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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -३२३ : श्री शुकदेव जी का अंतिम उपदेश

श्रीमद्भागवत -३२३ : श्री शुकदेव जी का अंतिम उपदेश

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श्रीमद्भागवत -३२३ : श्री शुकदेव जी का अंतिम उपदेश


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

इस श्रीमद्भागवत पुराण में

बार बार संकीर्तन हुआ है

भगवान श्री हरि का इसमें ।


ब्रह्मा और रुद्र भगवान भी

पृथक नहीं हैं श्री हरि से

प्रसाद लीला और क्रोध लीला की उनके

अभिव्यक्ति ही की है उन्होंने ।


अविवेकमूलधारना पशुओं की सी

“कि मैं मरूँगा”, तुम छोड़ दो

पहले नहीं थे तुम, जन्में, मर जाओगे

तुम इसको ऐसे समझ लो ।


जैसे बीज से अंकुर और

अंकुर से बीज की उत्पत्ति होती

वैसे ही एक देह से दूसरी देह

उससे उत्पत्ति हो तीसरी देह की ।


किन्तु ना तुम किसी से उत्पन्न हुए

ना आगे होओगे पुत्र के रूप में

लकड़ी की उत्पत्ति और विनाश से

जैसे आग सर्वथा अलग रहे ।


वैसे ही तुम भी शरीर आदि से

अलग हो सर्वथा ही

जीव ब्रह्म हो गया ऐसा लगे

देहपात हो जाने पर ही ।


वास्तव में तो यह ब्रह्म ही था

उसकी अब्रह्मता तो प्रतीति मात्र थी

आत्मा के लिए शरीर, विषय, कर्मों की

कल्पना कर लेता है मन ही ।


माया सृष्टि करती है मन की

और वास्तव में यही माया

कारण है इस जीव के

संसार चक्र में पड़ने का ।


जब तक संयोग रहता है

तेल, पात्र, बत्ती और आग का

दीपक में दीपकपना है तभी तक

वैसे ही जब तक आत्मा का ।



सम्बन्ध कर्म, मन, शरीर और

इसमें रहने वाले चैतन्यध्यास से

तभी तक इसे भटकना पड़ता

जन्म मृत्यु के चक्र संसार में ।


और रजोगुण, सत्वगुण, तमोगुण की

वृत्तियों से उत्पन्न,स्थित, विनष्ट होना पड़ता

परंतु दीपक बुझ जाने से जैसे

तेज का विनाश नहीं होता ।


वैसे ही संसार का नाश होने पर

आत्मा का विनाश नहीं होता है

क्योंकि वो कर्ता और कारण

व्यक्त, अव्यक्त सबसे परे है ।


आकाश समान सबका आधार वह

वह तो नित्य और निश्चल है

वह अनन्त है और सचमुच में

आत्मा की उपमा आत्मा ही है ।


भरपूर करलो परमात्मा के चिंतन में

हे राजन, अपनी विशुद्ध बुद्धि को

स्वयं ही अपने अन्तर में स्थित

परमात्मा का साक्षात्कार करो ।


तुम मृत्युओं की भी मृत्यु हो

तुम स्वयं ही ईश्वर हो

ब्राह्मणों के श्राप से प्रेरित तक्षक

भस्म ना कर सकेगा तुमको ।


वो तो क्या स्वयं मृत्यु भी

और मृत्युओं का समूह भी

तुम्हारे पास तक ना फटक सकेंगे

तुम इस प्रकार चिंतन करो कि ।


“ मैं ही सर्वाधिष्ठान ब्रह्म हूँ

मैं ही हूँ सर्वाधिष्ठान ब्रह्म जो

अपने वास्तविक अखंड स्वरूप में

इस प्रकार स्थित करो अपने आप को ।


उस समय जो तक्षक आये और

अपने विष्पूर्ण मुखों से

तुम्हारे पैरों में डस भी ले तो

कोई परवाह नहीं होगी तुम्हें ।


स्थित होकर आत्म स्वरूप में

इस शरीर को तुम अपने

या सारे इस विश्व को भी

अपने से पृथक नहीं देखोगे ।


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