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Arun Kumar Prasad

Tragedy

5  

Arun Kumar Prasad

Tragedy

है वही दिन,रात का रोना

है वही दिन,रात का रोना

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है वही दिन,रात का रोना।

वही दरके हुए गाने, वही रूठा जमाना।

दोस्तों की दुश्मनी का बस वही दस्तक।

परिस्थितियों के सामने

मेरा झुका मस्तक।


आस्था से भरे फूल-मालाओं की थाली

बजा,गाकर नदी में डालने, ताली।


क्रियाओं की प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ।

स्नेह बड़ी करती निरीह,दरिद्र माँएँ।


जीव-जंतुओं के, प्रदूषण से निकलते दम ।

आतंक का बड़ा हो जाता हुआ भय, हरदम।


उसीके द्वारा विज्ञापनों का समझ न आनेवाला

परसा जाता मिथ्या बाजार।

आदमी जिसने, मूर्खतावश

‘विशिष्ट’ उसे बनाया यार।


धूल से अंटे सूरज की रौशनी में

फूलों की मद्धम चमक।

अनपढ़ नेताओं का अनहद विस्तृत ज्ञान।


न राजनीति न राष्ट्रनीति

बस नेतानीति की धमक।

अर्थात राष्ट्र को देश में

कैद कर देने का संकल्प।

धर्म को राष्ट्र या सत्ता समझने वाले लोगों का

महिमा मंडन।

सत्ता के लिए स्वच्छता धारण किए लोगों का

मानसिक अपहरण।

समाज के असामाजिक नेतृत्व से

बढ़ता हुआ सिर दर्द।


भीड़ तंत्र को प्रजातन्त्र

बताने को रास्तों का मान-मर्दन।


चुनावी नारों में वायदों की लंबी सूची।

वायदों में राष्ट्रीय आस्थाओं की

हत्या की संख्या निरंतर होती ऊंची।


जन-कल्याण को राष्ट्रधर्म से उतार।

उपक्रम बताने इसे परोपकार।

हरदम हो जाना उसके कृत्यों से क्षुब्ध।

और बार-बार होते रहना

अपनी निरीहता पर क्रुद्ध।


अराजक प्रजातन्त्र की पैरवी करते

स्वयंभू नेताओं के समूह पर उभरता आक्रोश।

अपने ही देश का हर बात पर

करना विरोध,करना विद्रोह।

है वही दिन,रात का रोना।

अपना तन अपने ही क्रोध में खाते जाना।

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