कर्ण था
कर्ण था
बचपन से उसको सुत कहा
सभी ने उसे अछूत कहा
वीरों का वो वीर था
सूर्य ने जिसे अपना पूत कहा
जब बो रण में उतरे
काल भी घबराता था
आज किसका जनाज़ा उठेगा
यह सोचकर वह भी डर जाता था
मुख में सूर्य जैसा तेज़
आँखों में शिव जैसा क्रोध
जब जब उसके बाण चले
रणभूमि भी रोती थी रोज़
वचनों का शौकीन था
इंद्र भी उसका ऋणी था
जब उसे मृत्यु आई
तो काल भी रोने लगा
पापी वो था नहीं पर
पापी कहलाया था
पाप बस इतना था
मित्रता के खातिर अधर्म का साथ निभाया था
जब द्रोपती ने उसका अपमान किया
बस दुर्योधन ने उसका साथ दिया
कैसे वो मित्रता नहीं निभाता
जब कृष्णा ने भी अपना मुख मौन किया
शिष्य ऐसा था गुरु भी फकर करें
श्राप बस यह था विद्या को कर तु मरे
जब तुझे जरुरत हो मेरी विद्या की
स्मरण तुझे कुछ ना रहे
श्राप बस यह था विद्या खोकर तू मरे
दानवीर था ऐसा अपने अंग से जुड़े कवच कुंडल भी उसने दान दिये
जब मृत्यु थी सामने तब भी उसने दान दिये
उसकी महानता का यह समाज आज भी गुण गाता है
दानवीर की सूची में बस उसी का नाम आता है
दानवीर की सूची में बस कर्ण का नाम आता है
वीरो का वीर और दानवीर भी बड़ा
मृत्यु का उसे भय नही बिना धनुष के बो रण मे खड़ा
काल भी जब उसे देखे बह से बो भी कांपे
कैसे बो मृत्यु का काल बनकर खड़ा
मृतुन्जय कहेकर गुरु ने समान उसे दिया
अंतिम समये मे भी दान है उसने दिया
एक वचन के खातिर हँसकर
मौत के नाम अपना नाम कर दिया।
