बलात्कार
बलात्कार
बलात्कार के चार पहलुओं को अभिव्यक्त करते चार मुक्तक
(1)
सुनो सभी ये ध्यान से, बलात्कार पाप है।
अक्षम्य कृत्य दानवी, समाज पर ये श्राप है।
कली वही कुचल गई, जो ज़िन्दगी का श्रोत थी,
किसी के क्रूर हास से, कहीं करुण कलाप है।
(2)
कभी कुसूर वक़्त का, या वस्त्र पर सवाल है।
न पूछते पुरुष से कुछ, अजीब ये कमाल है।
समाज में निवास में, अनेक भेड़िये छिपे,
न उम्र का लिहाज़ है, न रिश्ते का ख़याल है।
(3)
विधान की किताब में, भले नियम हज़ार हैं।
गुनाहगार छूटते, भला क्यूँ बार बार हैं।
अदालतों में मिल रही, दिनांक पर दिनांक है,
व्यथित निराश पीड़िता, तड़पती ज़ार ज़ार हैं।
(4)
कुकर्म का असत्य का, पुरुष भी तो शिकार है।
ये बात लिंग की नहीं, मेरा यही विचार है।
जघन्य पाप जो करे, उसे अवश्य दंड दो,
बलात्कार ख़त्म हों, ये वक़्त की पुकार है।
मापनी (१२१२१२१२, १२१२१२१२)
