श्रीमद्भागवत १ ;नारद की भक्ति से भेंट
श्रीमद्भागवत १ ;नारद की भक्ति से भेंट
एक बार मुनि सूत जी
नैमिषारण्य क्षेत्र में विराजमान थे
मुनि शोनक जी थे वहां आये
पूछा मुनि सूत जी से ये।
इस कलिकाल में जीव हैं जो भी
काल की चक्की में हैं पिसते
कैसे निकलें वो जंजाल से
कृष्ण की प्राप्ति हो जिससे।
माया मोह से पीछा छूटे और
भक्ति और ज्ञान मिल जाये
मन हो शुद्ध मनुष्य का कलयुग में
सर्वश्रेष्ठ उपाय बताएं।
सूत जी बोले, कलयुग में जीव को
कष्ट बहुत, संताप भी बहुत
सुकदेव जी ने प्रवचन किया शास्त्र का
नाम उसका है, श्रीमद्भागवत।
कलयुग के सर्प का नाश करे
उन्होंने कथा परीक्षित को थी कही
मन हो जाये शुद्ध ये सुनकर
इससे बढ़कर कोई साधन नहीं।
जब परीक्षित को कथा सुनाएं
देवता अमृत कलश ले आये
विनती करें सुकदेव जी को वो
अमृत के बदले कथा सुनाएं।
परीक्षित जी अमृत का पान करें
भगवत कथा हम सुनलें सारी
शुकदेव जी ने मना कर दिया
कहा, तुम इसके न अधिकारी।
पूर्वकाल में ब्रह्मा जी को
आश्चर्य हुआ था ये देखकर
परीक्षित ने मुक्ति थी पाई
श्रीमद्भागवत का पान कर।
सत्यलोक में बांधा तराजू
सब साधनों को तोला था तब
भागवत ही थी सबसे भारी
बाकी हलके पड गए थे सब।
ऋषि वहां पर सब विस्मित हुए
कहें प्रभु के प्रेम में भरकर
ये शास्त्र है बहुत पवित्र
पढ़ने से मोक्ष मिले शीघ्र।
पूर्वकाल में सनकादि ने
नारद को था ये सुनाया
ब्रह्माजी ने पहले ही बता चुके
सप्ताह श्रवण उन्होंने बताया।
शोनक जी कहें, आप को किसने
ये पवित्र कथा सुनाई
सूतजी बोले, शुकदेवजी ने ही
मुझको ये सब है बताई।
विशालपुरी में सनकादि चारों
सत्सग के लिए आये थे
देखा नारद को वहां पर
मुख पर दुःख के बादल छाये थे।
पूछा, ब्राह्मण व्याकुल क्यों हो
नारद बोले, पृथ्वी पर आया
सोचकर सर्वोत्तम लोक है
संतोष तीर्थों में न पाया।
कलयुग ने पीड़ित किया धरती को
दया, दान न जाने गया कहाँ
पेट पालने को लगे सब
अधर्मी मंद बुद्धि सब यहाँ।
असल में सब के सब पाखंडी हैं
ज्ञानी, संत हैं कहलाते जो
देखने में विरक्त लगें जो
धन, स्त्री का परिग्रहण करें वो।
घरों में स्त्रिओं का राज्य है
साले सलाहकार बने हैं
लोग करते कन्या विक्रय हैं
सभी अशांत, घर में कलह है।
अधर्मियों ने अधिकार कर लिया
आश्रमों, तीर्थों पर सारे
न कोई योगी, न सिद्ध है
ब्राह्मण धन लेकर पढ़ा रहे।
विचरता हुआ यमुना तट पहुंचा
देखा युवती एक खिन्न बैठी है
उसके साथ दो वृद्ध पुरुष हैं
उन्हें देख रोती रहती है।
उसके चारों और स्त्रियां
पंखा झलें, उसको समझाएं
उसके पास गया, मुझसे कहा
अच्छा हुआ, आप यहाँ आये।
मैंने तब था उससे पूछा
कौन हो तुम, ये स्त्रियां कौन हैं
कौन हैं दो ये पुरुष साथ में
वृद्ध दोनों ये क्यों मौन हैं।
युवती बोली, मैं भक्ति हूँ
ज्ञान, वैराग्य ये दो पुत्र मेरे
ये स्त्रियां गंगा अदि नदियां
सेवा में रहतीं मुझको घेरे।
द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई मैं
आते आते बुढ़ापे ने घेरा
पाखंडिओं ने मेरे अंग भंग किये
वृन्दावन में तरुण शरीर हुआ मेरा।
परन्तु मेरे दो पुत्र दुखी हैं
अन्यंत्र मैं जाना चाहूँ
ये दोनों क्यों बुड्ढे हो गए
और मैं हुई फिर से तरुणी क्यों।
आप परम बुद्धिमान हैं
क्या कारण,बताएं मुझे सारा
नारद बोले, विषाद करो न
हरि कल्याण करें तुम्हारा।
कलयुग दुःख दे रहा मनुष्यों को
शेष के लिए पृथ्वी भार सी
पर वृन्दावन तीर्थ धन्य है
भक्ति सदा यहाँ नृत्य कर रही।
तुम इसलिए ही तरुणि हो गयी
पर पुत्रों का ग्राहक कोई न
इसीलिए बुढ़ापा न छूटा
ज्ञान वैराग्य का सम्मान कोई न।
भक्ति कहे परीक्षित ने यहाँ पर
कलयुग को क्यों रहने दिया
कैसे हरि अधर्म ये देखें
नारद ने तब ये उत्तर दिया।
जिस दिन कृष्ण भूलोक छोड़कर
अपने परमधाम चले गए
उसी दिन ही इस धरती पर
कलयुग आ गया, वो यहीं रहे।
राजा परीक्षित की दृष्टि पड़ी
कलयुग उनकी शरण में गया
इसका वध न करूँ मैं
राजा ने फिर ये निश्चय किया।
तपस्या योग से फल जो मिले
कलयुग में मिले वो हरि कीर्तन में
इसी लिए था छोड़ दिया उसे
इसका गुण है ये, सोचा मन में।
ब्राह्मण अन्न और धन के लोभवश
जन जन को भागवत सुनाएं
इसीलिए इस कथा का
सार कम है होता जाये।
तीर्थों में घोर कर्म करते जो
घर बने वो नास्तिको का
इसीलिए ही हुआ है
प्रभाव ख़तम सब तीर्थों का।
चित काम, क्रोध, लोभ में जिनका
तपस्या का ढोंग करते हैं
तप का भी सार न रहा
नित दिन स्वांग नया रचते हैं।
पंडित मुक्ति साधन में अकुशल हैं
वैष्णवता भी नहीं रही है
ध्यानयोग का फल भी मिट गया
पर इसमें किसी का दोष नहीं है।
ये तो इस युग का स्वाभाव है
ये तो कलयुग का शाप है
ये सुनकर भक्ति को आश्चर्य हुआ
कहे, देवऋषि धन्य आप हैं।
एक बार उपदेश धारण किया
प्रह्लाद ने, माया को जीत लिया
ध्रुव ने आपसे कथा सुनी और
ध्रुवपद उन्होंने प्रपात किया।
आप ब्रह्मा जी के पुत्र
नमस्कार मैं करूँ आपको
ऐसा कोई उपाय करो कि
जो हरे, पुत्रों के ताप को।
