श्रीमद्भागवत -१३९ ; प्रह्लाद जी का असुर बालकों को उपदेश
श्रीमद्भागवत -१३९ ; प्रह्लाद जी का असुर बालकों को उपदेश
प्रह्लाद जी कहें, हे मित्रो
दुर्लभ है मनुष्य जन्म बड़ा
प्राप्ति अविनाशी परमात्मा की
हो सकती है इसके द्वारा।
परन्तु पता नहीं कब इसका
अंत हो जाता है, इसलिए
बुढ़ापे, जवानी के भरोसे न रहकर
बचपन में लगो प्रभु के चरणों में।
भगवान की प्राप्ति कराने वाले
साधनों का अनुष्ठान मनुष्य करे
एक मात्र सफलता जीवन की
हरि की शरण ले, इस मनुष्य जन्म में।
क्योंकि भगवान समस्त प्राणियों के स्वामी
सुहृदय, प्रियतम और हैं आत्मा
इन्द्रियों का सुख है जो वो
प्रारब्ध के अनुसार ही मिलता।
सांसारिक सुखों में उलझ जाते जो
भगवान की प्राप्ति नहीं होती उन्हें
बुद्धिमान पुरुष को चाहिए
अपने कल्याण के लिए प्रयत्न करे।
जब तक मृत्यु के मुख में नहीं जाता
रोगग्रस्त होकर शरीर ये
तब तक ही इस मनुष्य को
प्रयत्न इसके लिए करना चाहिए।
मनुष्य की आयु है सौ वर्ष की
और जिन्होंने इन्द्रियों को वश में नहीं किया
यों ही बीत जाता है
आधा हिस्सा तो उनकी आयु का।
घोर तमोगुण, अज्ञान से ग्रस्त हैं जो
सोते रहते हैं वो रात में
हित अहित का ज्ञान नहीं बचपन में
खेल कूद में कुमार अवस्था बीते।
इस प्रकार पता नहीं लगता
पहले बीस वर्षों का उनको
बुढ़ापा ग्रास ले जब शरीर को
कुछ करने की शक्ति न हो।
अंत के बीस वर्ष ऐसे बीतें
रह गयी बीच की थोड़ी आयु ही
उसमें बड़ी बड़ी कामनाएं हैं
कभी न पूरी होने वालीं।
पकड़कर रखने वाला मोह है
आसक्ति है घर द्वार की
जिसमें जीव उलझ जाता और उसे
रहता कर्तव्य अकर्तव्य का ज्ञान नहीं।
इस प्रकार निकल जाती है
बची खुची आयु भी हाथ से
दैत्यबालको, छोड़े ना आसक्ति वो
नहीं हैं जिसके इन्द्रियां वश में।
छुड़ाने का साहस वही कर सकता
अपने को गृहस्थी की आसक्ति से
प्राणों की बाजी लगा धन संग्रह किया
त्याग सकता है कौन भला उसे।
पत्नी की मीठी बातें और
भाई बंधुओं के स्नेह से बंधा जो
इन्द्रीयों के वश में वो है
क
ैसे इन्हे छोड़ सकता वो।
सर्वस्व मान बैठे जो सुख को
जननेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के
भोगवासनाएँ तृप्त न होतीं
कर्म पर कर्म करता जाता ये।
बंधनों में जकड़ता जाये
कोई सीमा नहीं जिनके मोह की
जीव केसे विरक्त हो उनसे
कैसे उनका त्याग करे कोई।
कुटुम्भ के पालन पोषण के लिए
अमूल्य आयु गँवा देता अपनी
और जीव के इस प्रमाद की
सच पूछो तो कोई सीमा नही।
कभी भगवान भजन नहीं करता
कुटुम्भ के लिए चोरी कर बैठे
परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती
वह विद्वान हो, तो भी उसे।
पैरों में ममता की बेड़ी हो
किस तरह वो उद्धार करे अपना
इसीलिए तुम संग छोड़ दो
इन विषयासक्त दैत्यों का।
भगवान नारायण की शरण ग्रहण करो
उनको प्रसन्न करने के लिए
प्रयत्न बहुत नहीं करना पड़ता
क्योकि वो आत्मा समस्त प्राणियों के।
छिप रहा है ऐश्वर्य उनका
सृष्टि करने वाली माया से
और इसके निवृत होत्ते ही
हो जाते हैं दर्शन उनके।
आसुरी सम्पति का त्याग करो
त्याग करो दैत्यपने का अपने
प्राणियों पर दया कर, भलाई करो
इससे भगवान प्रसन्न हैं होते।
धर्म, अर्थ, और काम, इन तीनों
पुरुषार्थों का वर्णन किया शास्त्रों ने
परन्तु सार्थक मानो इनको तभी
जब मिलाएं ये हरि चरणों से।
यह ज्ञान जो बतलाया है
दिया नारद को नर, नारायण ने
और देवऋषि नारद से
पहले पहल सुना था मैंने।
सहपाठिओं ने पूछा, प्रह्लाद जी
गुरुपुत्रों के किसी किसी गुरु को
ना तो हो तुम जानते
ना जानते हम ही किसी को।
तुम्हारा नारद जी से मिलना
जान पड़ता है कुछ असंगत सा
विश्वास दिलाये जो इस विषय मैं
बात कहकर मिटाइये ये शंका।