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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

रिश्तों में तल्खी

रिश्तों में तल्खी

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रिश्तों में आजकल मैंने तल्खी देखी है

फ़िजूल की रिश्तों में जबर्दस्ती देखी है

मन से आज कोई नही निभाता रिश्ता,

स्वार्थ से चलती मैंने गृहस्थी देखी है

खुद के लिये जीना,दूसरों को गम देना,

खुद की खुद से लड़ती जिंदगी देखी है

रिश्तों में आजकल मैंने तल्खी देखी है

भरे सावन में सूखी हुई जिंदगी देखी है

छोटा था तब रिश्तों को समझ न पाया,

शादी बाद रिश्तों की टूटती तस्वीर देखी है

दरिया के जैसे मन मे उमड़ती थी लहरें

किनारा पाने के लिये झगड़ती थी लहरें

रिश्तों में जद्दोजेहद करती जिंदगी देखी है

साहिल को पाने मैंने जिंदा मौत देखी है

रिश्तों में आजकल मैंने तल्खी देखी है

खुली हुई आंखों से सोई जिंदगी देखी है

टूटी हुई पतंग देखकर मैंने सोच लिया है,

गगन में उड़ना है तो धरती से जुड़ना है

एक हृदय के दूसरे हृदय के जुड़ाव से ही,

मैंने रिश्तों की हंसती हुई तस्वीर देखी है!


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