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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत -२८९ः वासुदेव जी के पास नारद का आना और उन्हें राजा निमि तथा नौ योगेश्वरों का संवाद सुनाना

श्रीमद्भागवत -२८९ः वासुदेव जी के पास नारद का आना और उन्हें राजा निमि तथा नौ योगेश्वरों का संवाद सुनाना

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श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

देवर्षि नारद के मन में

बड़ी लालसा थी के वो

श्री कृष्ण की सन्निधि में रहें।


इसलिए कृष्ण के निज बाहुओं  से सुसज्जित

द्वारका में आते रहते वो

प्रायः रहा भी करते थे वहाँ

दक्ष के शाप का भय नही वहाँ उनको।


वासुदेव के यहाँ एक दिन पधारे

वासुदेव ने प्रणाम किया उन्हें

कहें कि देवर्षि आप तो

विचरण करें सबके कल्याण के लिए।


“ ब्राह्मण, हम आपसे प्रश्न कर रहे

साधनों के सम्बंध में उन धर्मों के

मनुष्य मुक्त हों संसार से

श्रद्धा से जिनके सुनने भर से।


पहले जन्म में आराधना की मैंने

प्रभु की, पर मुक्ति के लिए नहीं

पुत्र रूप में प्राप्त हो गए मुझे

मेरी आराधना का उद्देश्य था वही।


उस समय मैं मुग्ध हो रहा

भगवान की अपार लीला से

आप शिक्षा दें मुझे कि छूटूँ मैं

कैसे जन्म मरण के चक्र से “।


श्री शुकदेव जी कहते हैं, राजन

वासुदेव की ने प्रश्न किया ये

भगवान के स्वरूप और गुण आदि के 

श्रवण के अभिप्राय से।


प्रश्न सुनकर वासुदेव का नारद

भगवान में तन्मय हो गए

और प्रेम एवं आनन्द में भरकर

वासुदेव जी से ये बोले।


नारद जी कहें “ यदु शिरोमने !

बहुत सुंदर तुम्हारा निश्चय ये

भागवत धर्म के सम्बन्ध में ये है

जो सारे विश्व को जीवन दान दे।


भागवत धर्म एक ऐसी वस्तु है

जिसे कोई सुनले कानों से

वाणी से उच्चारण करे कोई

या स्मरण करे उसका चित में।


हृदय में स्वीकार करे इसको

या पालन कर जी रहा हो

इसका अनुमोदन करने से ही

मनुष्य उसी क्षण पवित्र हो।


चाहे वो भगवान का एवं

सारे संसार का द्रोही ही क्यों ना हो

इसके सम्बन्ध में प्राचीन इतिहास एक

वासुदेव जी, प्रश्न तुमने किया जो।


संत पुरुष कहा करते हैं

नौ योगेश्वर, पुत्र ऋशभ के

और महात्मा विदेह का

शुभ संवाद कहा है इसमें।


स्वयंभू मुनि के पुत्र प्रियव्रत

प्रियव्रत के आग्निध्र, उसके नाभि

नाभि के पुत्र ऋशभ थे

अंश वो भगवान वासुदेव का ही।


मोक्ष धर्म का उपदेश करने को

अवतार ग्रहण किया था उन्होंने

उनके सौ पुत्र थे और सभी

पारदर्शी विद्वान वेदों के।


सबसे बड़े राजर्षि भरत थे

परमप्रेमी भक्त वे नारायण के

अजनाभवर्ष कहलाता था जो पहले

भारत वर्ष कहलाया उन्ही के नाम से।


पृथ्वी का राज भोगकर भरत जी

वन में चले गए वो अंत में

भगवान की उपासना की और

तीन जन्मों में प्राप्त किया उन्हें।


शेष निनयानवें पुत्र ऋषभ के

उनमें से नौ पुत्र जो

भारतवर्ष के नौ द्वीपों के

अधिपति हो गए थे वो तो।


कर्मकांड के रचयिता ब्राह्मण

शेष इक्यासी पुत्र हो गए

सन्यासी हो गए शेष जो नौ थे

वे बड़े ही भाग्यावान थे।


आत्मविद्या में निपुण वे

प्रायः दिगम्बर ही रहते थे

परमार्थ वस्तु का उपदेश किया करते

कवि, हरि आदि नाम थे उनके।


सवछंद विचरण करते पृथ्वी पर

जहां चाहते चले जाते वे

देवता, गंधर्व, ब्रह्मा, गोओं आदि के

स्थानों में सवछंद विचरते।


विदेहराज महात्मा निमि

एक बार अजनाभवर्ष में

बड़े बड़े ऋषीयोंके द्वारा

एक महान यज्ञ कर रहे।


ये नौ योगेश्वर वहाँ पहुँच गए

सूर्य समान तेजस्वी लग रहे वे

सभी लोग सम्मान में खड़े हो गए

पूजा की उनकी विदेहराज ने।


विनय से प्रश्न किया “ भगवन !

भगवान के पार्षद हैं आप तो

संतों का दर्शन बहुत ही दूर्लभ है

इस अनिश्चित जीवन में तो।


इसलिए हम आपसे जानना चाहते

क्या स्वरूप है परम कल्याण का

कृपाकर हमें उपदेश दीजिए

बतलाइए उसका है साधन क्या “।


नारद जी कहें, “ वासुदेव जी

जब निमि ने प्रश्न किया ये

तब वे नौ योगेश्वर

महाराज निमि से बोले।


उनमें से कवि जी ने कहा, “ राजन

नित्य निरन्तर उपासना हरि की

और इसका अनुष्ठान करने पर

निवृत हो प्राणी ममता से सभी की।


जो भी करे, सब कुछ प्राणी

इस भाव से समर्पित कर दे

के ये सब भगवान के लिए

सरल से सरल भागवत धर्म ये।


“ मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ

जब मनुष्य को भ्रम हो जाता ये

देह, गेह आदि अन्य वस्तुओं

में उसकी तन्मयता होने से।


बुढ़ापा, मृत्यु, रोग आदि होते हैं

तब मनुष्य को चाहिए कि

गुरु को ही आराध्य देव मानकर

ईश्वर का भजन करना चाहिए।


सच पूछो तो भगवान के अतिरिक्त

या अतिरिक्त अपनी आत्मा के

कोई वस्तु है ही नही

इसलिए पुरुष को चाहिए।


कि सांसारिक कर्मों के सम्बन्ध में

संकल्प करने वाले मन को रोक ले

परमात्मा की प्राप्ति हो जाती

तब ऐसा करते ही उसे।


गान करते हुए प्रभु लीला का

किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान में

आसक्ति ना करके पुरुष को

विचरण करते रहना चाहिए।


प्रभु के नाम, कीर्तन से

अनुराग, प्रेम का अंकुर उग आता

साधारण लोगों से ऊपर उठ जाता

चित द्रवित हो जाता उसका।


स्वभाव से ही मतवाला होकर

हंसने लगता, कभी रोने लगता

कभी उच्च स्वर में पुरुष

गान करे उनके गुणों का।


प्रियतम भगवान को वो अनुभव

करे अपने नेत्रों के सामने

और नृत्य है करने लगता

प्रभु को रिझाने के लिए।


आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी

प्राणी आदि सभी शरीर भगवान के

प्रकट हैं स्वयं भगवान ही

प्राणी और अप्राणी के रूप में।


भगवद्भाव से प्रणाम करे सबको

और वो प्रति क्षण भगवान के 

चरणकमलों का भजन करता तो

भगवान अनायास प्राप्त हो जाते।


तब भगवान ही हो जाते वो

और जब ये सब प्राप्त हो जाता

तब वो पुरुष स्वयं ही

परम शक्ति का अनुभव करता।


राजा निमि ने पूछा, “ योगेश्वरो

भागवतधर्म का लक्षण वर्णन करें।

और उनके क्या धर्म हैं

कैसा स्वभाव होता बतलाइये।


मनुष्यों के साथ व्यवहार करते समय

कैसा आचरण रहता है उसका

क्या बोलता, किन लक्षणों के कारण

भगवान को वो प्यारा होता “।


अब उन नौ येगेश्वरों में से

दूसरे योगेश्वर हरि जी बोले

“ राजन, आत्म भगवान ही स्थित

समस्त प्राणियों की आत्मा में।


सभी प्राणी, पदार्थों में जो

अनुभव करता भगवान को ही

ऐसी जिसकी सिद्ध दृष्टि है

परम प्रेमी भगवान का वही।


भगवान से प्रेम, भक्तों से मिलना

दुखी और अज्ञानियों पर कृपा

और भगवान से द्वेष करते जो

वो करते उनकी उपेक्षा।


वह भागवत है मध्यम कोटि का

और साधारण कोटि का भागवत वो

जो श्रद्धा से पूजे भगवान को

परन्तु भक्तों की सेवा ना करे वो।


अपनी इच्छा के प्रतिकूल, विषयों से

जो प्राणी द्वेष नही करता

और अनुकूल विषयों के मिलने पर

जो कभी हर्षित नही होता।


ऐसी दृष्टि जिसकी बनी रहे

कि ये सब भगवान की माया

वह मनुष्य ही वास्तव में

उत्तम भागवत है कहलाता।


संसार के धर्म, जन्म - मृत्यु, भूख- प्यास

श्रम - कष्ट, तृष्णा और भय ये

ये क्रमशः शरीर, प्राण, इंद्रियाँ

मन, बुद्धि को प्राप्त होते रहते।


जो पुरुष तन्मय रहे प्रभु में

इनके बार बार होते रहने पर भी

इनसे मोहित नही होता वो

और उत्तम भागवत है वही।


जिसके मन में विषयों की इच्छा

और कर्म, कामनाओं का उदय नही होता

निवास करता एकमात्र भगवान में

वह उत्तम भागवत कहलाता।


धन, सम्पत्ति, शरीर आदि में

“ यह अपना और यह पराया “

भेद भाव नही रखता, ऐसे और

सबमें वो देखे परमात्मा।


भगवान के चरणों से जो

हटता नही आधे क्षण के लिए भी

निरन्तर उन्हीं की सेवा में लगा रहे

उत्तम भागवत कहलाता है वही।


त्रिभुवन की राज्य लक्ष्मी भी

जो कोई उसको दे दे तो

ध्यान ना देकर, प्रभु स्मृति ना तोड़े

सबसे श्रेष्ठ भागवत भक्त वो।


स्वयं श्री हरि जिसके हृदय को

क्षणभर के लिए भी नही छोड़ते

क्योंकि बांध रखा चरणों को उनके

उसने प्रेम की रस्सी से।


वास्तव में ऐसा पुरुष ही

भगवान के भक्तों में प्रधान है

वही श्रेष्ठ भागवत भक्त है

प्रभु के चरणों में उसका स्थान है।


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