शक्ति-स्वरुप
शक्ति-स्वरुप
प्रथम सर्ग
काँप रही थी पृथ्वी, स्वर्ग भी था भयभीत।
महिषासुर ने लिया, तीनों लोकों को जीत।
त्राहि माम के गुंजन से, सृष्टि भर गयी सारी।
जग में आतंक मचा रहा, वो क्रूर अत्याचारी।
उसकी शक्ति के सम्मुख, देव भी थे लाचार।
ब्रह्मदेव के वर स्वरुप, निष्फल हुये प्रहार।
वज्र व्यर्थ बाण बेकार, सुदर्शन सफल नहीं।
देवता घूम रहे चहुँ ओर, मिले न चैन कहीं।
थक हार कर सब पहुँचे, महादेव के पास।
निराश हृदय में लेकर, एक छोटी सी आस।
त्रिलोक नाश का सामर्थ्य, रखते हैं त्रिपुरारी।
महिषासुर के सम्मुख, उनकी शक्ति भी हारी।
देख दृश्य दुष्कर, सबका क्रोध उमड़ आया।
कौंधी बिजली ऐसे, काँप उठी अवनि काया।
देवों के मस्तक से तब, तेज पुंज प्रकट हुआ।
कोटि कण अग्नि मिल, वडवानल प्रचंड हुआ।
सहस्त्र सूर्यों का प्रकाश, समस्त विश्व में छाया।
प्रकाशपुंज मध्य में स्थित, तेज भरी एक काया।
दिव्य दर्शन देवी के ऐसे, नेत्र नहीं टिक पाते।
शक्ति का अनुभव ऐसा, हाथ स्वयं जुड़ जाते।
श्रीविष्णु बोले यह, साकार रूप है शक्ति का।
समझो जैसे उत्तर है, निज संकट व भक्ति का।
सुन प्रभु की ऐसी वाणी, ऊर्जा का संचार हुआ।
शिथिल शरीरों में, नवशक्ति का विस्तार हुआ।
सब देवों ने देवी को, अस्त्र शस्त्र प्रदान किये।
देवी ने उग्र हुंकार भरी, जग पीड़ा संज्ञान लिये।
माँ मुक्ति दो अत्याचार से, करो उद्धार हमारा।
भक्तों की व्यथा सुन माँ ने, दैत्य को ललकारा।
दहले दानव दल देख, कात्यायनी का रौद्ररूप।
महिषासुर भी भयभीत हुआ, देख शक्ति स्वरुप।
भीषण युद्ध छिड़ गया, दोनों ने किये प्रहार।
अंततः माता ने कर दिया, महिषासुर संहार।
ऋषियों ने माँ वंदन को, सुन्दर श्लोक बनाये।
गृहस्थों ने माता सम्मुख, स्वादिष्ट भोग चढ़ाये।
हर्षित हुये देव व मानव, स्वतंत्र हुआ जग सारा।
भक्ति में सब डूब लगाते, माँ का जयजयकारा।
द्वितीय सर्ग
इस तरह जगराते में हुयी, माँ की कथा समाप्त।
अच्छाई की जीत देख, हुआ हिय को हर्ष प्राप्त।
अपना उद्धार कब होगा, यही सोचता घर आया।
जग पर अब भी मंडराता, महिषासुर का साया।
दुर्बल-निर्धन आज भी सहते, अगणित अत्याचार।
कौन करेगा अपराधियों का, फिर समूल संहार।
इनके पास भी है कवच, ऊपर से वरदानों का।
इसीलिए होता निरर्थक, हर अस्त्र कानूनों का।
माँ मेरी विनती तुमसे, कुछ तो राह दिखाओ।
कैसे न्याय करें स्थापित, कोई उपाय बताओ।
रक्तबीज सदृश इनकी, संख्या बढ़ती जाती।
दीन दुखी दुनिया बचाने, क्यों नहीं तू आती।
यही प्रार्थना हृदय बसाये, जाने कब सो गया।
स्वप्न में माता प्रकट हुईं, ऐसी मुझपे की दया।
मंद मंद मुस्काते, ममता से मस्तक सहलाया।
बोलीं कथा से मेरी, क्या इतना समझ न आया।
शक्ति का मूल क्या है, क्या है सत्य स्वरुप।
किस श्रोत से प्रकट है होती, शक्ति ये अनूप।
क्या कभी सोचा तुमने, क्यों ऐसा हाल तुम्हारा।
क्यूँ मुट्ठी भर लोगों से, आतंकित ये जग सारा।
याद कर मेरे रूप का, श्रोत था सबका क्रोध।
मैं तुम सबमें सन्निहित, कर लो इसका बोध।
न्याय तुम्हें मिल जायेगा, जब तुम ये जानोगे।
स्वयं में स्थित शक्ति को, स्वयं ही पहचानोगे।
अनाद्यनन्त है प्रकृति मेरी, न निज एक स्थान।
सामूहिक शक्ति हूँ मैं, करो मिल के आव्हान।
जो जग में परिवर्तन चाहो, करो स्वयं शुरुआत।
मर्म मेरी कथा का जानो, इतनी छोटी सी बात।
माता वचनों को सुनके, दूर हुआ सब संशय।
एकता में शक्ति इतनी, निश्चित है अपनी जय।
सन्देश यही फैलाना है, प्रण लेता हूँ मैं आज।
अपनी शक्ति से ही सार्थक, अपने सारे काज।
हे देवी तुझे नमन जो, स्थित है शक्ति रूप में।
सर्वव्यापी कालजयी, वर्तमान भविष्य भूत में।
हे देवी तुझे नमन जो, स्थित है बुद्धि रूप में।
मन मानस में मेरे बसती, ज्ञान के स्वरुप में।