श्रीमद्भागवत -२५१; शिशुपाल के साथी राजाओं की और रुक्मी की हार तथा श्री कृष्ण, रुक्मिणी का विवाह
श्रीमद्भागवत -२५१; शिशुपाल के साथी राजाओं की और रुक्मी की हार तथा श्री कृष्ण, रुक्मिणी का विवाह
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
इस प्रकार सभी राजा वो
क्रोध में कृष्ण के पीछे दौड़े
लेकर अपनी सारी सेना को।
जरासन्ध की सेना ने वहाँ
वाणों की वर्षा कर दी थी
मारकर यदुवंशियों ने उन्हें
उनपर विजय प्राप्त कर ली।
जरासन्ध आदि सब योद्धा
पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए
भावी पत्नी छिन जाने के कारण
शिशुपाल भी बहुत दुखी हुए।
जरासन्ध ने पास आकर कहा
‘ शिशुपाल जी, श्रेष्ठ पुरुष आप तो
आप उदासी छोड़ दीजिए
होना है जो, होकर रहता वो।
कोई भी बात अपने मन के
अनुकूल, प्रतिकूल हो , इस सम्बन्ध में
कोई स्थिरता नही देखी जाती
किसी भी प्राणी के जीवन में।
सत्रह बार हरा दिया था
कृष्ण और बलराम ने मुझे
उनपर तब विजय प्राप्त की
आठहरवीं बार देखो फिर मैंने।
इसमें संदेह नही कि हम नायक
बड़े बड़े सेनापतियों के
फिर भी हमें हरा दिया है
यदुवंशियों की थोड़ी से सेना ने।
जीत हुई शत्रुओं की हमारे
क्योंकि काल उनके अनुकूल था
हम भी जीत लेंगे उनको
काल हमारी और जब होगा।
शिशुपाल को जब समझाया ऐसे
राजधानी चले गए वो अपनी
और जो सब मित्र राजा थे
चले गए अपनी अपनी नगरी।
रुक्मिणी का बड़ा भाई रुक्मी
कृष्ण से जो द्वेष था रखता
ये बात उसे सहन ना हुई कि
कृष्ण ने उसकी बहन को हर लिया।
रुक्मी बली तो था ही , उसने
एक अक्षोंहनी सेना साथ ले
कृष्ण के पीछे मारने दौड़ा
और प्रतिज्ञा भी की उसने।
‘ मैं शपथ लेता हूँ कि यदि
कृष्ण को युद्ध में मार ना सका
और लौटा ना सका बहन को तो
कुण्डिनपुर में नही आऊँगा।
अपने सारथी से कहा उसने
कृष्ण के पास ले जाओ रथ को
बुद्धि बिगड़ गयी थी उसकी
कृष्ण के प्रभाव को जानता ना वो।
श्री कृष्ण के पास पहुँचकर
वाणों से वार किया था उनपर
कहे कृष्ण को, रुक्मिणी को छोड़कर
चला जा तू यहाँ से भागकर।
बात सुनकर मुस्कुराने लगे कृष्ण
धनुषवान काट दिया उसका
भगवान कृष्ण काट देते थे
जो जो शस्त्र वो उठाता।
रुक्मी कृष्ण की और था झपटा
तलवार लेकर तब बड़े क्रोध से
भगवान ने भी तलवार निकाल ली
और बढ़े उसे मारने के लिए।
रुक्मिणी जी ने जब देखा कि
मारना चाहते कृष्ण भाई को
चरणों में कृष्ण के पड़ गयीं
भाई के प्रेम में विह्वल होकर वो।
करुण स्वर में बोलीं , जगतपते
परमबलवान, योगेश्वर आप हैं
मेरे भाई को मत मारिये
आप कल्याण स्वरूप भी तो हैं।
शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
भयभीत देखकर रुक्मिणी जी को
परम दयालु भगवान श्री कृष्ण
करुणा से द्रवित हो गए वो।
विचार रुक्मी को मारने का तब
छोड़ दिया भगवान कृष्ण ने
फिर भी रुक्मी विमुख ना हुआ
चेष्टा से अनिष्ट की उनके।
तब भगवान कृष्ण ने उसे
दुपट्टे से बाँध दिया उसी के
दाढ़ी, मूँछ और केश काटकर
कुरूप बना दिया था उसे।
तबतक यदुवंशियों की सेना ने
शत्रु सेना को रौंद डाला था
रुक्मी को देख, बलराम जी को
दया आयी और उसे खोल दिया।
कृष्ण को कहा उन्होंने
‘ अधर्म ये किया हैं तुमने
यह निंदनीय काम है
हम लोगों के योग्य नही ये।
दाढ़ी, मूँछ मूँड़कर सम्बन्धी की
कुरूप बना दिया ऐसे उसे
यह तो एक प्रकार का वध है
शोभा नही देता हमें ये ‘।
रुक्मिणी को सम्बोधित करके कहा
‘ ये सोचकर बुरा ना मानो
और कोई दूसरा नही है
सुख दुःख देता है जो जीव को।
अपने ही कर्मों का फल
भोगना पड़ा है उसे तो ‘
कृष्ण से कहा,’ सम्बन्धी को मारना
उचित नही, इस योग्य भी वो हो तो।
हमें छोड़ देना चाहिए उसे
अपने अपराध से ही मर चुका वो तो ‘
ऐसे समझाकर कृष्ण को
फिर रुक्मिणी जी से बोले वो।
‘ ब्रह्मा जी ने क्षत्रियों का घर्म ही
ऐसे बना दिया है कि वे
और तो छोड़ो, मार डालते हैं
सगे भाई को भी अपने।
साध्वी, तुम्हारा भाई ये
प्राणियों के प्रति दुर्भाव हैं रखता
इसलिए उसके मंगल के लिए ही
ये दंड विधान है किया।
यह कल्पित शरीर ले जाता
जन्म मृत्यु के चक्र में
आत्मा के नही, शरीर के होते
जन्म मृत्यु आदि विकार ये।
इसलिए तुम शोक को त्याग दो
अज्ञान के कारण होता जो
मोहित करे ये अंतकरण को, छोड़ इसे
अपने स्वरूप में स्थित हो जाओ ‘।
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
बलराम जी ने जब समझाया तो
रुक्मिणी के मन का मोह मिट गया
विवेक बुद्धि से शान्त हो गयीं वो।
रुक्मी की सेना और उसके तेज का
नाश हो चुका, बस प्राण बचे थे
उसे वहीं पर छोड़ दिया था
शत्रु ने अपमानित करके।
उसने अपने रहने के लिए
भोजकट नाम की नगरी बसाई
कुण्डिनपुर में प्रवेश ना करने की
क्योंकि उसने प्रतिज्ञा की थी।
परीक्षित, भगवान श्री कृष्ण ने
सब राजाओं को जीत लिया
रुक्मिणी जी को द्वारका ले गए
उनका वहाँ पाणिग्रहण किया।
बड़ा भारी उत्सव हुआ था
अपूर्व शोभा थी द्वारका की
रुक्मिणी हरण की गाथा वहाँ
सभी जगह गायी जा रही।
