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Surendra kumar singh

Classics

5  

Surendra kumar singh

Classics

शायद मैं

शायद मैं

6 mins
543


शायद मैं डरपोक नहीं हूँ

लेकिन मैं डरता हूँ

और बहुत डरता हूँ।

मैं इसलिए नहीं डरता कि मैं डरपोक हूँ

मैं इसलिए डरता हूँ की डर है

डर है तो तो डरना चाहिए।

मैं डर को मार नहीं सकता

कोई भी डर को नहीं मार सकता

डर को रहना भी चाहिए

शायद जैसा है उससे भिन्न रूप में।

मैं डरते हुए ही डर को देखता हूँ

इसलिये देखता हूँ कि उससे दूर रहा जा सके

उसे भगाया जा सके

उससे मुक्त हुआ जा सके।

मैं देखता हूँ

मेरा डर राजनीति में है

वैधानिक व्यवस्था में है

अज्ञानता में है

पाखंड में है,

कहने वाले तो यह भी कहते हैं

देश में भी डर है।

ये मैं नहीं कहता

देश के राजनीतिज्ञ कहते हैं

सरकार के जिम्मेदार लोग कहते हैं

विपक्ष के धाकड़ लोग कहते हैं

देश के प्रबुद्ध लोग कहते हैं

और दुनिया को सच्चाई से रूबरू कराने का मिशन लिये, सक्रिय

पत्रकार कहते हैं

अंधरे में रौशनी जलाने का व्यापार

करने वाले साहित्यकार कहते हैं।

मैं डरते डरते ही देखता रहता हूँ

डर से लड़ने वाले लोगों को,

उनके डर को।

सत्ता, विपक्ष को डर की वजह बताती है

और उससे लड़ती है,

दिलचस्प बात तो ये है कि

जो आज विपक्ष में हैं

सत्ता में भी थे

आज सत्ता में विपक्ष आ गया है

पर डर का प्रवाह लगभग स्थिर है

सत्ता से विपक्ष तक

विपक्ष से सत्ता तक

और इनके बीच सक्रिय है हमारी वैधानिक व्यवस्था।

बुद्धिमान लोगों का अपना संसार है

खबरों की अपनी दुनिया है

और इन सबके बीच से डर बह रहा है

और लोग उसके उन्मूलन के प्रयास में संघर्षरत हैं

अपनी अपनी जिम्मेदारियों को निभाने का अभिनय सा गंभीर प्रयास कर रहे हैं।


शायद मैं डरपोक नहीं हूँ

लेकिन मैं डरता हूँ

और बहुत डरता हूँ

मेरा डर अभी तक अमूर्त है

इसलिए मैं डरते डरते ही

अपने डर को समझने के लिये

डर की तरफ चलता हूँ।

मैं राजनीतिज्ञओं से नहीं डरता हूँ

न उनके उस डर से डरता हूँ

जिससे वे लड़ रहे हैं,

मैं अपनी वैधानिक व्यवस्था से भी नहीं डरता हूँ

न उसके उस डर से डरता हूँ

जिससे लड़ने के उसके अपने उपक्रम हैं

नजरिये हैं

योजनाएं हैं

और मकसद हैं

पर उनकी इस सक्रियता में

डर को पराजित करने की कोशिश में

डर, प्रेम की तरह स्थायी रूप से बना हुआ है

और उसकी सक्रियता पर

उभरती हुयी प्रतिक्रियायें

आभास दिलाती हैं कि

डर के विरुद्ध युद्ध हो रहा है।

अपने डर को मूर्तिमान देखने की कोशिश में

मुझे यही सब दिखता है

और मैं डरता हूँ

और ये डर रहना भी चाहिए

क़ानून इसीलिए बने हैं कि

लोग इसके प्रभाव से डरेंगे

समाज में अपराध नहीं होंगे

सबको न्याय मिलेगा

सबको समान रूप से अवसर मिलेगा

क़ानून का डर खत्म हुआ

तो नए किस्म का डर उग आया

ये डर भी कानून व्यवस्था की तरह

बहुत व्यवस्थित हैं

और उसके भी हमारी सभ्यता की तरह सांस्कृतिक आयाम हैं

कानून का भय समाप्त होने से

उत्पन्न डर

केवल और केवल कानून व्यवस्था से दूर हो सकता है

पर उसने व्यवस्था के अंदर भी अपने लिये जगह बना रखी है

पर व्यवस्था उससे लड़ रही है

और मैं यूँ ही डरते डरते कश्मीर चला जाता हूँ

अपनी ही सभ्यता के समानांतर

सांस्कृतिक सम्मोहन में

मुझे अपने डर का दर्शन मिलता है।

कश्मीर में सेना भी डर से लड़ रही है

राज्य और केंद्र की सरकार भी डर से लड़ रही है

विपक्ष डर से लड़ते हुये सत्ता में

डर का पता बता रहा है

एक फिल्मकार ने जैसे

क्रांति ही कर डाली है

उसकी क्रांति का दर्शन आप भी करिये

मुझे तो हुआ है

उस डर का दर्शन जिससे मैं डरता हूँ।


शायद मैं डरपोक नहीं हूँ

लेकिन मैं डरता हूँ

और बहुत डरता हूँ

शायद मैं डरपोक हूँ इसलिए डरता हूँ

ऐसा तो नहीं है

मैं डरता हूँ क्योंकि डर है

डर है तो उससे लड़ना चाहिए

जैसे कि हमारे देश के बुद्धिमान लोग लड़ रहे हैं

डर को तरक्की की राह में रोड़ा मानते हुये

कुछ लोग लड़ते लड़ते

देश के बंटवारे के इतिहास में चले जाते हैं।

बेचारे कश्मीरी पंडित

कुछ विशिष्ट हैं न

इसलिए उनका जिक्र भी विशिष्ट तरीके से होता है

उनके प्रति ज्यादा प्यार उमड़ आता है

खबरें आती हैं और

खूब आती हैं

जानबूझकर कर टारजेटेड हत्याएं की जा रही हैं कश्मीरी पंडितों की,

खबरें जैसे ध्यान बंटाती हैं

देश की संप्रभुता और सभ्यता पर

हो रहे निरंतर आक्रमणों से।

वे हमारी संप्रभुता और सभ्यता को

नष्ट करने पर आमादा हैं

जिसका प्रतिकार करने में

हमें अपनी सभ्यता को जीवंत बनाना है

राज व्यवस्था को और सशक्त बनने देना है

हम उसे सम्प्रदाय से जोड़कर

कश्मीरी पंडितों से जोड़कर

देश की राजनीति और

सार्वजनिक बहस का हिस्सा बना देते हैं

यक़ीनन हम खुद छिटककर अलग हो जाते हैं

अपनी सभ्यता की मुख्यधारा से

अपनी ही मनुष्यता से

और मैं इन्हीं से जुड़कर

अपनी भारतीयता के साथ

अपनी मनुष्यता के साथ

देखता हूं डर की सक्रियता को

जिसके विरुद्ध सरकार खड़ा होने का

प्रयास कर रही है

ताकी लोकतंत्र को अवाम के हित से जोड़ा जा सके

पर हमारा जज्बाती मन

न सरकार के साथ खड़ा हो पाता है

न अपनी सभ्यता के साथ।

आलम ये है भीड़ का भी और जज्बात का भी कि

हम उन्हें भारतीय नागरिक के रूप में

स्वीकार नहीं कर पाते

और डर को कश्मीरी पंडितों के इर्द गिर्द देखते रह जाते हैं

कभी कल्पना भी नहीं कर पाते कि

कश्मीरी पंडित भी भारत के नागरिक हैं

कल्पना कर भी लिये तो उनकी समस्या को

भारतीय नागरिक की समस्या के रूप में देख नहीं पाते

देख पाते हैं तो

भारत में भारतीय नागरिक

भारत की सरकार

और भारतीय सभ्यता से जोड़कर

व्यक्त करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

अंदर ही अंदर कुढ़ते रहते हैं

और कश्मीर फाइल्स जैसी पिक्चर के दृश्य हमारे आँखों के सामने से

गुजरते रहते हैं

नृशंसता से हम कांप जाते हैं।


शायद मैं डरपोक नहीं हूँ

लेकिन मैं डरता हूँ

और बहुत डरता हूँ

और डरते डरते ही अपने अमूर्त डर की दिशा में धीरे धीरे आगे बढ़ता हूँ।

एक पल ठहरता हूँ आगे बढ़ते हुये

और सोचता हूँ

और सोचते सोचते एक निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि

देश के विभाजन का दंश, उसकी वजहें

एक अभिशाप में बदल चुकी हैं तो

एक अवसर तो है

देश की एकता को मजबूत करने का

जब देश की संप्रभुता पर डर का आक्रमण हो रहा है

और उसकी आवाजें देश के विभाजन की याद दिला रही हों

कुछ लोग अपने को हिन्दू कहते हों

जैसे की वे भारतीय नहीं हैं

कुछ लोग अपने को मुसलमान इस तरह से कह रहे हैं जैसे कि वे भारतीय नहीं हैं

और इस हिन्दू और मुसलमान की होती हुयी आवाजों के बीच

अपने को भारतीय समझता हुआ मैं

अपना डर भी देख पाता हूँ

और उससे मुक्त होने की शक्ति भी पा जाता हूँ

धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे का दंश

देश की एकता का रास्ता बना रहा है

ये रास्ता जरूरत है हर उस आदमी की जो अपने देश से प्रेम करता है

देश वो भी भारत

जिसकी तात्विकता ही धर्मों को संरक्षण देने की है

हमें हिन्दू कहना और हमसे डरना

हमें हिन्दू कहना और हमसे नफ़रत करना

देश में हिंदुत्व का एजेंडा चलते हुये देखना

और इसमें एक बार फिर विभाजन की छाया देखना

मानव सभ्यता को नकारना है

जो भी हों ऐसा देखने वाले

ऐसा कहने वाले

वो हिंदुत्व और भारतीयता को

भिन्न भिन्न देखने वाले लोग हैं।


शायद मैं डरपोक नहीं हूँ

लेकिन मैं डरता हूँ

और बहुत डरता हूँ

और डरते डरते ही अपने अमूर्त डर की दिशा में धीरे धीरे आगे बढ़ता हूँ।

एक पल ठहरता हूँ आगे बढ़ते हुये

और सोचता हूँ

और सोचते सोचते एक निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि

देश के विभाजन का दंश, उसकी वजहें

एक अभिशाप में बदल चुकी हैं तो

एक अवसर तो है

देश क़ी एकता को मजबूत करने का

ज़ब देश की संप्रभुता पर डर का आक्रमण हो रहा है

और उसकी आवाजें देश के विभाजन की याद दिला रही हों

कुछ लोग अपने को हिन्दू कहते हों

जैसे की वे भारतीय नहीं हैं

कुछ लोग अपने को मुसलमान इस तरह से कह रहे हैं जैसे कि वे भारतीय नहीं हैं

और इस हिन्दू और मुसलमान की होती हुयी आवाजों के बीच

अपने को भारतीय समझता हुआ मैं

अपना डर भी देख पाता हूँ

और उससे मुक्त होने की शक्ति भी पा जाता हूँ

धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे का दंश

देश की एकता का रास्ता बना रहा है

ये रास्ता जरूरत है हर उस आदमी की जो अपने देश से प्रेम करता है

देश वो भी भारत

जिसकी तात्विकता ही धर्मों को संरक्षण देने की है

हमें हिन्दू कहना और हमसे डरना

हमें हिन्दू कहना और हमसे नफ़रत करना

देश में हिंदुत्व का एजेंडा चलते हुये देखना

और इसमें एक बार फिर विभाजन की छाया देखना

मानव सभ्यता को नकारना है

जो भी हों ऐसा देखने वाले

ऐसा कहने वाले

वो हिंदुत्व और भारतीयता को

भिन्न भिन्न देखने वाले लोग हैं

शायद मैं डरपोक नहीं हूँ

लेकिन मैं डरता हूँ

और बहुत डरता हूँ

डरते डरते ही डर की तरफ बढ़ता हूँ

कितना दिलचस्प होता है

अन्तर्विरोध का आयाम

अब आप अगर सरकार को अपना माने

मानना भी चाहिए

लोकतंत्र में सरकार होती ही है सबकी

बनाते ही हैं सब मिलकर उसको तो

आप को सरकार की कमियां दिख सकती हैं

लेकिन अगर आप सरकार को अपना नहीं मानते

हालांकि यह एक अवैधानिक अभिव्यक्ति है तो

आप को कमियों की शंकाये घेर लेती हैं

किसिम किसिम की शंकाये

कल्पनाशील शंकाये

जाहिर है सरकार की कमियों पर पर्दा पड़ जाता है

और कोई काम जो सरकार करे न करे

वो जरूर करता है जो सरकार को अपना नहीं मानता

एक भा वनात्मक प्रवाह अस्तित्व में आ जाता है

लोकतंत्र की जरूरतों पर पर्दा डालता हुआ

एक भावनात्मक सम्मोहन।

कोई अपनी कमियों को सुधारने के लिये उद्द्त हो

और कोई कहे ऐसा कुछ नहीं है

और उसके सामने ऐसी कमियाँ रखता है जो हैं ही नहीं

और अगर है तो है उस कमी का जिक्र करने वाला।

मैं डरते डरते ही सही

अपने डर को मूर्तिमान देखने की कोशिश में

डर के और करीब जाता हूँ

कुछ देखता हूँ

कुछ महसूस करता हूँ

कुछ सुनता हूँ डर के विषय में ही

ख़ासकर कश्मीर में

क्रूरता और हिंसा

बैमनस्यता और खौफ

निकृष्टता और उसका सम्मोहन

कोई कुछ भी कहे

कोई बताये जो भी इन कृत्यों की

सहभागिता और संलिप्तता के संदर्भ में

और जिस पर चर्चा हो

और खूब हो

सब अधूरा अधूरा सा रह जाता है

बोद्धिक बहसों के विषय परिवर्तन की तरह

अपराधी को पकड़ना हो

या अपराध के सांस्कृतिक सम्मोहन से मुक्त होना हो

तो अपराध होने की वजह तलाशिये।

कश्मीर की घटनायें

मानव सभ्यता

और भारत की संप्रभुता

आक्रमण है

लक्ष्य है

भारत की संप्रभुता और

सभ्यता पर

संगठित अपराध का नियंत्रण।

सदियों देश राजनीतिक रूप से गुलाम रहा

पर हमने अपनी भारतीयता को

अपने जीवन के व्यवहार में जीवंत रखा

जैसे पलक झपकी

सभ्यता पर राजनीति का नियंत्रण हुआ

मन में सत्ता की लालसा अंकुरित हुयी

देश विभाजित हो गया

कुछ नहीं बचा

देश भी गया

और धर्म भी गया

और आजादी के इतने दिनों बाद

आज का भारत

और उसका आंतरिक परिदृश्य उसी 

खोयी हुयी सभ्यता की तस्वीर है।

शुक्र है राज व्यवस्था शक्तिशाली हो रही है।


शायद मैं डरपोक नहीं हूँ

लेकिन मैं डरता हूँ

और बहुत डरता हूँ

डरते डरते ही मैं कल्पना करता हूँ

की कश्मीरी पंडित भारतीय नागरिक हैं

हालांकि यह सच है

मैं भी भारतीय नागरिक हूँ

सम्भव है मेरा डर

कश्मीरी पंडितों का डर हो

और इसी कयास में मैं सोचता हूँ

कि कश्मीरी पंडितों को

सबसे बड़ा नागरिक सहयोग होगा

उनको भारतीय नागरिक मानना

और उन पर हो रहे अत्याचार को

भारत में भारत विरोधी

गतिविधि के रूप में देखना।

मैं तो मानता हूँ

लेकिन न तो भारत सरकार मानती है

न भारत का 

बौद्धिक समाज मानता है

न सभ्यता के पुजारी मानते हैं

फलतः मेरा अमूर्त डर

मूर्तमान हो उठता है

यक़ीनन मैं डरपोक नहीं हूँ

लेकिन मैं डरता हूँ

और बहुत डरता हूँ।


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