श्रीमद्भागवत-१४२;श्री कृष्ण, बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुल प्रवेश
श्रीमद्भागवत-१४२;श्री कृष्ण, बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुल प्रवेश
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
देखा भगवान ने कि माता पिता को
ज्ञान हो गया ऐश्वर्य का मेरे
और भगवतभाव का उनको ।
उन्हें ये बात ठीक ना लगी
सोचें कि सुख ना पा सकेंगे इससे
सुख जो पुत्र स्नेह का होता
इसलिए फैलादी माया उन्होंने ।
बलराम जी को साथ में लेकर
माता पिता से कहने लगे ये
आप हमारे जन्मदाता हैं
और हम पुत्र आपके ।
बाल्य और किशोरावस्था का हमारे
फिर भी आप सुख ना पा सके
दुर्दैववश साथ रहने का सौभाग्य
नहीं मिला हम लोगों को आपके ।
पिता और माता ही हैं जो
इस शरीर को जन्म हैं देते
और पालन पोषण करते तो
काम,मोक्ष का साधन बनता ये ।
यदि कोई सौ वर्ष तक भी
माता पिता की सेवा करता रहे
तब भी उऋण नहीं हो सकता
मनुष्य वो उपकार से उनके ।
जो पुत्र सामर्थ्य रहते भी
माँ बाप की सेवा नहीं करता
मरने पर यमदूत लेजाकर
मांस खिलाते हैं उसे उसका ।
समर्थ होकर भी जो मनुष्य
बूढ़े माता पिता, पत्नी, बालक का
नहीं करता भरण पोषण वो
गुरु, ब्राह्मण और शरणागत का ।
वह मनुष्य जीता हुआ भी
समान होता है वो मुर्दे के
पिता जी, बीत गए इतने दिन
हम आप की सेवा ना कर सके ।
आप दोनो हमें क्षमा करें
ऐसा जब दोनों ने कहा तो
देवकी और वसुदेव ने तब
उठा लिया गोद में उनको ।
हृदय से लगाकर दोनों को
परमानंद प्राप्त हुआ उनको
पुत्रस्नेह से आंसू छलक गए
नम हो गयीं आँखें दोनो ।
देवकीनन्दन श्री कृष्ण ने
सांत्वना दी माता पिता को
यदुवंशियों का राजा बना दिया
अपने नाना उग्रसेन को ।
कहें राजन, हम आपकी प्रजा
राजा ययाति के शाप से
राजसिंहासन पर कोई
यदुवंशी बैठ ना सके ।
परंतु मेरी ऐसी ही इच्छा
इसलिए आपको कोई दोष ना होगा
परीक्षित, भगवान श्री कृष्ण तो
सारे विश्व के हैं विधाता ।
कंस के डर से व्याकुल होकर जो
इधर उधर सब भाग गए थे
यदु, वृष्णि, अन्धक आदि सब
लौट आए अपने घरों में ।
कृष्ण ने सबका सत्कार किया
उन सब को सम्पत्ति भी दी
कृष्ण बलराम के कारण सुरक्षित थे
सारे के सारे यदुवंशी ।
वे सब कृतार्थ हो गए
प्रतिदिन उनका दर्शन करते
उसके बाद कृष्ण बलराम फिर
नन्दबाबा के पास गए थे ।
गले लगकर उन्हें कहें पिता जी
आपने और माँ यशोदा ने
हमारा लालन पालन किया है
बड़े स्नेह और बड़े दुलार से ।
पिता जी अब आप व्रज में जाइए
हालाँकि इसमें संदेह नहीं कि
बहुत दुःख होगा आपको
स्नेहवश वहाँ, बिना हमारे ।
सुखी करके यहाँ यदुवंशियों को
आप लोगों को मिलने आएँगे
ऐसा कहकर सबका सत्कार किया
वस्त्र, आभूषण भी उन्हे दिए ।
नन्दबाबा ने प्रेम से फिर
दोनो भाइयों को गले लगा लिया
और फिर दुखी हृदय से
व्रज के लिए प्रस्थान किया ।
उसके बाद गर्ग़ाचार्य तथा
ब्राह्मणों को बुलाकर वासुदेव ने
यज्ञोपवीत संस्कार कराया
अपने दोनों पुत्रों का उनसे ।
कृष्ण और बलराम दोनों ही
द्विजतव को प्राप्त हुए ऐसे
ब्रह्मचर्य व्रत नियमत स्वीकार किया
गायत्रिपूर्वक अध्ययन करने के लिए ।
गुरुकुल में निवास करने को
सांदीपनी मुनि के पास गए वो
अवांतिपुर में रहते थे गुरु जी
उनके पास रहने लगे दोनों ।
भक्ति से गुरु की सेवा करने लगे
गुरुवर भी उनसे प्रसन्न हुए
दोनो भाइयों को उपनिषदों और
वेदों की शिक्षा देने लगे ।
और कई शास्त्र विद्याओं की शिक्षा
अध्ययन कराया उन्हें राजनीति का
गुरु के एक बार कहने से ही
सीख लेते थे सारी विद्या ।
केवल चौंसठ दिन रात में
चौंसठ कलाएँ सीखीं उन्होंने
अध्ययन समाप्त होने पर फिर
गुरु दक्षिणा जब देने लगे ।
कहा गुरु जी कि आपकी
जो इच्छा हो दक्षिणा माँग लो
भगवान की महिमा और बुद्धि का
सब पता था सांदीपनी को ।
सलाह करके अपनी पत्नी से
उन्होंने कृष्ण बलराम से कहा
‘ मेरे बालक को वापस ले आओ
समुंदर में डूबकर जो मर गया था ‘ ।
प्रभास क्षेत्र में जहां बालक डूबा था
दोनों भाई वहाँ पहुँच गए
समुंदर उपस्थित हो गया सामने
जानकर ये कि परमेश्वर वे ।
मनुष्य रूप धारी समुंदर को
भगवान ने तब ये कहा
गुरू पुत्र को ले आओ तुम
तब समुद्र ने उत्तर दिया ।
मैंने उसको नहीं लिया है
पर एक असुर पंचजन नाम का
अवश्य ही उसने बालक चुराया
शंखरूप में मेरे जल में रहता ।
भगवान कृष्ण जल में घुस गए
मार डाला था शंख़ासुर को
परन्तु गुरूपुत्र ना मिला
उस असुर के पेट में उनको ।
उसके शरीर का शंख लेकर फिर
भगवान अपने रथपर चले गए
यमराज की प्रियपुरी संयमनी में
जाकर वो अपना शंख बजाएँ ।
शंख का शब्द सुन यमराज आ गए
‘ क्या सेवा करूँ ‘, पूछें वो उनसे
भगवान कहें ‘ गुरूपत्र आया यहाँ
लाया गया अपने कर्मबन्धन से ‘ ।
मेरी आज्ञा स्वीकार करो तुम
ध्यान ना देकर कर्म पर उसके
उस मेरे गुरूपुत्र को अभी
ले आओ तुम पास मेरे ।
गुरूपुत्र को यमराज ले आए
लाकर गुरु को सौंप दिया उसे
कहें, गुरु जी, और जो चाहिए
आप सब माँग लो हमसे ।
गुरु जी कहें कि गुरुदक्षिणा
मनमानी दी मुझे आपने
अब तुम अपने घर जाओ
मुझे और कुछ नहीं चाहिए ।
लोकों को पवित्र करने वाली
कीर्ति प्राप्त हो तुम दोनों को
लोक परलोक में सदा नवीन बनी रहे
तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या जो ।
कभी विस्मृत ना होगी ये विद्या
ये आशीर्वाद दिया गुरु ने
उसके बाद दोनों भाई फिर
मथुरा पूरी लौट आए थे ।