श्रीमद्भागवत -१८८; परशुराम द्वारा क्षत्रिओं का संहार और विश्वामित्र के वंश
श्रीमद्भागवत -१८८; परशुराम द्वारा क्षत्रिओं का संहार और विश्वामित्र के वंश
श्री शुकदेवजी कहते हैं परीक्षित
आज्ञा पिता की स्वीकार करके वे
एक साल तीर्थ यात्रा कर
लौट आये आश्रम पर अपने।
एक दिन की बात है कि
परशुराम की माता रेणुका
गंगा पर गयीं थीं वो
वहां पर गन्धर्व चित्ररथ को देखा।
कमलों की माला पहने चित्ररथ
अप्सराओं संग विहार कर रहा
देखते देखते भूल गयीं कि
पति के हवन का समय हो रहा।
मन भी उनका खिंच गया था
कुछ कुछ चित्ररथ की और को
हवन का समय बीत जाने पर
आश्रम को चलीं भयभीत होकर वो।
महर्षि के सामने कलश रखा जल का
खड़ी हो गयीं हाथ जोड़ के
मानसिक व्यभचार को जान लिया था
मुनि ने अपनी पत्नी के।
क्रोध में भरकर पुत्रों से कहा
मार डालो इस पापिनी को अभी
परन्तु किसी भी पुत्र ने
आज्ञा स्वीकार न करी थी उनकी।
इसके बाद पिता की आज्ञा से
मार डाला था परशुराम ने
माता के साथ सभी भाईओं को क्योंकि
पिता के प्रभाव को जानते थे वे।
परशुराम के इस कार्य से
जमदग्नि प्रसन्न हो गए
जो इच्छा हो वर मांग लो
परशुराम से कहा उन्होंने।
परशुराम कहें, पिता जी
जीवित हों मेरी माता और भाई
और मैंने मारा है उनको
पता न चले उन्हें यह भी।
ऐसा कहते ही परशुराम के
अनायास ही सकुशल बैठ गए
उनकी माता और भाई सब
ऐसे जैसे कोई सौ कर उठे।
परीक्षित, सहस्रबाहु के लड़के जो
पहले हारकर भाग गए थे
याद् निरंतर बानी रहती थी
पिता के वध की उन्हें।
एक दिन अपने भाईओं के साथ में
परशुराम जब वन गए हुए
अवसर पाकर वे लड़के फिर
जमदग्नि के पास पहुंच गए।
अग्निशाला में बैठे थे ऋषि
भगवान् के चिंतन में मगन थे
उसी समय ही जमदग्नि को
मार डाला उन लड़कों ने।
परशुराम की माता रेणुका
प्रार्थना कर रही थी उनसे
लड़कों ने उसकी एक न सुनी
सिर काटकर ऋषि का ले गए।
शोक में भरकर रेणुका फिर
आतुर हो गयीं, क्रुन्दन करने लगी
परशुराम आश्रम में आये
क्रंदन सुन माता का तभी।
आश्रम आकर उन्होंने देखा
पिता का है वध हो गया
बहुत क्रोध आया था उन्हें
किसने किया ये, जब पता चला।
शरीर अपने पिता का उन्होंने
सौंप दिया अपने भाईओं को
स्वयं फरसा उठाकर निश्चय किया
मार डालने के लिए क्षत्रिओं को।
महिष्मति नगरी में जाकर
सहस्रबाहु के पुत्रों के सिरों से
बड़ा पर्वत एक खड़ा कर दिया
परशुराम ने नगर के बीच में।
बड़ी भयंकर नदी बह निकली
उन सब लोगों के खून से
जिसे देख ब्राह्मणद्रोहियों का
ह्रदय कांप उठता था भय से।
भगवान् ने देखा क्षत्रिय
अत्याचारी सब हो गए थे ये
इसलिए निमित्त बना पिता के वध को
पृथ्वी को क्षत्रियहीन किया उन्होंने।
इक्कीस बार किया था ऐसा
और कुरुक्षेत्र के समन्तपंचक में
पांच तालाब बना दिए थे ऐसे
भरे हुए जो रक्त के जल से।
अपने पिता का सिर लाकर फिर
धड़ से जोड़ा परशुराम ने
यज्ञों द्वारा यजन किया प्रभु का
समस्त पापों से मुक्त हो गए।
स्मृतिरूप संकल्पमय शरीर की
प्राप्ति हुई ऋषि जमदग्नि को
सप्तरिषि मंडल में गए वो
परशुराम जी से सम्मानित हो।
परीक्षित, भगवान् परशुराम जी
रहकर सप्तऋषिओं के मंडल में
आगामी मन्वन्तर में वो
वेदों का विभाजन करेंगे।
किसी न किसी प्रकार का दण्ड
देते हुए आज भी वे
शांत चित से परशुराम जी
महेंद्र पर्वत पर निवास हैं करते।
सिद्ध, गन्धर्व, चारण वहां उनके
चरित्र का गान हैं करते रहते
पृथ्वी के समस्त राजाओं का
ऐसे वध किया भगवान् हरि ने।
तेजस्वी विश्वामित्र जी
महाराज गाधि के पुत्र हुए
ब्रह्मतेज प्राप्त कर लिया
क्षत्रियत्व का त्याग करके उन्होंने।
विश्वामित्र के सौ पुत्र थे
मधुच्छन्द नाम, बिचले पुत्र जो
मधुच्छन्द ही कहते हैं इसलिए
उनके इन सभी पुत्रों को।
भृगुवंशी अजीगर्त के पुत्र
भांजे शुनःशेप को विश्वामित्र ने
जिसका नाम देवरात भी था
स्वीकार किया उन्होंने पुत्र रूप में।
बड़ा भाई मानो तुम इसको
अपने पुत्रों को कहा उन्होंने
यह वही शुनःशेप था जो
यज्ञपशु था हरिश्चंद्र के यज्ञ में।
मोल लेकर लाया गया था उसको
छुड़ा लिया उसे पाशबंधन से
वरुण और देवताओं की
स्तुति करके विश्वामित्र ने।
देवताओं द्वारा विश्वामित्र को दिया
शुनः शेप यही था जो यज्ञ में
विख्यात हुआ देवरात के नाम से
अतः देवः रात: होने से।
बड़े पुत्रों को विश्वामित्र के
अच्छी नहीं लगी बात ये
कि शुनःशेप को बड़ा भाई मानें
क्रोधित हो शाप दिया विश्वामित्र ने।
पुत्रों को कहा उन्होंने, 'दुष्टो
तुम सब मलेच्छ हो जाओ
इस तरह उनके शाप से
मलेच्छ हो गए उनचास भाई वो।
मधुच्छन्दा जो बिचले पुत्र थे
पचास छोटे भाईओं के साथ में
विश्वामित्र से कहा उन सबने
पालन करें, आप जो आज्ञा दें।
शुनःशेप को स्वीकार कर लिया
बड़ा भाई मधुच्छन्दा ने
विश्वामित्र कहें कि तुम लोगों ने
सम्मान की रक्षा की है मेरे।
तुम जैसे सुपुत्र पाकर मैं
धन्य हो गया हूँ, और तुम्हे
आशीर्वाद मैं देता हूँ कि
तुम्हे भी सुपुत्र प्राप्त होंगे।
पुत्रो ये देवरात, शुनःशेप भी
है तुम्हारे ही गोत्र का
इसकी आज्ञा में रहना तुम
और कहना मानना तुम इसका।
परीक्षित, अष्टक, हारीत, जय, क्रतुमान
आदि भी पुत्र विश्वामित्र के
कौशिक गोत्र के कई भेद हो गए
इस प्रकार उनकी संतानों में।
देवरात को बड़ा भाई माना
विश्वामित्र के पुत्रों ने
इस कारण उसका प्रवर ही
दूसरा हो गया इसलिए।