श्रीमद्भागवत -११८; दक्ष के द्वारा भगवान की स्तुति और भगवान का प्रादुर्भाव
श्रीमद्भागवत -११८; दक्ष के द्वारा भगवान की स्तुति और भगवान का प्रादुर्भाव
राजा परीक्षित ने पूछा भगवन
अपने पहले स्वयंभू मन्वन्तर की
सृष्टि का वर्णन किया था
देवता, असुर, मनुष्य, सर्प की।
जानना चाहता विस्तार उसी का
और उसके बाद की सृष्टि
जिस प्रकार भगवान करते हैं
ये जानने की इच्छा है मेरी।
सूत जी कहें, शौनकादि ऋषिओ
सुनकर प्रश्न यह परीक्षित का
व्यासनन्दन शुकदेव जी ने फिर
अभिनंदन किया और इस प्रकार कहा।
शुकदेव जी कहें राजा प्राचीनबर्हि के
दस पुत्र जो परचेता नाम के
समुन्द्र से निकले तो देखा
पृथ्वी घिर गयी सारी वृक्षों से।
वृक्षों पर बड़ा क्रोध आया उन्हें
मुख से वायु और अग्नि की सृष्टि की
वृक्ष बहुत भयभीत हो गए
अग्नि जब उन्हें जलाने लगी।
वृक्षों के राजा चंद्रमां ने
क्रोध को शांत करने को उनके
कहा कि वृक्ष ये बड़े दीन हैं
आप द्रोह मत कीजिये इनसे।
आप तो प्रजापति हैं
प्रजा की वृद्धि हैं करना चाहते
वनस्पतिओं और औषधिओं को बनाया
प्रजापतिओं के अधिपति श्री हरि ने।
खान पान के लिए बनाया
हित्तार्थ के लिए प्रजा के
इस जगत के सभी प्रनिओं को
ये वृक्ष भोजन हैं देते।
पंखों वाले चर प्रनिओं के
भोजन फल, पुष्प अचर पदार्थ हैं
पैरों से चलने वालों के घास, तृण
पदार्थ बिना पैर वाले हैं।
हाथ वालों के वृक्ष, लता आदि
भोजन हैं बिना हाथ के
धान, गेहूं अन्न भोजन हैं
दो पैर वाले मनुष्यों के।
बैल, ऊंट आदि चार पैरों वाले
अन्न की उत्पत्ति में सहायक हैं
इसीलिए हे प्रचेताओ इन
वृक्षों को जलाना उचित नहीं है।
पिता ने तुम्हे उपदेश दिया था
कि तुम प्रजा की सृष्टि करो
सत्पुरुषों के मार्ग का अनुसरण कर
क्रोध को अपने अब तुम शान्त करो।
माँ बाप जैसे बालकों की
पलकें नेत्रों की, पति पत्नी की
गृहस्थ भिक्षुओं की, ज्ञानी अज्ञानिओ की
ये सब रक्षा करते ही।
वैसे ही प्रजा की रक्षा का
राजा होता है उत्तरदाई
इसीलिए तुम क्रोध त्याग दो
और रक्षा करो वृक्षों की भी।
समस्त प्रनिओं के ह्रदय में प्रभु
विराजमान आत्मा के रूप में
इसलिए आप लोग सभी को
भगवान का निवासस्थान समझें।
जो पुरुष हृदय के क्रोध को
शरीर में ही शांत कर लेता
बाहर निकलने न देता उसको, वो
तीनों गुणों पर विजय प्राप्त कर लेता।
इन दीन हीन वृक्षों को
हे प्रचेताओ तुम न जलाओ
जो वृक्ष अभी बचे हुए हैं
रक्षा करो उनकी, उन्हें बचाओ।
आपका भी कल्याण है इसमें
और जिसे पाला वृक्षों ने
उस कन्या को स्वीकार करें
आप अपनी पत्नी रूप में।
वनस्पतिओं के राजा चन्द्रमा ने
समझाकर इस प्रकार प्रचेताओं को
प्रम्लोचा अप्सरा की कन्या उन्हें दी
और वहां से चले गए वो।
धर्मानुसार प्रचेताओं ने फिर
पाणिग्रहण किया उस कन्या का
प्राचेतस दक्ष की उत्पत्ति हुई
कन्या के गर्भ से प्रचेताओं द्वारा।
तीनों लोक थे भर गए
प्रजा सृष्टि से फिर दक्ष की
उन्होंने अपने संकल्प और वीर्य से
विविध प्रनिओं की सृष्टि की।
पहले प्रजापति दक्ष ने
प्रजा की सृष्टि संकल्प से की थी
जल, थल और आकाश में रहने वाले
देवता, असुर और मनुष्यों आदि की।
जब उन्होंने देखा कि यह
बढ़ नहीं रही ये सृष्टि
विंध्याचल के निकटवर्ती पर्वतों पर
तब जाकर घोर तपस्या की।
एक अत्यंत श्रेष्ठ तीर्थ वहां
अघमर्षण हैं उसको कहते
दक्ष त्रिकाल स्नान करते वहां
तपस्या और आराधना करते।
हँसगुह्य नामक एक स्तोत्र
उससे स्तुति की भगवान की
उसी से भगवान् उसपर प्रसन्न हुए
मैं तुम्हे सुनाता हूँ वो स्तुति।
दक्ष कहें, हे भगवन आपकी
अनुभूति, चित शक्ति अमोघ है
आप प्रकृति से परे, नियन्ता हैं
आप ही स्वयं प्रकाश हैं।
प्रभो आप सर्वदा शुद्ध हैं
शुद्ध ह्रदय में निवास करें आप तो
इसलिए बारम्बार मैं
नमस्कार करता हूँ आपको।
गूढ़ भाव से छिपे हुए आपके
परम ज्ञानी पुरुष हैं जो वो
अपनी शुद्ध बुद्धि के द्वारा
हृदय में ही ढून्ढ निकालें आपको।
भिन्नताएं जो हैं जगत्त में
माया ही है सब आपकी
माया के निषेध कर देने पर
शेष रह जाते आप ही।
ये माया भी आप ही हैं
प्रसन्न होईये आप अब मुझपर
आत्मप्रसाद से पूर्ण कर दीजिये
मन को करें मेरे शुद्ध, पवित्र।
आप साकार, निराकार दोनों से
ही अविरुद्ध सम परब्रह्म हैं
आप का न तो प्राकृत नाम
और न ही कोई प्राकृत रूप है।
चरणकमलों का भजन करते जो
उनपर अनुग्रह करने के लिए
अनेकों रूपों में प्रकट हों
अनेको लीलाएं हैं करते।
रूप और लीलाओं के अनुसार ही
अनेकों नाम धारण कर लेते
सब की मानता के अनुसार भिन्न भिन्न
देवताओं के रूप में प्रतीत हैं होते।
सबकी भावनाओं का अनुसरण करें आप
ऐसे आपको हम नमस्कार करें
स्तुति आपकी करूं मैं, आप अब
मेरी अभिलाषा भी पूर्ण करें।
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
स्तुति की जब ऐसे दक्ष ने
भगावन उनके सामने प्रकट हुए
गरुड़ के कंधे पर चरण रखे हुए।
त्रैलोक्यविमोहन रूप धारण किया
वहां त्रिभुवनपति भगवान ने
नारद,नन्द,सुनन्द पार्षद
उनके चारों और खड़े थे।
इद्रादि देवता स्तुति कर रहे
सिद्ध, गन्धर्व गुणों का गान करें
आनंद से भरकर दक्ष फिर
हरि को साष्टांग प्रणाम करें।
कुछ न बोल पाए वो प्रभु से
भगवान के सामने खड़े हो गए
सब के हृदय की बात जानते
भगवान दक्ष से तब ये कहें।
परमभाग्यवान दक्ष अब
तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी
तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ मैं
कामना जानूं तुम्हारी प्रजावृद्धि की।
हे ब्राह्मण, तपस्या हृदय मेरा
कर्म आकृति है, विद्या शरीर है
यज्ञ अंश है, धर्म मन है
और देवता मेरे प्राण हैं।
यह पंचजन प्रजापति की
कन्या, असिक्नी नाम है इसका
पत्नी के रूप में इसे ग्रहण करो
निर्वाह करो ग्रहस्थोचित्त धर्म का।
इस स्त्रीसहवासरूप धर्म को
सवीकार करेगी असिक्नी भी
अब तुम दोनों इसके द्वारा
संतान उत्पन्न करो बहुत सी।
हे प्रजापति, अब तक तो
मानसी सृष्टि ही होती थी
परन्तु तुम्हारे बाद ये सृष्टि
स्त्री पुरुष के संयोग से होगी।
मेरी ही माया से ही ये हो तथा
मेरी सेवा में रहेगी तत्पर
भगवान फिर अंतर्धान हो गए
दक्ष के सामने ही, ये कहकर।