श्रीमद्भागवत - १९८ ; भगवान् का गर्भ प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ स्तुति
श्रीमद्भागवत - १९८ ; भगवान् का गर्भ प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ स्तुति
शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
कंस एक तो बली था स्वयं ही
दुसरे सहायता प्राप्त थी उसको
मगधनरेश जरासंध की |
तीसरे उसके बहुत से साथी
प्रलम्बासुर, बकासुर, चाणूर, तृणावर्त थे
अधासुर, मुष्टिक, अरिष्टासुर, द्विविद
पूतना, केशी और धेनुक आदि ये |
तथा बाणासुर और भौमासुर आदि
सहायक दैत्यराज बहुत से
इन सबको साथ लेकर वो
यदुवंशियों को नष्ट लगा करने |
कुरु, पांचाल, केकय, शल्व, विदर्भ
निषध, विदेह, कौशलादि देशों में
भाष्य्भीत हो उससे लोग न बसें
कुछ उसकी सेवा में लगे रहे |
वो भी ऊपर ऊपर से ही
उसके मन अनुसार काम करते थे
कंस ने देवकी के छ बालक
एक एक कर मार डाले थे |
तब देवकी के सातवें गर्भ में
भगवान् के अंशावतार श्री शेष जी
पधारे तो, देवकी को हर्ष हुआ
उनके आने के कारण स्वाभाविक ही |
परन्तु कंस उसे मार न डाले
इस भय से बढ़ गया शोक भी
भगवान् ने भी जब देखा ये कि
यदुवंशी सर्वस्व मानें मुझे ही |
और कंस सता रहा उनको
तब आदेश दिया योगमाया को
देवी तुम ग्वालों, गोपों से सुशोभित हो
इस प्रदेश व्रज में जाओ |
वासुदेव की पत्नी रोहिणी निवास करें
वहां नंदबाबा के गोकुल में
और भी पत्नियां उनकी रह रहीं
कंस के डर से गुप्तस्थानों में |
इस समय मेरे अंश शेष जी
स्थित हैं देवकी के गर्भ में
वहां से निकालकर तुम उन्हें
रख दो रोहिणी के पेट में |
समस्त ज्ञान, बल आदि के साथ मैं
देवकी का पुत्र बनूँगा
नन्द की पत्नी यशोदा के
गर्भ से जन्म लेना तुम वहां |
मुहमाँगा वरदान देने में
समर्थ होओगी तुम सब लोगों को
पूर्ण करने वाली अभिलाषा
तुम्हारी पूजा करें ये जान वो |
नाम कई, दुर्गा, भद्रकाली, वैष्णवी
कुमुदा, चंडिका, कृष्णा, माधवी
कन्या, माया, नारायणी, इशानी
विजया, शारदा और अम्बिका आदि |
बहुत से स्थान बनाएंगे
लोग पृथ्वी पर तुम्हारे लिए
शेष जी को संसार में
सभी लोग संकर्षण कहेंगे |
नाम ये खींचे जाने के कारण
उनको देवकी के गर्भ से
और लोकरंजन करने के कारण
लोग उन्हें राम भी कहेंगे |
क्योंकि बलवानों में श्रेष्ठ
बलभद्र भी कहेंगे उन्हें
इस तरह आदेश पाकर भगवान् का
योगमाया चली गयी पृथ्वी लोक में |
भगवान् ने जैसा कहा था
वैसा ही किया वहां जाकर
रोहिणी के उदर में रख दिया
देवकी के गर्भ को ले जाकर |
देवकी का गर्भ नष्ट हो गया
पुरवासी ये दुःख के साथ कहने लगे
भक्तों का अभय करने वाले
भगवान् तो हैं सर्वत्र सब रूप में |
इसलिए वासुदेव के मन में प्रकट हुए
अपनी समस्त कलाओं के साथ में
भगवान को धारण कर वासुदेव जी
सूर्य के समान तेजस्वी हो गए |
भगवान् के ज्योतिर्मय अंश को
मंगल करने वाला जो जगत का
वासुदेव के द्वारा फिर
देवकी ने ग्रहण किया था |
सारे जगत के निवासस्थान हरि
निवास स्थान बनीं उनका देवकी
देवकी के गर्भ में तब
विराजमान हो गए श्री हरी |
देवकी के मुख पर पवित्र मुस्कान थी
और शरीर की कान्ति से उनके
बंदीग्रह जगमगाने लगा
देखा था जब ये कंस ने |
तब मन ही मन कहने लगा वो
अबकी बार तो अवश्य ही
विष्णु है इसके गर्भ में क्योंकि
पहले देवकी कभी ऐसी न थी |
अब इस विषय में मुझे
शीघ्र से शीघ्र क्या करना चाहिए
देवकी को मारना तो ठीक नहीं है
क्योंकि कलंकित हो पराक्रम इससे |
एक तो यह स्त्री है दुसरे
बहन भी और गर्भवती भी
कीर्ति, लक्ष्मी, आयु नष्ट हो
इसे मारने से तत्काल ही मेरी |
यद्यपि देवकी को मार सकता था
किन्तु इस क्रूरता के विचार से
स्वयं ही निवृत हो गया वो
प्रतीक्षा करे वो जन्म की प्रभु के |
दृढ वैरभाव मन में गांठकर
भगवान् के प्रति कंस अब
उठते बैठते, खाते पीते
सोते जागते, उठते बैठते तब |
सर्वदा ही श्री कृष्ण के
चिंतन में लगा रहता वो
जहा पर आँख पड़ती या
कहीं भी खडका होता तो |
वहां उसे श्री कृष्ण दिख जाते
और इस प्रकार कंस को
दिखने लगा था कृष्णमय
सारा ये संसार ही उसको |
परीक्षित, कंस के कैदखाने में
शंकर और ब्रह्मा भी आये
साथ में अनुचर, समस्त देवता
और नारदादि ऋषि थे |
हरि की स्तुति करने लगे वो
कहें, प्रभो, आप सत्यसंकल्प हैं
पृथी, जल, तेज, वायु और आकाश
इन पांच तत्वों का आप कारण हैं |
एक सनातन वृक्ष संसार ये
एक प्रकृति इसका आश्रय है
सुख और दुःख दो फल इसके
सत्व, रज और तम तीन जड़ें हैं |
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष
चार रस हैं ये इसके
श्रोत, त्वचा, नेत्र, रसना, नासिका
पांच प्रकार इसके जानने के।
पैदा होना, रहना,बढ़ना, बदलना
घटना, नष्ट होना छ स्वाभाव हैं
रास, रुधिर, मांस, मेद,अस्थि, मज्जा, शुक्र
सात धातुएं इसकी छाल हैं |
पांच महाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार
इसकी आठ शाखाएं हैं
और जो खोडर हैं इसके
मुख आदि नवों द्वार हैं |
प्राण, अपन, व्यान,उदान, समान
नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय ये
ये दस प्राण जो है
वे इसके हैं दस पत्ते |
इस संसार रुपी वृक्ष पर
जीव और ईश्वर, ये दो पक्षी
इस संसार रुपी वृक्ष की
उत्पत्ति का कारण एकमात्र आप ही |
आपसे ही प्रलय होती इसमें
रक्षा भी होती आपके अनुग्रह से
केवल आपका दर्शन करते
तत्वज्ञानी पुरुष सबके रूप से |
जगत के कल्याण के लिए
अनेकों रूप धारण हैं करते
सब पुरुषों को सुख हैं देते
अप्राकृत सत्वमय होने से।
दुष्टों को दुष्टता का दंड दें
अमंगलमय होते उनके लिए
भक्त आपके निष्कपट प्रेमी हैं
सच्चे हितेषी होते जगत के।
ये पृथ्वी चरणकमल है आपका
आपके आने से भार दूर हुआ इसका
आप अजन्मा, जन्म लेना ये
बस विनोद है आपका।
कई अवतार धारण कर आपने
रक्षा की है तीनों लोकों की
पृथ्वी का भार हरण कीजिये
आप वैसे ही, इस बार भी।
देवकी को सम्बोधन करके फिर
उन्होंने तब ऐसा कहा था
माता जी, सौभाग्य की बात ये
कल्याण करने के लिए हम सबका।
स्वयं भगवान् पुरुषोत्तम जी
पधारे अपने अंशों के साथ में
कंस की चिंता न कीजिये
अब कुछ दिन का ही मेहमान ये।
यदुवंश की रक्षा करेगा
भगवान का अंश, आपका पुत्र ये
ऐसे स्तुति कर भगवान कृष्ण की
फिर सब स्वर्ग को चले गए।