पुश्तैनी मकान
पुश्तैनी मकान
1
कभी मीठी
कभी तीखी
कसक सा कसमसाता रहेगा
हरा भरा वृक्ष
फ़ूल-पत्ते और पत्तियों से लबरेज
इठलाया करता था अपनी शोखियों पर
लहराया करता था
हवा का आँचल बन
मगर उम्र के ढलान तो
सबको पार करने होते है
तब हर वृक्ष के पत्ते झड जाते है
पंछी भी घोंसले छोड उड जाते है
रहा जाता है तो बस एक ठूँठ बन
सारी ज़िन्दगी की यादों को समेटे
अपने अन्तस के कपाटों पर
दस्तक की प्रतीक्षा में
मगर मिट्ना जिसकी नियति हो
वहाँ कब हरियाली झरा करती है
वहाँ कब नव तरु विकसित हुआ करते है
आखिर कब तक प्रतीक्षा करे कोई
जो चले जाते है, लौट कर नहीं आया करते
जब ये सत्य आकार लेता है
बोध होने पर
खुद को मिटाने को तत्पर हो जाता है
आखिर कब तक जिये कोई
यादों के उजडे उपवन का माली बनकर
उजडे दयार गुलज़ार कब हुआ करते है
2
पुश्तैनी का मोह
जाने लहू में कब और कैसे
पैबस्त हो जाता है
कि पुश्तैनी शब्द के आते ही
उम्र का दरिया वापस मुड जाता है
और उभर आता है एक चलचित्र
जिसके नायक / नायिका आप स्वयं होते हो
करने लगते हो ध्वजारोहण
यादों की मीनारों पर
अपनी कुछ खट्टी मीठी यादों का
कालखंड के उस हिस्से में पहुँचते ही
तुम नहीं रहते तुम
बन जाते हो एक बार फिर उसी का हिस्सा
जी लेते हो एक बार फिर वहीं जीवन
यादों के बिच्छुओं के डंक
जब पैबस्त होते है दिल की शिराओं में
ईंट ईंट बोलने लगती है
झाड देती है सारा चूना मिट्टी
बचती है तो बस खालिस शुद्ध ईंट
जिसके पोर पोर में बसी होती है तुम्हारी महक
आज यादों के जंगल से आवाज़ देता है कोई
बुलाता है पुश्तैनी मकान की ओट से
जहाँ बचपन की किलकारियाँ
यौवन की खुमारियाँ
राग भैरव गा जगा जाती है सुप्त पडी संवेदनाओं को
3
यादों के झुरमुट में टटोलो
तो बस सिर्फ़ यादें ही बची है
छूकर महसूसने के एहसास तो बस
ख्वाबों की ताबीर हुए
एक अपनेपन की ऊष्मा
तब्दील हो चुकी है सर्द थरथराहट में
था एक कमरा
जहाँ सावन के हिंडोले
पींग भरा करते थे
चारपाई डालकर झोटे लेने की कवायद
बचपन की फ़ेहरिस्त में शामिल
महज इक खुशनुमा धुंधली
याद भर बन कर रह गयी
था एक और कमरा
लगता था कभी कभी
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इक कब्र में दफ़न हो आत्मा कोई
पुरवाई चले चाहे पछुआ
अनावृत करने को
अपने सिवा कोई न था
जो उडा देता आँचल
जो फ़डफ़डा देता पंख
जहाँ सीमित से हो जाती असीम
वो भोर के कलरव
वो रात्रि की निस्तब्धता में
टिमटिमाते तारों से मौन वार्तालाप
ढूँढना आकार प्रकार सप्तॠषियों का
वो पुरवाई के न चलने पर
पुरों के नाम ले ले कर
पुरवाई का आह्वान करना
वो सांझ की चौखट पर
तितली सी उडना
गोल गोल घूमते घूमते
स्वयं को पृथ्वी सा महसूसना
ज़िन्दगी की रुसवाइयों परेशानियों से दूर
जाने कितने स्रोत बह रहे है अब भी
जो कभी नहीं मिटते
बाबा की कोठरी
हाँ यही नाम दिया गया था उसे
सुना है बाबा वहीं ध्यान-पूजा किया करते थे
गुजारा है एक अर्सा वहाँ भी
बचपन और यौवन की मिली जुली अवस्था का
जो गुलजार कर दिया करती थी
बुझती आस की मिट्टी को भी
जाने किन सरकंडों में खो गया है मन
जो अब नहीं होकर भी है
अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे है
क्या सशरीर उपस्थिति ही सही मायनों में उपस्थिति है
या फिर
अनुपस्थित होकर भी उपस्थित होने में सार्थकता है
यदि बना जाए कोई अपनी यादों का स्मारक
और तुम चढा सको उस पर अपनी भावनाओं के फ़ूल
प्रगाढ चिंतन के विषयों में अब कौन उलझे
बस झाँकना है खिडकी से बाहर
ताकि नज़र आ जाए मुझे मेरी धरती और मेरा आकाश
4
क्योंकि
यादों की गंगोत्री में
डुबकी लगाने तक ही
रह गयी है थाह
हाथ लगाकर कुछ गहरे साँस भरकर
कुछ पल फिर उसी के
कमसिन आगोश में कसमसाने
खुद से मिलने की ख्वाहिशों पर लगे
अनाम पहरे
नहीं लौटा पाते बीते हुए दिनों को
जहाँ उम्र का पहला हिस्सा
आकार लिया करता है
जहाँ पहला डग भरते ही
एक जवाकुसुम खिला करता है
बस रह गया है
यादों का हिस्सा बनकर
गल्प कहानियों सा
मिटने वाले हिस्से पुनर्जीवित नहीं हुआ करते
कृत्रिम अंग न ही वो रूप दिया करते है
फिर कैसे संभव है
यादों की बारहदरियों में सिमटे
वजूद के अक्स को मिटाना
हिस्सा होता है अपने ही अंग का
कोई भी पुश्तैनी मकान
फिर चाहे बिक जाने पर मिट जाए अस्तित्व
मगर जो यादों की धरोहर हुआ करते है
वो पुश्तैनी मकान न कभी बिका करते है
और न ही संभव है किसी का उसकी कीमत आँकना