


श्यासुंदर के लिए गोपियों ने 

छोड़ दी कामनाएं, भोग सब 

निष्ठुरता देख कृष्ण की 

बड़ा दुःख हुआ उन्हें तब।


लाल हो गयीं आँखें रोते हुए 

आंसुओं के मारे वे रुंध गयी 

धीरज धारण कर आंसू पोंछे फिर 

और कृष्ण से ये कहने लगीं।


प्यारे कृष्ण तुम घट घट व्यापी हो 

हमारे ह्रदय की हो बात जानते 

तुम्हारे चरणों में ही प्रेम करतीं हम 

तुम्हे बात ऐसी नहीं करनी चहिये।


इसमें संदेह नहीं कि तूमपर

है हमारा कोई वश नहीं 

जैसे नारायण स्वीकारें भक्तों को 

हमें स्वीकार करो वैसे ही।


तुम हमारा त्याग न करो 

अक्षरश: सही है तुम्हारा कहना ये 

परन्तु इस उपदेश के अनुसार हमें 

तुम्हारी ही सेवा तो करनी चाहिए।


क्योंकि तुम्ही सब उपदेशों के 

चर्म लक्ष्य हो, तुम भगवान् हो 

तुम्ही समस्त शरीर धारियों के 

सुहृदय, आत्मा, परम प्रियतम हो।


महापुरुष तुमसे प्रेम करें क्योंकि 

तुम नित्य प्रिय, अपने आत्मा हो 

अनित्य और दुखद पति, पुत्र आदि से 

फिर क्या प्रयोजन हमको।


परमेश्वर, हमपर प्रसन्न हो 

आप हम सबपर कृपा करो 

निराली हो गयी गति, मति हमारी 

चित हमारा लूटा तुमने जो।


पैर हमारे हटने को तैयार नहीं 

तुम्हारे चरणकमलों को छोड़कर 

फिर व्रज में हम कैसे जाएं 

और जाएं तो करें क्या वहां जाकर।


प्राणबल्लभ, मुस्कान तुम्हारी 

और प्रेमभरी चितवन ने 

आग तुम्हारे प्रेम और मिलन की 

धधकादि हमारे ह्रदय में।


अपने अधरों की रसधारा से 

इस आग को तुम बुझा दो 

नहीं तो विरह व्यथा की इस आग में 

जला देंगी हम अपने शरीर को।


कमलनयन, तुम वनवासिओं के 

प्यारे हो और वो भी तुम्हे 

बहुत प्रेम करते हैं, इसलिए 

तुम रहते उन्ही के पास में।


यहाँ तक कि लक्ष्मी जी को भी 

कभी कभी मिले चरणों की सेवा जो 

हम सभी भाग्यवानों को 

प्राप्त हुआ चरणों का स्पर्श वो।


जिस दिन यह सौभाग्य हमें मिला 

स्वीकार किया था तुमने हमें 

उस दिन से ठहरने में असमर्थ हम 

एक क्षण भी किसी के सामने।


पति, पुत्रादि की सेवा हम फिर 

ऐसी स्थिति में कैसे करें 

चरणरज का सेवन किया है 

तुम्हारे जिन सभी भक्तों ने।


उन्हीं के समान हम भी आयीं 

चरणरज की शरण में तुम्हारी 

सारे कष्ट मिट गए उनके जिन्होंने 

तुम्हारी चरणरज की शरण ली।


अतः तुम हम पर भी कृपा करो 

तुम्हारी सेवा की अभिलाषा से 

घर, गाँव, कुटुम्भ सब छोड़कर 

आयीं हम तुम्हारी शरण में।


पुरुषोत्तम, तुम्हारी मधुर मुस्कान और 

चारु चितवन ने हमारे ह्रदय में 

प्रेम और मिलन की आकांक्षा की 

आग धधका दी इन्होने।


रोम रोम उसमें जल रहा 

स्वीकार करो हमें दासी के रूप में 

अपनी सेवा का अवसर दो 

पड़ी रहें हम तुम्हारे चरणों में।


सुंदर मुखमंडल, कमनीय कपोल 

मधुर अधर ये तुम्हारे 

और देख नयनमोहि चितवन को 

प्रेम उमड़ रहा ह्रदय में।


श्यामसुंदर, तीनों लोकों में 

स्त्री है ऐसी कौन सी 

देख मोहिनी मूर्त तुम्हारी और 

तान सुन तुम्हारी बंशी की।


लोक लज्जा को त्यागकर 

तुममे अनुरक्त न हो जाये 

नारायण देवताओं की रक्षा करें जैसे 

वैसे ही तुम हमारे लिए आये।


व्रजमंडल का दुःख मिटाने 

के लिए प्रकट हुए हो 

दीन दुखियों पर सदा कृपा तुम्हारी 

बड़ी दुखिनी हैं हम सब भी तो।


कर कमल सिर पर रखो तुम 

और हमें जीवन दान दो 

श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित 

ईश्वर हैं सभी के भगवान् तो।


सनकादि योगियों के और 

शिवादी योगेश्वरों के भी ईश्वर वो 

गोपियों की व्यथा और व्याकुलता 

जब उन्होंने देखि तो।


उनका ह्रदय दया से भर गया 

और यद्यपि वे आत्माराम हैं 

और अपने आप में ही 

सदा रमन करते रहते हैं।


अपने अतिरिक्त और किसी भी 

बाह्य वस्तु की अपेक्षा नहीं 

फिर भी उन्होंने हंसकर 

गोपिओं संग क्रीड़ा प्रारम्भ की।


जब वे खुलकर हँसते थे 

उज्जवल उज्ज्वल दांत तब उनके 

कुन्द कली समान जान पड़ते 

और प्रेम भरी चितवन के उनके।


दर्शन कर प्रसन्न हो गया 

गोपिओं का मुखमंडल आनन्द से 

और वो खड़ी हो गयीं 

चारों और से घेर कर उन्हें।


उस समय श्री कृष्ण की शोभा 

ऐसी हुई मानो चन्द्रमाँ ये 

अपनी पत्नी तारिकाओं से 

घिरे हुए शोभायमान हो रहे।


वैजन्ती माला पहनकर 

विचरण करने लगे वृन्दावन में 

लीलाओं का गान करें गोपिआँ 

गीत गाने लगे कृष्ण प्रेम के।


इसके बाद भगवान् कृष्ण ने 

पदार्पण किया गोपियों के साथ में 

यमुना जी के पावन पुलिन पर 

सुगन्धित वायु जहाँ पर बहे।


उस पुलिन पर गोपियों को 

आनंदित किया क्रीड़ा से अपनी 

मान आ गया गोपियों के मन में कि 

समस्त स्त्रियों में सबसे श्रेष्ठ हम ही।


हमारे समान और कोई नहीं है 

कुछ मानवती हो गयीं वो 

गोपियों को बहुत गर्व हो गया 

जब भगवान् ने ये देखा तो।


गर्व शान्त करने के लिए उनका 

और मान दूर करने को 

वहीँ उन्ही के बीच में ही 

अंतर्धान तभी हो गए वो।


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