श्रीमद्भागवत -१४० ; प्रह्लाद जी द्वारा नारद जी के उपदेश का वर्णन
श्रीमद्भागवत -१४० ; प्रह्लाद जी द्वारा नारद जी के उपदेश का वर्णन
नारद जी कहें, हे युधिष्ठर
प्रश्न किये दैत्य बालकों ने जब
मेरी बात का स्मरण किया
भगवान् भक्त प्रह्लाद जी ने तब ।
कहने लगे कि जब पिता मेरे
मंदराचल पर तपस्या करने गए
बड़ा उद्योग किया देवताओं ने
दानवों से युद्ध करने के लिए ।
दैत्यसेनापतियों को जब
तैयारी का उनकी पता चला
उनका सामना न कर सके वो
साहस उनका था जाता रहा ।
भाग गए थे इधर उधर वो
अपने प्राण बचाने के लिए
देवताओं ने महल को लूटा
माँ को बंदी बना लिया इंद्र ने ।
देववश देवऋषि नारद
निकले उधर को, और मार्ग में
मेरी माँ को देख लिया था
और उन्होंने कहा इंद्र से ।
देवराज, यह निरपराध है
ले जाना उचित न इसे
सती नारी का तिरस्कार न करो
छोड़ दो तुरंत ही इसे ।
इंद्र ने कहा कि इसके पेट में
देवद्रोही हिरण्यकशिपु का वीर्य है
मेरे पास रहे ये बालक होने तक
मार कर उसे, इसे छोड़ दूंगा मैं ।
नारद जी कहें, इसके गर्भ में
भक्त एक, भगवान का प्रेमी
अत्यंत बली, निष्पाप महात्मा
मारने की उसे, तुममे शक्ति नहीं ।
नारद का सम्मान कर इंद्र ने
छोड़ दिया मेरी माता को
गर्भ में भगवान भक्त है सोच कर
माँ की प्रदक्षिणा कर, गए अपने लोक को ।
इसके बाद देवऋषि नारद
माँ को अपने आश्रम ले गए
कहा बेटी, तब तक यहीं रहो
जबतक तुम्हारा पति न लौटे ।
मेरी माता आश्रम में रहकर
सेवा करने लगी नारद जी की
नारद जी दयालु और सर्वसमर्थ हैं
शिक्षा माँ को दी भागवत धर्म की ।
विशुद्ध ज्ञान का भी उपदेश दिया
उनकी दृष्टि मुझपर भी थी
मेरी माता अब भूल गयी सब
मुझे परन्तु विस्मृत्ति ना हुई ।
यदि तुम मेरी इस बात पर
श्रद्धा करो तो तुम्हे भी
यह ज्ञान हो सकता, क्योंकि
श्रद्धा से शुद्ध होती है बुद्धि ।
आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध,एक
क्षेत्रज्ञ,आश्रय,निर्विकार, स्वयं प्रकाश है
सबका कारण, व्यापक,असंग
और ये आवरण रहित है ।
उत्कृष्ट लक्षण ये बारह इसके
उनके द्वारा ही पुरुष को चाहिए
झूठ भाव, मैं और मेरे का
इस अज्ञान को वो छोड़ दे ।
आत्मप्राप्ति के उपायों द्वारा शरीर में
ब्रह्मपद का साक्षात्कार है होता
गुणों, कर्मों से होने वाला
जन्म मृत्यु का चक्र है मिथ्या ।
इसी लिए तुम लोगों को
सबसे पहले गुणों, कर्मों का
बीज नष्ट कर देना चाहिए
फिर प्रभु का मिलन है होता ।
यों तो इसके सहस्त्रों साधन हैं
परन्तु सर्वश्रेष्ठ है वही उपाय
जैसे भी और जिस उपाय से
भगवान से निष्काम प्रेम हो जाये ।
गुरु की प्रेमपूर्वक सेवा
जो मिले प्रभु को समर्पित करे
भगवत्प्रेमी महात्माओं का सत्संग
और प्रभु की आराधना करे ।
उनकी कथा वार्ता में श्रद्धा
कीर्तन उनके गुण लीलाओं का
उनके चरणकमलों का ध्यान और
दर्शन पूजन मन्दिर मूर्ती का ।
इन सब साधनों से ही
भगवान से स्वाभाविक प्रेम हो जाता
कृष्ण की भक्ति है मिल जाती
चित्त शांत और शुद्ध हो जाता ।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद
और मत्सर ये छ शत्रु जो
विजय प्राप्त कर इनपर जो हरि भजे
कृष्ण चरणों में प्रेम की प्राप्ति हो ।
जब भगवन के गुणों चरित्रों का
श्रवण कर, तन्मय हों भगवान् में
पुकारतता हरे नारायण कहकर, तो
बंधन कटें, भक्ति के प्रभाव से ।
भगवन्मय वह हो जाता है
भगवा न को प्राप्त कर लेता
विद्वान् इसे ब्रह्म कहते हैं
संसार चक्र है मिट जाता ।
इसलिए मित्रो, तुम अपने अपने
हृदय में भगवान् भजन करो
उन्हें छोड़ भटकना मूर्खता
सब प्राणियों के प्रेमी मित्र वो ।
मनुष्य को सुख दे नहीं सकते
स्त्री, पुत्र,समस्त धन आदि
क्षणभंगुर ये मनुष्य है
ये सब क्षणभंगुर वैसे ही ।
जैसे इस लोक की संपत्ति
नाशवान है जो प्र्त्यक्ष ही
स्वर्गादि जो लोक हैं वो भी
नाशवान होते वैसे ही ।
वो लोक भी एक दुसरे से
ऊँचे नीचे, छोटे बड़े हैं
इसलिए वो निर्दोष नहीं हैं
निर्दोष तो केवल परमात्मा है ।
दोष देखा न किसी ने उसमें
और दोष सुना न कोई
अत: उन्ही का भजन करो ताकि
प्राप्ति हो उन परमात्मा की ।
इस लोक में पुरुष ये
जिस उदेश्य से कर्म करें
उस उदेश्य की प्राप्ति तो दूर रही
विपरीत ही फल मिलता उससे ।
कर्म में प्रवृत होने के
उदेश्य होते हैं दो ही
दुःख से छुटकारा और सुख पाना
पर उसे ये मिलते नहीं ।
सकार कर्मों के द्वारा जिसके लिए
भोग प्राप्त करना चाहता है
मनुष्य का वही शरीर ये
पराया और नाशवान है ।
कभी मिल जाता, कभी बिछुड़ता
ये दशा है शरीर की ही जब
अलग रहने वाले पुत्र, स्त्री, धन
उनकी तो बात ही क्या तब ।
शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते
ये सब तुच्छ विषय जो
अनन्त आनन्द का समुन्द्र है
सर्वदा अपनी आत्मा ही तो ।
आवश्यकता न उसको इन वस्तुओं की
भाइयो, तनिक विचार तो करो
गर्भधान से लेकर मृत्यु तक मनुष्य
कर्मनुसार कलेश भोगता वो ।
सूक्षम शरीर को आत्मा मानकर
उसके द्वारा कर्म करता है
कर्मों के द्वारा शरीर ग्रहण करे
ये चक्र चलता रहता है ।
अविवेक के कारण होता ये सब
इसलिए निष्काम भाव से
हरि का भजन करना चाहिए
धर्म, अर्थ, काम आश्रित उन्हीं के ।
मिल नहीं सकते हैं ये सब
बिन उन हरि की इच्छा से
ब्राह्मण, देवता, ऋषि होना पर्यापत नहीं
उनको प्रसन्न करने के लिए ।
ज्ञानों से संपन्न होना और
अनुष्ठान करना बड़े बड़े
ये सब बिडम्बना मात्र हैं
प्रसन्न हों वो निष्काम भक्ति से ।
इसलिए सर्वत्र विराजमान
सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान जो
उन हरि का ही भजन और
उन भगवान की भक्ति तुम करो ।
सबसे बड़ा एकमात्र परमार्थ
मनुष्य शरीर का इस संसार में
है ये कि वो श्री कृष्ण की
अनन्य भक्ति प्राप्त करे ।
उस भक्ति का स्वरुप है
कि सर्वदा, सर्वत्र सब वस्तुओं में
जीव को चाहिए कि वो
भगवान का ही दर्शन करे ।