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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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हवा में

हवा में

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हवा में तैरत हुए ,,
अनगिन शब्दों के झुंड में से
 एक की परछाई
उतरी है मेरे आंगन में.।
 मै अवाक सा था
घर के दरवाजे पर
उसकी दस्तक से की
वो चली आई मेरी अंगनायी में।
मैं कभी उसको देखता हूं
 और कभी आईने में अपना अपना चेहरा।
 देर से
बहुत देर से समझ आया कि
 मैं कौन हूं
 शब्दों की परछाई या 
 जीवित सा मै।
मेरी इतनी सी समझ पर
प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आई हुई है
 विचारों की दुनिया में।
बहरहाल मैं हूं
और मेरा यकीन है मेरे साथ की मै
 और मेरी शक्ति कुछ भी कहीं कर सकती ह
 पर अगर हम चैतन्य न हुए
 समझदार नहीं हुए
तो कभी भी हस्तक्षेप के
 शिकार हो सकते हैं।
जैसे कि अभी अभी हुए हैं
और हम झेंपते हुए अपनी
शक्ति का गुणगान कर रहे हैं।


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