श्रीकृष्ण माहात्म्य
श्रीकृष्ण माहात्म्य
प्रथम सर्ग - श्रीकृष्ण बाल कथा
श्रीकृष्ण की सुन लो कथा तुम, आज पूरे ध्यान से।
भवसागरों से मुक्ति देती, यह कथा सम्मान से॥
झंझावतों की रात थी जब, आगमन जग में हुआ।
प्रारब्ध में जो था लिखा तय, कंस का जाना हुआ॥
गोकुल मुझे तुम ले चलो अब, हो प्रकट बोले हरी।
माया वहाँ मेरी है जन्मी, तेज से है वो भरी॥
ज्यूँ कृष्ण का आना हुआ त्यूँ, बेड़ियाँ सब खुल गयीं।
ताले लगे थे द्वार पर जो, चाभियाँ खुद लग गयीं॥
प्रहरी थे कारागार के सब, नींद में सोये हुये।
जैसे किसी माया में पड़ कर, स्वप्न में खोये हुये॥
इक टोकरी में डाल बाबा, नन्द घर को चल पड़े।
वर्षा प्रबल यूँ हो रही थी, तात चिंता में बड़े॥
कैसे करें हम पार नदिया, बाढ़ इसमें आ गयी।
जब छू लिये चरणन तिहारे, शांति यमुना पा गयी॥
फन वासुकी छतरी बना कर, वृष्टि से रक्षा किये।
उस पार बाबा आ गये तब, टोकरी सर पर लिये॥
अपने लला को साथ ले कर, नन्द बाबा से मिले।
पूरी कथा उनको सुना कर, आस की किरणें खिले॥
बाबा कहे जो भाग्य में है, अब वही होगा घटित।
है ले लिया अवतार प्रभु ने, देवताओं के सहित॥
थीं नन्द के घर माँ यशोदा, योगमाया साथ में।
दोनों खुशी से सो रही थीं, हाथ डाले हाथ में॥
वसुदेव ने सौंपा हरी को, योगमाया साथ ले।
लाला निहारे तात को जब, छोड़ कर बाबा चले॥
फिर कंस कारागार आया, योगमाया छीन ली।
पर दिव्य देवी मुस्कुराती, खिलखिलाती उड़ चली॥
बोली कि तेरा काल दुष्टे, आ गया है अब निकट।
जल्दी हरी आकर हरेंगे, विश्व के संकट विकट॥
माँ देवकी वसुदेव बाबा, जेल में ही रह गये।
पर आपके सम्बल सहारे, कष्ट सारे सह गये॥
बचपन बिताया माँ यशोदा, संग क्रीड़ा कर कई।
गोकुल निवासी धन्य होते, देख लीला नित नई॥
यूँ बालपन में ही किया था, दानवों का सामना।
संहार कर फिर कंस का की, पूर्ण सबकी कामना॥
विष-सर्प से दूषित भयी जब, जल किसी ने न पिया।
यमुना नदी में कूद कर तब, कालिया मर्दन किया॥
गिरिराज को अंगुल उठाकर, सात दिन धारण किया।
अभिमान सारा इन्द्र का यूँ, एक पल में हर लिया॥
सम्मान नारी का करें सब, सीख सबने ये लिया।
गीता सुनाकर पार्थ का भी, मार्गदर्शन कर दिया॥
अवतार ले जग को सुधारा, कम हुआ जब धर्म है।
है आपने ही ये सिखाया, श्रेष्ठ सबसे कर्म है॥
(इति-प्रथम सर्ग)
श्रीकृष्ण स्तुति
श्रीकृष्ण मेरे इष्ट भगवन, नित्य करता ध्यान मैं।
मुरली मनोहर श्याम सुन्दर, भक्तिरस का गान मैं॥
कोमल बदन चन्दन सजा है, भव्य यह श्रृंगार है।
कर में सजी वंशी सुनहरी, देखता संसार है॥
पग गोपियों के झूमते हैं, आपकी सुन बाँसुरी।
पर क्रोध से तुमरे दहलतीं, शक्तियाँ सब आसुरी॥
ना भोग छप्पन हैं सजे पर, भाव मेरा देखिये।
माखन खिलायें आपको हम, प्रेम से यह लीजिये॥
तन मन वचन सब दे दिया है, जाप तेरे नाम का।
हूँ आपके ही अब सहारे, आसरा बस आपका॥
सम्पूर्ण जग में आप ही हो, आप से ही सब बना।
है आप पर सर्वस्व अर्पण, आप की आराधना॥
आकाश से पाताल तक है, व्याप्त महिमा आपकी।
सारी दिशाओं में दमकती, कांति सुन्दर रूप की॥
मम मात तुम तुम तात हो तुम, बन्धु तुम ही हो सखा।
प्रियतम तुझे ही मानता मैं, तुम बिना क्या है रखा॥
वरदान मुझको दीजिये अब, और कुछ ना माँगता।
तुम ही बसो मन में हमेशा, बस यही मैं चाहता॥
हर रोज मुझको आपका ही, ध्यान होना चाहिये।
पापी समझ मुझ दीन को निज, धाम में अपनाइये॥
सब कुछ मिला जो मिल गया है, नाम सुख सबसे बड़ा।
कुछ और इच्छा ना रहे जब, आपके चरणों पड़ा॥
मनमोहना है छवि तिहारी, श्वास का आधार है।
विश्वास है मेरा यही की, मुक्ति का तू द्वार है॥
सविनय निवेदन आप से है, काज मेरे कीजिये।
मेरा समय जब पूर्ण हो तो, मोक्ष मुझको दीजिये।