द्वंद
द्वंद
गृह कलह से तंग आकर
जब भी माथा खुजलाता हूँ
सच कहता हूँ उस वक्त प्रिय
तुम बहुत याद आती हो ।
कभी कभी सोचता हूँ
तुम होती तो ऐसा होता
तुम होतीे तो वैसा होता
जितनी सुंदर तुम हो
उससे भी ज्यादा सुन्दर जीवन होता
न गम न आंसू
न कोई शिकवा शिकायत होती
प्यार ही प्यार चहुँ ओर दिखता
जिंदगी में सुकून और रौशन होता ।
फिर सोचता हूँ
क्या पता
यदि तुम होती तो
जीवन कैसी होती
जिंदगी बेहतर के बदले
और भी बदतर होता ।
क्योंकि देखा हूँ मैं तुझे भी
एक अदना सा गुलाब के लिए रूठते
कागज पर लिखे झूठे सच्चे
तारीफ़ के लिए तरसते
और छोटी छोटी बातों पर
बेमतलब तिलमिलाते ।
भले ही वो झगड़ा प्यारा था
पर आज के दृष्टिकोण में बेमतलब था
तुमसे भली तो ये है
जो बेमतलब नहीं झगड़ती है
अकारण ही नहीं लड़ती है
लड़ती है तो बच्चे के परवरिश के लिए
उसके कॉपी किताब और भविष्य के लिए
साग सब्जी और राशन के लिए
न कि तुम्हारी तरह
चिकनी चुपड़ी भाषण के लिए।
यही सब सोच कर
मैं चुप हो जाता हूँ
पी कर घूँट आँसू की
बिन खाये सो जाता हूँ
सुबह इन्हीं के हाथो बनी चाय से
मेरा व्रत टूटता है
सोचता हूँ छोड़ो ये सब बातें
नित दिन कौन रूठता है ।
गृह कलह से तंग आकर
जब भी माथा खुजलाता हूँ
सच कहता हूँ उस वक्त प्रिय
तुम बहुत याद आती हो ।
