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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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जो भी है

जो भी है

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जो भी घट रहा है दुनिया में वो
अप्रत्याशित तो नहीं है
चाहे आग में झुलसते हुए शहर हों
चाहे बदले की भावना से
उबलता हुआ कोई आदमी हो
सबके पीछे आधार है
सबकी अपनी अपनी वजहें है
 कोई किसी से कम नहीं की होड़ लगी है
 सबकी एक ही वजह है
आदमी यह भूल गया है कि वो आदमी है
 और ये भी कि अब उसकी व्यवस्था
उसके काबिल नहीं रह गई है।
 हालांकि उसकी सार्थकता के सुन्दर बहाने भी है। अनगिनत आदमी हैं और
 अनगिनत व्यवस्थाएं हैं राज से
 लेकर समाज तक।


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